हरिवंश पुराण - सर्ग 25: Difference between revisions
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<span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर किसी दिन मदनवेगा का भाई दधिमुख अपने पिता को बंधन से छुड़ाने की इच्छा करता हुआ कुमार वसुदेव के पास आकर निम्नांकित संदर्भ कहने लगा ॥1॥<span id="2" /> उसने कहा कि हे देव ! सुनिए नमि के वंश में असंख्यात राजाओं के हो जाने से अरिंजयपुर का स्वामी राजा मेघनाद हुआ ॥2॥<span id="3" /> उसके एक पद्मश्री नाम की कन्या थी । उस कन्या के विषय में निमित्त ज्ञानियों ने बताया था कि यह चक्रवर्ती की स्त्री | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर किसी दिन मदनवेगा का भाई दधिमुख अपने पिता को बंधन से छुड़ाने की इच्छा करता हुआ कुमार वसुदेव के पास आकर निम्नांकित संदर्भ कहने लगा ॥1॥<span id="2" /> उसने कहा कि हे देव ! सुनिए नमि के वंश में असंख्यात राजाओं के हो जाने से अरिंजयपुर का स्वामी राजा मेघनाद हुआ ॥2॥<span id="3" /> उसके एक पद्मश्री नाम की कन्या थी । उस कन्या के विषय में निमित्त ज्ञानियों ने बताया था कि यह चक्रवर्ती की स्त्री-रत्न होगी ॥3॥<span id="4" /><span id="5" /> उसी के समय में नभस्तिलक नगर का राजा वज्रपाणि भी हुआ । उसने रूपवती पद्मश्री कन्या की पहले अनेक बार याचना की परंतु जब वह उसे नहीं प्राप्त कर सका तो उस दुष्ट विद्याधर ने रुष्ट होकर युद्ध ठान दिया । मेघनाद प्रबल शक्ति का धारक था इसलिए वज्रपाणि उसे युद्ध में जीत नहीं सका फलस्वरूप वह कार्य में असफल हो अपने नगर को वापस लौट गया ॥4-5 ॥<span id="6" /><span id="7" /> उसी समय किन्हीं मुनिराज को केवलज्ञानरूपी लोचन की प्राप्ति हुई सो उनकी पूजा के अर्थ अनेक मनुष्य<strong>, </strong>देव और धरणेंद्रों की सभा जुटी । उस सभा में केवली भगवान् की पूजा कर मेघनाद ने उनसे पूछा कि हे प्रभो ! इस भरतक्षेत्र में मेरी पुत्री का भर्ता कौन होगा ! इस प्रकार पूछने पर केवलज्ञानी मुनिराज ने उसके योग्य वर और उसके कुल का निरूपण किया ॥6-7॥</p> | ||
<p> उन्होंने कहा कि हस्तिनापुर नगर में कौरववंश में उत्पन्न हुआ कार्तवीर्य नाम का एक राजा था जो पराक्रम से बहुत ही उद्दंड था ॥8॥<span id="9" /> उसने कामधेनु के लोभ से जमदग्नि नामक तपस्वी को मार डाला था । जमदग्नि का लड़ का परशुराम था वह भी बड़ा बलवान् था अतः उसने क्रोधवश पिता का घात करने वाले कार्तवीर्य को मार डाला ॥9॥<span id="10" /><span id="11" /> इतने से ही उसका क्रोध शांत नहीं हआ अतः उसने क्रुद्ध होकर युद्ध में स्त्री-पुत्रों सहित और भी अनेक क्षत्रियों को मार डाला । इस तरह जब वह अनेक क्षत्रियों को मार रहा था तब राजा कार्तवीर्य की गर्भवती तारा नाम की पत्नी भयभीत हो गुप्त रूप से निकलकर कौशिक ऋषि के आश्रम में जा पहुंची ॥10-11॥<span id="12" /> वहाँ भय सहित निवास करती हुई तारा रानी ने एक पुत्र उत्पन्न किया जो क्षत्रियों के त्रास को नष्ट करने वाला आठवाँ चक्रवर्ती होगा ॥12॥<span id="13" /> क्योंकि वह पुत्र भूमि गृह-तलघर में उत्पन्न हुआ था इसलिए सुभौम इस नाम से पुकारा जाने लगा । इस समय वह बालक कौशिक ऋषि के रमणीय आश्रम में गुप्त रूप से बढ़ रहा है ॥ 13 ॥<span id="14" /> वही कुछ ही दिनों में परशुराम को मारने वाला बलशाली चक्रवर्ती होगा और वही तुम्हारी कन्या का पति होगा ॥14॥<span id="15" /> परशुराम यमराज के समान क्रूर है वह सात बार क्षत्रियों का अंत कर इस समय ब्राह्मणों के हित में अपना मन लगा रहा है ॥ 15 ॥<span id="16" /> इस तरह जिसने प्रतापरूपी अग्नि से समस्त दिशाओं को व्याप्त कर दिया है तथा मनोवांछित दान देकर जिसने याचकों की आशाएँ पूर्ण कर दी हैं ऐसा परशुराम इस समय एकछत्र पृथिवी पर निरंतर वृद्धि को प्राप्त हो रहा है ॥16॥<span id="17" /></p> | <p> उन्होंने कहा कि हस्तिनापुर नगर में कौरववंश में उत्पन्न हुआ कार्तवीर्य नाम का एक राजा था जो पराक्रम से बहुत ही उद्दंड था ॥8॥<span id="9" /> उसने कामधेनु के लोभ से जमदग्नि नामक तपस्वी को मार डाला था । जमदग्नि का लड़ का परशुराम था वह भी बड़ा बलवान् था अतः उसने क्रोधवश पिता का घात करने वाले कार्तवीर्य को मार डाला ॥9॥<span id="10" /><span id="11" /> इतने से ही उसका क्रोध शांत नहीं हआ अतः उसने क्रुद्ध होकर युद्ध में स्त्री-पुत्रों सहित और भी अनेक क्षत्रियों को मार डाला । इस तरह जब वह अनेक क्षत्रियों को मार रहा था तब राजा कार्तवीर्य की गर्भवती तारा नाम की पत्नी भयभीत हो गुप्त रूप से निकलकर कौशिक ऋषि के आश्रम में जा पहुंची ॥10-11॥<span id="12" /> वहाँ भय सहित निवास करती हुई तारा रानी ने एक पुत्र उत्पन्न किया जो क्षत्रियों के त्रास को नष्ट करने वाला आठवाँ चक्रवर्ती होगा ॥12॥<span id="13" /> क्योंकि वह पुत्र भूमि गृह-तलघर में उत्पन्न हुआ था इसलिए सुभौम इस नाम से पुकारा जाने लगा । इस समय वह बालक कौशिक ऋषि के रमणीय आश्रम में गुप्त रूप से बढ़ रहा है ॥ 13 ॥<span id="14" /> वही कुछ ही दिनों में परशुराम को मारने वाला बलशाली चक्रवर्ती होगा और वही तुम्हारी कन्या का पति होगा ॥14॥<span id="15" /> परशुराम यमराज के समान क्रूर है वह सात बार क्षत्रियों का अंत कर इस समय ब्राह्मणों के हित में अपना मन लगा रहा है ॥ 15 ॥<span id="16" /> इस तरह जिसने प्रतापरूपी अग्नि से समस्त दिशाओं को व्याप्त कर दिया है तथा मनोवांछित दान देकर जिसने याचकों की आशाएँ पूर्ण कर दी हैं ऐसा परशुराम इस समय एकछत्र पृथिवी पर निरंतर वृद्धि को प्राप्त हो रहा है ॥16॥<span id="17" /></p> | ||
<p> इधर तपस्वी के आश्रम में निवास करने वाला सुभौम जैसे | <p> इधर तपस्वी के आश्रम में निवास करने वाला सुभौम जैसे-जैसे बढ़ने लगा उधर परशुराम के घर वैसे-वैसे ही सैकड़ों उत्पात होने लगे ॥17॥<span id="18" /> उत्पातों से आशंकित एवं आश्चर्यचकित हो उसने निमित्तज्ञानी से पूछा कि ये उत्पात मेरे किस अनिष्ट को कह रहे हैं ? ॥18॥<span id="19" /> निमित्तज्ञानी ने कहा कि आपका शत्रु कहीं छिपकर वृद्धि को प्राप्त हो रहा है । वह कैसे जाना जा सकता है ? इस प्रकार परशुराम के पूछने पर निमित्तज्ञानी ने पुनः कहा कि ॥19॥<span id="20" /> तुम्हारे द्वारा मारे हुए क्षत्रियों की डाढ़ें जिसके भोजन करते समय खीररूप में परिणत हो जावें वही तुम्हारा उद्दंड शत्रु है ॥20॥<span id="21" /> यह सुनकर क्षत्रियों में श्रेष्ठ शत्रु को जानने की इच्छा करते हुए परशुराम ने शीघ्र ही एक विशाल दानशाला बनवायी ॥21॥<span id="22" /> और दानशाला के मध्य में डाढों से भरा बरतन रखकर उसके अध्यक्ष को सब वृत्तांत समझा दिया जिससे वह यत्नपूर्वक वहाँ सदा अवस्थित रहता है ॥22॥<span id="23" /> यह सब समाचार सुन राजा मेघनाद केवली की वंदना कर शीघ्र ही हस्तिनापुर गया और वहाँ उसने कुमार सुभौम को देखा ॥23॥<span id="24" /> उस समय सुभौम कुमार शस्त्र और शास्त्ररूपी सागर के अंतिम तट पर विद्यमान था<strong>, </strong>अधिक शोभा से युक्त था<strong>, </strong>सब ओर उसका देदीप्यमान प्रताप फैल रहा था और वह उदित होते हुए सूर्य के समान जान पड़ता था ॥24॥<span id="25" /> जिस प्रकार ईंधन को नष्ट करने के लिए वायु अग्नि को प्रेरित कर देती है उसी प्रकार पूर्व वृत्तांत सुनाने वाले राजा मेघनाद ने उसे शत्रुरूपी ईंधन को जलाने के लिए धीरे से प्रेरित कर दिया ॥25॥<span id="26" /> वह उसी समय घर से निकल राजा मेघनाद के साथ शत्रु के घर जा पहुंचा और भूखा बन दर्भका आसन ले परशुराम की दानशाला में भोजनार्थ जा बैठा ॥26 ॥<span id="27" /> ब्राह्मण के अग्रासन पर बैठे हुए कुमार सुभौम के आगे डाढ़ों का पात्र रखा गया और उसके प्रभाव से समस्त डाढ़ें खीररूप में परिणत हो गयीं ॥27॥<span id="28" /> तदनंतर अध्यक्ष के आदमियों ने शीघ्र ही जाकर परशुराम के लिए इसकी सूचना दी और परशुराम उसे मारने की इच्छा से फरसा हाथ में लिये शीघ्र ही वहाँ आ पहुंचा ॥28॥<span id="29" /> जिस समय सुभौम थाली में आनंद से खीर का भोजन कर रहा था उसी समय परशुराम ने उसे मारना चाहा । परंतु सुभौम के पुण्य प्रभाव से वह थाली चक्र के रूप में परिवर्तित हो गयी और उसी से उसने शीघ्र ही परशुराम को मार डाला ॥ 29 ॥<span id="30" /> सुभौम अष्टम चक्रवर्ती के रूप में प्रकट हुआ । चौदह रत्न<strong>, </strong>नौ निधियाँ और मुकुटबद्ध बत्तीस हजार राजा उसकी सेवा करने लगे ॥30॥<span id="31" /> स्त्रीरत्न के लाभ से संतुष्ट हुए चक्रवर्ती सुभौम ने मेघनाद को विद्याधरों का राजा बना दिया जिससे शक्ति संपन्न हो उसने वज्रपाणि को मार डाला ॥31॥<span id="32" /> तदनंतर शठ के प्रति शठता दिखाने वाले सुभौम चक्रवर्ती में भी क्रोध युक्त हो चक्ररत्न से इक्कीस बार पृथिवी को ब्राह्मण-रहित किया ॥32॥<span id="33" /> चक्रवर्ती सुभौम साठ हजार वर्ष तक जीवित रहा परंतु तृप्ति को प्राप्त नहीं हुआ इसलिए आयु के अंत में मरकर सातवें नरक गया ॥33॥<span id="34" /> राजा मेघनाद को संतति में आगे चलकर छठा राजा बलि हुआ । बलि विद्याबल से उद्दंड था और तीन खंड का स्वामी प्रतिनारायण था ॥34॥<span id="35" /> उसी समय नंद और पुंडरीक नामक बलभद्र तथा नारायण विद्यमान थे और अतिशय बल के धारक इन्हीं दोनों के द्वारा युद्ध में बलि मारा गया ॥35 ॥<span id="36" /><span id="37" /> बलि के वंश में सहस्रग्रीव<strong>, </strong>पंचशतग्रीव और द्विशतग्रीव को आदि लेकर जब बहुत से विद्याधर राजा हो चुके तब हे यादव ! विद्युद्वेग नाम का राजा उत्पन्न हुआ । वह विद्युद्वेग हमारा पिता है तथा आपका श्वसुर है ॥36-37॥ एक दिन राजा विद्युद्वेग ने अवधिज्ञानी मुनिराज से पूछा कि हे भगवन् ! हमारी इस मदनवेगा पुत्री का पति कौन होगा ? ॥38॥<span id="39" /> मुनिराज ने कहा कि रात्रि के समय गंगा में स्थित होकर विद्या सिद्ध करने वाले तुम्हारे चंडवेग नामक पुत्र के कंधे पर जो गिरेगा उसी की यह स्त्री होगी ॥39॥<span id="40" /> यह निश्चय करके पिता ने अपने चंडवेग नामक पुत्र को तेज वेग से युक्त गंगानदी में विद्यासिद्ध करने के कार्य में नियुक्त किया ॥40॥<span id="41" /> नभस्तिलक नगर का राजा त्रिशिखर नाम का दुष्ट विद्याधर<strong>, </strong>अपने सूर्यक नामक पुत्र के लिए इस कन्या की कई बार याचना कर चुका था पर इसे प्राप्त नहीं कर सका ॥41॥<span id="42" /> इसलिए सदा वैर रखता था । एक दिन युद्ध में अवसर पाकर उसने हमारे पिता को बाँधकर कारागृह में डाल दिया ॥42॥<span id="43" /> इस समय प्रबल पराक्रम को धारण करने वाले आप हम सबको प्राप्त हुए हैं इसलिए शत्रु के द्वारा बंधन को प्राप्त अपने श्वसुर को शीघ्र ही बंधन से मुक्त करो ॥43 ॥<span id="44" /> सुभौम चक्रवर्ती ने प्रसन्न होकर हमारे पूर्वजों के लिए जो विद्यास्त्र दिये थे हे स्वामिन् ! शत्रु का घात करने की इच्छा से उन्हें ग्रहण कीजिए ॥44॥<span id="45" /></p> | ||
<p> इस प्रकार दधिमुख के कहे वचन सुनकर प्रतापी वसुदेव ने श्वसुर को छुड़ाने के लिए मन में विचार किया ॥45॥<span id="46" /> तदनंतर चंडवेग ने युवा वसुदेव के लिए देव जिनकी सदा सेवा करते थे ऐसे बहुत से विद्यास्त्र विधिपूर्वक प्रदान किये ॥46॥<span id="47" /><span id="48" /><span id="49" /> उनमें से कुछ विद्यास्त्रों के नाम ये हैं― ब्रह्मसिर<strong>, </strong>लोकोत्सादन<strong>, </strong>आग्नेय<strong>, </strong>वारुण<strong>, </strong>माहेंद्र<strong>, </strong>वैष्णव<strong>, </strong>यमदंड<strong>, </strong>ऐशान<strong>, </strong>स्तंभन<strong>, </strong>मोहन<strong>, </strong>वायव्य<strong>, </strong>जृंभण<strong>, </strong>बंधन<strong>,</strong> मोक्षण<strong>, </strong>विशल्यकरण<strong>, </strong>व्रणरोहण सर्वास्त्रच्छादन छेदन और हरण ॥47-49 ॥<span id="50" /> इस प्रकार इन्हें आदि लेकर चलाने और संकोचने को विधि सहित अन्य अनेक विद्यास्त्र चंडवेग ने कुमार वसुदेव के लिए दिये और उन्होंने आदर के साथ उन्हें ग्रहण किया ॥50॥<span id="51" /> उस समय बल की अधिकता से युद्ध की इच्छा रखता हुआ दुष्ट त्रिशिखर<strong>, </strong>स्वयं ही सेनाओं के साथ शीघ्र चंडवेग के नगर के समीप आ पहुंचा ॥51॥<span id="52" /> जिसे जाकर बाँधना था वह स्वयं ही पास आ गया यह विचार कर संतुष्ट होते हुए वसुदेव<strong>, </strong>अपने सालों आदि की सेना के साथ बाहर निकले ॥52॥<span id="53" /> विद्याधरों के झुंड के बीच वह वसुदेव कल्पवासी देवों के समूह के बीच इंद्र के समान सुशोभित हो रहे थे॥53॥<span id="54" /> और आकाश में खड़े मातंग जाति के विद्याधरों के बीच त्रिशिखर क्रूर असुरों के बीच में स्थित चमरेंद्र के समान सुशोभित हो रहा था ॥54॥<span id="55" /> दोनों ही सेनाओं के बड़े-बड़े विमानों<strong>, </strong>मदोन्मत्त हाथियों और वायु के समान वेगशाली घोड़ों से आकाश आच्छादित हो गया ॥55॥<span id="56" /> शस्त्र-समूह की किरणों से जिन्होंने सूर्य को किरणों को आच्छादित कर दिया था तथा जों तुरही आदि वादित्रों के शब्द से अपना संतोष प्रकट कर रही थीं ऐसी दोनों सेनाओं की आकाश में मुठभेड़ हुई ॥56॥<span id="57" /> कानों तक खींचे हुए धनुष-मंडलों से छूटे बाणों से मनुष्यों के बाह्य हृदय तो खंडित हुए थे परंतु अंतर्मन हृदय नहीं ॥ 57 ॥<span id="58" /> युद्ध में चक्रों की तीक्ष्ण धाराओं से तेजस्वी मनुष्यों के सिर तो कटे थे परंतु चंद्रमा और शंख के समान उज्ज्वल यश नहीं ॥ 58 ॥<span id="59" /> युद्ध में तलवार की धार के पड़ने से मूर्च्छित हुआ योद्धा तो गिरा था परंतु अनेक युद्धों में वृद्धि को प्राप्त हुआ प्रताप नहीं ॥ 59॥<span id="60" /> मुद्गर की भयंकर चोट से अभिमानी का नेत्र तो घूमने लगा था परंतु शत्रु की विजयरूपी उत्कृष्ट ग्रास को खाने वाला मन नहीं ॥60॥<span id="61" /> युद्धस्थल में धीरता और शूरता से विशेषता को प्राप्त हुई हाथी<strong>, </strong>घोड़ा<strong>, </strong>रथ और पयादों की चतुरंगिणी सेना<strong>, </strong>अपनी-अपनी इच्छानुसार यथायोग्य रीति से युद्ध कर रही थी ॥61॥<span id="62" /> जो योद्धा पहले साधारण शस्त्रों से युद्ध का महोत्सव मनाया करते थे वे भी उस समय युद्ध जन्य परिश्रम से रहित हो चिरकाल तक अधिक युद्ध करते रहे ॥62 ॥<span id="63" /> सौपंक<strong>, </strong>अंगार<strong>, </strong>वैगारि तथा नीलकंठ आदि शत्रुपक्ष के जो प्रमुख शूरवीर थे वेगशाली चंडवेग ने सामना कर उन सबको जीत लिया ॥63 ॥<span id="64" /> तदनंतर जो वेगशाली घोड़ों के रथ पर आरूढ़ थे<strong>, </strong>नाना शस्त्र और अस्त्रों से भयंकर थे तथा जिनके आगे रथ हाँकने के लिए दधिमुख विद्यमान था ऐसे वसुदेव के सामने त्रिशिखर आया ॥64 ॥<span id="65" /><span id="66" /> परस्पर की बाण वर्षा से जिन्होंने दिशाओं के अंत तथा आकाश को व्याप्त कर रखा था ऐसे उन दोनों का पहले तो साधारण शस्त्रों से महायुद्ध हुआ किंतु पीछे धनुर्धारी वसुदेव ने शीघ्र ही आग्नेय अस्त्र छोड़ा जिसकी भयंकर ज्वालाओं से शत्रु की सेना तत्काल जलने लगी ॥65-66 ॥<span id="68" /> उधर शत्रु ने वारुणास्त्र के द्वारा आग्नेयास्त्र को बुझाकर मोहन नामक महा अस्त्र से वसुदेव की सेना को विमोहित कर दिया ॥67꠰। इधर वसुदेव ने चित्त प्रसादन नामक अस्त्र से मोहनास्त्र को दूर हटा दिया और आकाश में वायव्य अस्त्र चलाकर वारुणास्त्र को नष्ट कर दिया ॥68 ॥<span id="69" /> इस प्रकार अपने प्रतिद्वंद्वी शस्त्र से शत्रु के शस्त्र को शीघ्रातिशीघ्र नष्ट कर वसुदेव ने माहेंद्रास्त्र के द्वारा शत्रु को काट डाला ॥69 ॥<span id="70" /> जिस प्रकार सूर्य के अस्त होने पर किरणों के समूह दिशाएं छोड़कर नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार देदीप्यमान त्रिशिखिर के अस्तमित होते ही शेष विद्याधर दिशाएँ (अथवा अभिलाषाएँ) छोड़कर नष्ट हो गये― भाग गये ॥70॥<span id="71" /> तदनंतर अपने पक्ष के समस्त विद्याधरों से घिरे हुए वसुदेव<strong>, </strong>कारागृह से श्वसुर को छुड़ाकर अपने नगर वापस गये ॥71॥<span id="72" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि जिनधर्म के प्रसाद से एक प्रतापी मनुष्य<strong>, </strong>अनेक विद्याधरों के समूह से दुर्जेय समस्त शत्रुओं को शीघ्र ही जीतकर बहुत से मनुष्यों की आश्रयता को प्राप्त हो जाता है― उनके द्वारा सेवनीय हो जाता है अतः सदा जिनधर्म की उपासना करनी चाहिए ॥72॥<span id="21" /></p> | <p> इस प्रकार दधिमुख के कहे वचन सुनकर प्रतापी वसुदेव ने श्वसुर को छुड़ाने के लिए मन में विचार किया ॥45॥<span id="46" /> तदनंतर चंडवेग ने युवा वसुदेव के लिए देव जिनकी सदा सेवा करते थे ऐसे बहुत से विद्यास्त्र विधिपूर्वक प्रदान किये ॥46॥<span id="47" /><span id="48" /><span id="49" /> उनमें से कुछ विद्यास्त्रों के नाम ये हैं― ब्रह्मसिर<strong>, </strong>लोकोत्सादन<strong>, </strong>आग्नेय<strong>, </strong>वारुण<strong>, </strong>माहेंद्र<strong>, </strong>वैष्णव<strong>, </strong>यमदंड<strong>, </strong>ऐशान<strong>, </strong>स्तंभन<strong>, </strong>मोहन<strong>, </strong>वायव्य<strong>, </strong>जृंभण<strong>, </strong>बंधन<strong>,</strong> मोक्षण<strong>, </strong>विशल्यकरण<strong>, </strong>व्रणरोहण सर्वास्त्रच्छादन छेदन और हरण ॥47-49 ॥<span id="50" /> इस प्रकार इन्हें आदि लेकर चलाने और संकोचने को विधि सहित अन्य अनेक विद्यास्त्र चंडवेग ने कुमार वसुदेव के लिए दिये और उन्होंने आदर के साथ उन्हें ग्रहण किया ॥50॥<span id="51" /> उस समय बल की अधिकता से युद्ध की इच्छा रखता हुआ दुष्ट त्रिशिखर<strong>, </strong>स्वयं ही सेनाओं के साथ शीघ्र चंडवेग के नगर के समीप आ पहुंचा ॥51॥<span id="52" /> जिसे जाकर बाँधना था वह स्वयं ही पास आ गया यह विचार कर संतुष्ट होते हुए वसुदेव<strong>, </strong>अपने सालों आदि की सेना के साथ बाहर निकले ॥52॥<span id="53" /> विद्याधरों के झुंड के बीच वह वसुदेव कल्पवासी देवों के समूह के बीच इंद्र के समान सुशोभित हो रहे थे॥53॥<span id="54" /> और आकाश में खड़े मातंग जाति के विद्याधरों के बीच त्रिशिखर क्रूर असुरों के बीच में स्थित चमरेंद्र के समान सुशोभित हो रहा था ॥54॥<span id="55" /> दोनों ही सेनाओं के बड़े-बड़े विमानों<strong>, </strong>मदोन्मत्त हाथियों और वायु के समान वेगशाली घोड़ों से आकाश आच्छादित हो गया ॥55॥<span id="56" /> शस्त्र-समूह की किरणों से जिन्होंने सूर्य को किरणों को आच्छादित कर दिया था तथा जों तुरही आदि वादित्रों के शब्द से अपना संतोष प्रकट कर रही थीं ऐसी दोनों सेनाओं की आकाश में मुठभेड़ हुई ॥56॥<span id="57" /> कानों तक खींचे हुए धनुष-मंडलों से छूटे बाणों से मनुष्यों के बाह्य हृदय तो खंडित हुए थे परंतु अंतर्मन हृदय नहीं ॥ 57 ॥<span id="58" /> युद्ध में चक्रों की तीक्ष्ण धाराओं से तेजस्वी मनुष्यों के सिर तो कटे थे परंतु चंद्रमा और शंख के समान उज्ज्वल यश नहीं ॥ 58 ॥<span id="59" /> युद्ध में तलवार की धार के पड़ने से मूर्च्छित हुआ योद्धा तो गिरा था परंतु अनेक युद्धों में वृद्धि को प्राप्त हुआ प्रताप नहीं ॥ 59॥<span id="60" /> मुद्गर की भयंकर चोट से अभिमानी का नेत्र तो घूमने लगा था परंतु शत्रु की विजयरूपी उत्कृष्ट ग्रास को खाने वाला मन नहीं ॥60॥<span id="61" /> युद्धस्थल में धीरता और शूरता से विशेषता को प्राप्त हुई हाथी<strong>, </strong>घोड़ा<strong>, </strong>रथ और पयादों की चतुरंगिणी सेना<strong>, </strong>अपनी-अपनी इच्छानुसार यथायोग्य रीति से युद्ध कर रही थी ॥61॥<span id="62" /> जो योद्धा पहले साधारण शस्त्रों से युद्ध का महोत्सव मनाया करते थे वे भी उस समय युद्ध जन्य परिश्रम से रहित हो चिरकाल तक अधिक युद्ध करते रहे ॥62 ॥<span id="63" /> सौपंक<strong>, </strong>अंगार<strong>, </strong>वैगारि तथा नीलकंठ आदि शत्रुपक्ष के जो प्रमुख शूरवीर थे वेगशाली चंडवेग ने सामना कर उन सबको जीत लिया ॥63 ॥<span id="64" /> तदनंतर जो वेगशाली घोड़ों के रथ पर आरूढ़ थे<strong>, </strong>नाना शस्त्र और अस्त्रों से भयंकर थे तथा जिनके आगे रथ हाँकने के लिए दधिमुख विद्यमान था ऐसे वसुदेव के सामने त्रिशिखर आया ॥64 ॥<span id="65" /><span id="66" /> परस्पर की बाण वर्षा से जिन्होंने दिशाओं के अंत तथा आकाश को व्याप्त कर रखा था ऐसे उन दोनों का पहले तो साधारण शस्त्रों से महायुद्ध हुआ किंतु पीछे धनुर्धारी वसुदेव ने शीघ्र ही आग्नेय अस्त्र छोड़ा जिसकी भयंकर ज्वालाओं से शत्रु की सेना तत्काल जलने लगी ॥65-66 ॥<span id="68" /> उधर शत्रु ने वारुणास्त्र के द्वारा आग्नेयास्त्र को बुझाकर मोहन नामक महा अस्त्र से वसुदेव की सेना को विमोहित कर दिया ॥67꠰। इधर वसुदेव ने चित्त प्रसादन नामक अस्त्र से मोहनास्त्र को दूर हटा दिया और आकाश में वायव्य अस्त्र चलाकर वारुणास्त्र को नष्ट कर दिया ॥68 ॥<span id="69" /> इस प्रकार अपने प्रतिद्वंद्वी शस्त्र से शत्रु के शस्त्र को शीघ्रातिशीघ्र नष्ट कर वसुदेव ने माहेंद्रास्त्र के द्वारा शत्रु को काट डाला ॥69 ॥<span id="70" /> जिस प्रकार सूर्य के अस्त होने पर किरणों के समूह दिशाएं छोड़कर नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार देदीप्यमान त्रिशिखिर के अस्तमित होते ही शेष विद्याधर दिशाएँ (अथवा अभिलाषाएँ) छोड़कर नष्ट हो गये― भाग गये ॥70॥<span id="71" /> तदनंतर अपने पक्ष के समस्त विद्याधरों से घिरे हुए वसुदेव<strong>, </strong>कारागृह से श्वसुर को छुड़ाकर अपने नगर वापस गये ॥71॥<span id="72" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि जिनधर्म के प्रसाद से एक प्रतापी मनुष्य<strong>, </strong>अनेक विद्याधरों के समूह से दुर्जेय समस्त शत्रुओं को शीघ्र ही जीतकर बहुत से मनुष्यों की आश्रयता को प्राप्त हो जाता है― उनके द्वारा सेवनीय हो जाता है अतः सदा जिनधर्म की उपासना करनी चाहिए ॥72॥<span id="21" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में मदनवेगा के</strong> <strong>लाभ और त्रिशिखिर के वध का वर्णन करने वाला पचीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥21॥<span id="22" /></strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में मदनवेगा के</strong> <strong>लाभ और त्रिशिखिर के वध का वर्णन करने वाला पचीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥21॥<span id="22" /></strong></p> |
Latest revision as of 22:25, 22 November 2023
अथानंतर किसी दिन मदनवेगा का भाई दधिमुख अपने पिता को बंधन से छुड़ाने की इच्छा करता हुआ कुमार वसुदेव के पास आकर निम्नांकित संदर्भ कहने लगा ॥1॥ उसने कहा कि हे देव ! सुनिए नमि के वंश में असंख्यात राजाओं के हो जाने से अरिंजयपुर का स्वामी राजा मेघनाद हुआ ॥2॥ उसके एक पद्मश्री नाम की कन्या थी । उस कन्या के विषय में निमित्त ज्ञानियों ने बताया था कि यह चक्रवर्ती की स्त्री-रत्न होगी ॥3॥ उसी के समय में नभस्तिलक नगर का राजा वज्रपाणि भी हुआ । उसने रूपवती पद्मश्री कन्या की पहले अनेक बार याचना की परंतु जब वह उसे नहीं प्राप्त कर सका तो उस दुष्ट विद्याधर ने रुष्ट होकर युद्ध ठान दिया । मेघनाद प्रबल शक्ति का धारक था इसलिए वज्रपाणि उसे युद्ध में जीत नहीं सका फलस्वरूप वह कार्य में असफल हो अपने नगर को वापस लौट गया ॥4-5 ॥ उसी समय किन्हीं मुनिराज को केवलज्ञानरूपी लोचन की प्राप्ति हुई सो उनकी पूजा के अर्थ अनेक मनुष्य, देव और धरणेंद्रों की सभा जुटी । उस सभा में केवली भगवान् की पूजा कर मेघनाद ने उनसे पूछा कि हे प्रभो ! इस भरतक्षेत्र में मेरी पुत्री का भर्ता कौन होगा ! इस प्रकार पूछने पर केवलज्ञानी मुनिराज ने उसके योग्य वर और उसके कुल का निरूपण किया ॥6-7॥
उन्होंने कहा कि हस्तिनापुर नगर में कौरववंश में उत्पन्न हुआ कार्तवीर्य नाम का एक राजा था जो पराक्रम से बहुत ही उद्दंड था ॥8॥ उसने कामधेनु के लोभ से जमदग्नि नामक तपस्वी को मार डाला था । जमदग्नि का लड़ का परशुराम था वह भी बड़ा बलवान् था अतः उसने क्रोधवश पिता का घात करने वाले कार्तवीर्य को मार डाला ॥9॥ इतने से ही उसका क्रोध शांत नहीं हआ अतः उसने क्रुद्ध होकर युद्ध में स्त्री-पुत्रों सहित और भी अनेक क्षत्रियों को मार डाला । इस तरह जब वह अनेक क्षत्रियों को मार रहा था तब राजा कार्तवीर्य की गर्भवती तारा नाम की पत्नी भयभीत हो गुप्त रूप से निकलकर कौशिक ऋषि के आश्रम में जा पहुंची ॥10-11॥ वहाँ भय सहित निवास करती हुई तारा रानी ने एक पुत्र उत्पन्न किया जो क्षत्रियों के त्रास को नष्ट करने वाला आठवाँ चक्रवर्ती होगा ॥12॥ क्योंकि वह पुत्र भूमि गृह-तलघर में उत्पन्न हुआ था इसलिए सुभौम इस नाम से पुकारा जाने लगा । इस समय वह बालक कौशिक ऋषि के रमणीय आश्रम में गुप्त रूप से बढ़ रहा है ॥ 13 ॥ वही कुछ ही दिनों में परशुराम को मारने वाला बलशाली चक्रवर्ती होगा और वही तुम्हारी कन्या का पति होगा ॥14॥ परशुराम यमराज के समान क्रूर है वह सात बार क्षत्रियों का अंत कर इस समय ब्राह्मणों के हित में अपना मन लगा रहा है ॥ 15 ॥ इस तरह जिसने प्रतापरूपी अग्नि से समस्त दिशाओं को व्याप्त कर दिया है तथा मनोवांछित दान देकर जिसने याचकों की आशाएँ पूर्ण कर दी हैं ऐसा परशुराम इस समय एकछत्र पृथिवी पर निरंतर वृद्धि को प्राप्त हो रहा है ॥16॥
इधर तपस्वी के आश्रम में निवास करने वाला सुभौम जैसे-जैसे बढ़ने लगा उधर परशुराम के घर वैसे-वैसे ही सैकड़ों उत्पात होने लगे ॥17॥ उत्पातों से आशंकित एवं आश्चर्यचकित हो उसने निमित्तज्ञानी से पूछा कि ये उत्पात मेरे किस अनिष्ट को कह रहे हैं ? ॥18॥ निमित्तज्ञानी ने कहा कि आपका शत्रु कहीं छिपकर वृद्धि को प्राप्त हो रहा है । वह कैसे जाना जा सकता है ? इस प्रकार परशुराम के पूछने पर निमित्तज्ञानी ने पुनः कहा कि ॥19॥ तुम्हारे द्वारा मारे हुए क्षत्रियों की डाढ़ें जिसके भोजन करते समय खीररूप में परिणत हो जावें वही तुम्हारा उद्दंड शत्रु है ॥20॥ यह सुनकर क्षत्रियों में श्रेष्ठ शत्रु को जानने की इच्छा करते हुए परशुराम ने शीघ्र ही एक विशाल दानशाला बनवायी ॥21॥ और दानशाला के मध्य में डाढों से भरा बरतन रखकर उसके अध्यक्ष को सब वृत्तांत समझा दिया जिससे वह यत्नपूर्वक वहाँ सदा अवस्थित रहता है ॥22॥ यह सब समाचार सुन राजा मेघनाद केवली की वंदना कर शीघ्र ही हस्तिनापुर गया और वहाँ उसने कुमार सुभौम को देखा ॥23॥ उस समय सुभौम कुमार शस्त्र और शास्त्ररूपी सागर के अंतिम तट पर विद्यमान था, अधिक शोभा से युक्त था, सब ओर उसका देदीप्यमान प्रताप फैल रहा था और वह उदित होते हुए सूर्य के समान जान पड़ता था ॥24॥ जिस प्रकार ईंधन को नष्ट करने के लिए वायु अग्नि को प्रेरित कर देती है उसी प्रकार पूर्व वृत्तांत सुनाने वाले राजा मेघनाद ने उसे शत्रुरूपी ईंधन को जलाने के लिए धीरे से प्रेरित कर दिया ॥25॥ वह उसी समय घर से निकल राजा मेघनाद के साथ शत्रु के घर जा पहुंचा और भूखा बन दर्भका आसन ले परशुराम की दानशाला में भोजनार्थ जा बैठा ॥26 ॥ ब्राह्मण के अग्रासन पर बैठे हुए कुमार सुभौम के आगे डाढ़ों का पात्र रखा गया और उसके प्रभाव से समस्त डाढ़ें खीररूप में परिणत हो गयीं ॥27॥ तदनंतर अध्यक्ष के आदमियों ने शीघ्र ही जाकर परशुराम के लिए इसकी सूचना दी और परशुराम उसे मारने की इच्छा से फरसा हाथ में लिये शीघ्र ही वहाँ आ पहुंचा ॥28॥ जिस समय सुभौम थाली में आनंद से खीर का भोजन कर रहा था उसी समय परशुराम ने उसे मारना चाहा । परंतु सुभौम के पुण्य प्रभाव से वह थाली चक्र के रूप में परिवर्तित हो गयी और उसी से उसने शीघ्र ही परशुराम को मार डाला ॥ 29 ॥ सुभौम अष्टम चक्रवर्ती के रूप में प्रकट हुआ । चौदह रत्न, नौ निधियाँ और मुकुटबद्ध बत्तीस हजार राजा उसकी सेवा करने लगे ॥30॥ स्त्रीरत्न के लाभ से संतुष्ट हुए चक्रवर्ती सुभौम ने मेघनाद को विद्याधरों का राजा बना दिया जिससे शक्ति संपन्न हो उसने वज्रपाणि को मार डाला ॥31॥ तदनंतर शठ के प्रति शठता दिखाने वाले सुभौम चक्रवर्ती में भी क्रोध युक्त हो चक्ररत्न से इक्कीस बार पृथिवी को ब्राह्मण-रहित किया ॥32॥ चक्रवर्ती सुभौम साठ हजार वर्ष तक जीवित रहा परंतु तृप्ति को प्राप्त नहीं हुआ इसलिए आयु के अंत में मरकर सातवें नरक गया ॥33॥ राजा मेघनाद को संतति में आगे चलकर छठा राजा बलि हुआ । बलि विद्याबल से उद्दंड था और तीन खंड का स्वामी प्रतिनारायण था ॥34॥ उसी समय नंद और पुंडरीक नामक बलभद्र तथा नारायण विद्यमान थे और अतिशय बल के धारक इन्हीं दोनों के द्वारा युद्ध में बलि मारा गया ॥35 ॥ बलि के वंश में सहस्रग्रीव, पंचशतग्रीव और द्विशतग्रीव को आदि लेकर जब बहुत से विद्याधर राजा हो चुके तब हे यादव ! विद्युद्वेग नाम का राजा उत्पन्न हुआ । वह विद्युद्वेग हमारा पिता है तथा आपका श्वसुर है ॥36-37॥ एक दिन राजा विद्युद्वेग ने अवधिज्ञानी मुनिराज से पूछा कि हे भगवन् ! हमारी इस मदनवेगा पुत्री का पति कौन होगा ? ॥38॥ मुनिराज ने कहा कि रात्रि के समय गंगा में स्थित होकर विद्या सिद्ध करने वाले तुम्हारे चंडवेग नामक पुत्र के कंधे पर जो गिरेगा उसी की यह स्त्री होगी ॥39॥ यह निश्चय करके पिता ने अपने चंडवेग नामक पुत्र को तेज वेग से युक्त गंगानदी में विद्यासिद्ध करने के कार्य में नियुक्त किया ॥40॥ नभस्तिलक नगर का राजा त्रिशिखर नाम का दुष्ट विद्याधर, अपने सूर्यक नामक पुत्र के लिए इस कन्या की कई बार याचना कर चुका था पर इसे प्राप्त नहीं कर सका ॥41॥ इसलिए सदा वैर रखता था । एक दिन युद्ध में अवसर पाकर उसने हमारे पिता को बाँधकर कारागृह में डाल दिया ॥42॥ इस समय प्रबल पराक्रम को धारण करने वाले आप हम सबको प्राप्त हुए हैं इसलिए शत्रु के द्वारा बंधन को प्राप्त अपने श्वसुर को शीघ्र ही बंधन से मुक्त करो ॥43 ॥ सुभौम चक्रवर्ती ने प्रसन्न होकर हमारे पूर्वजों के लिए जो विद्यास्त्र दिये थे हे स्वामिन् ! शत्रु का घात करने की इच्छा से उन्हें ग्रहण कीजिए ॥44॥
इस प्रकार दधिमुख के कहे वचन सुनकर प्रतापी वसुदेव ने श्वसुर को छुड़ाने के लिए मन में विचार किया ॥45॥ तदनंतर चंडवेग ने युवा वसुदेव के लिए देव जिनकी सदा सेवा करते थे ऐसे बहुत से विद्यास्त्र विधिपूर्वक प्रदान किये ॥46॥ उनमें से कुछ विद्यास्त्रों के नाम ये हैं― ब्रह्मसिर, लोकोत्सादन, आग्नेय, वारुण, माहेंद्र, वैष्णव, यमदंड, ऐशान, स्तंभन, मोहन, वायव्य, जृंभण, बंधन, मोक्षण, विशल्यकरण, व्रणरोहण सर्वास्त्रच्छादन छेदन और हरण ॥47-49 ॥ इस प्रकार इन्हें आदि लेकर चलाने और संकोचने को विधि सहित अन्य अनेक विद्यास्त्र चंडवेग ने कुमार वसुदेव के लिए दिये और उन्होंने आदर के साथ उन्हें ग्रहण किया ॥50॥ उस समय बल की अधिकता से युद्ध की इच्छा रखता हुआ दुष्ट त्रिशिखर, स्वयं ही सेनाओं के साथ शीघ्र चंडवेग के नगर के समीप आ पहुंचा ॥51॥ जिसे जाकर बाँधना था वह स्वयं ही पास आ गया यह विचार कर संतुष्ट होते हुए वसुदेव, अपने सालों आदि की सेना के साथ बाहर निकले ॥52॥ विद्याधरों के झुंड के बीच वह वसुदेव कल्पवासी देवों के समूह के बीच इंद्र के समान सुशोभित हो रहे थे॥53॥ और आकाश में खड़े मातंग जाति के विद्याधरों के बीच त्रिशिखर क्रूर असुरों के बीच में स्थित चमरेंद्र के समान सुशोभित हो रहा था ॥54॥ दोनों ही सेनाओं के बड़े-बड़े विमानों, मदोन्मत्त हाथियों और वायु के समान वेगशाली घोड़ों से आकाश आच्छादित हो गया ॥55॥ शस्त्र-समूह की किरणों से जिन्होंने सूर्य को किरणों को आच्छादित कर दिया था तथा जों तुरही आदि वादित्रों के शब्द से अपना संतोष प्रकट कर रही थीं ऐसी दोनों सेनाओं की आकाश में मुठभेड़ हुई ॥56॥ कानों तक खींचे हुए धनुष-मंडलों से छूटे बाणों से मनुष्यों के बाह्य हृदय तो खंडित हुए थे परंतु अंतर्मन हृदय नहीं ॥ 57 ॥ युद्ध में चक्रों की तीक्ष्ण धाराओं से तेजस्वी मनुष्यों के सिर तो कटे थे परंतु चंद्रमा और शंख के समान उज्ज्वल यश नहीं ॥ 58 ॥ युद्ध में तलवार की धार के पड़ने से मूर्च्छित हुआ योद्धा तो गिरा था परंतु अनेक युद्धों में वृद्धि को प्राप्त हुआ प्रताप नहीं ॥ 59॥ मुद्गर की भयंकर चोट से अभिमानी का नेत्र तो घूमने लगा था परंतु शत्रु की विजयरूपी उत्कृष्ट ग्रास को खाने वाला मन नहीं ॥60॥ युद्धस्थल में धीरता और शूरता से विशेषता को प्राप्त हुई हाथी, घोड़ा, रथ और पयादों की चतुरंगिणी सेना, अपनी-अपनी इच्छानुसार यथायोग्य रीति से युद्ध कर रही थी ॥61॥ जो योद्धा पहले साधारण शस्त्रों से युद्ध का महोत्सव मनाया करते थे वे भी उस समय युद्ध जन्य परिश्रम से रहित हो चिरकाल तक अधिक युद्ध करते रहे ॥62 ॥ सौपंक, अंगार, वैगारि तथा नीलकंठ आदि शत्रुपक्ष के जो प्रमुख शूरवीर थे वेगशाली चंडवेग ने सामना कर उन सबको जीत लिया ॥63 ॥ तदनंतर जो वेगशाली घोड़ों के रथ पर आरूढ़ थे, नाना शस्त्र और अस्त्रों से भयंकर थे तथा जिनके आगे रथ हाँकने के लिए दधिमुख विद्यमान था ऐसे वसुदेव के सामने त्रिशिखर आया ॥64 ॥ परस्पर की बाण वर्षा से जिन्होंने दिशाओं के अंत तथा आकाश को व्याप्त कर रखा था ऐसे उन दोनों का पहले तो साधारण शस्त्रों से महायुद्ध हुआ किंतु पीछे धनुर्धारी वसुदेव ने शीघ्र ही आग्नेय अस्त्र छोड़ा जिसकी भयंकर ज्वालाओं से शत्रु की सेना तत्काल जलने लगी ॥65-66 ॥ उधर शत्रु ने वारुणास्त्र के द्वारा आग्नेयास्त्र को बुझाकर मोहन नामक महा अस्त्र से वसुदेव की सेना को विमोहित कर दिया ॥67꠰। इधर वसुदेव ने चित्त प्रसादन नामक अस्त्र से मोहनास्त्र को दूर हटा दिया और आकाश में वायव्य अस्त्र चलाकर वारुणास्त्र को नष्ट कर दिया ॥68 ॥ इस प्रकार अपने प्रतिद्वंद्वी शस्त्र से शत्रु के शस्त्र को शीघ्रातिशीघ्र नष्ट कर वसुदेव ने माहेंद्रास्त्र के द्वारा शत्रु को काट डाला ॥69 ॥ जिस प्रकार सूर्य के अस्त होने पर किरणों के समूह दिशाएं छोड़कर नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार देदीप्यमान त्रिशिखिर के अस्तमित होते ही शेष विद्याधर दिशाएँ (अथवा अभिलाषाएँ) छोड़कर नष्ट हो गये― भाग गये ॥70॥ तदनंतर अपने पक्ष के समस्त विद्याधरों से घिरे हुए वसुदेव, कारागृह से श्वसुर को छुड़ाकर अपने नगर वापस गये ॥71॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जिनधर्म के प्रसाद से एक प्रतापी मनुष्य, अनेक विद्याधरों के समूह से दुर्जेय समस्त शत्रुओं को शीघ्र ही जीतकर बहुत से मनुष्यों की आश्रयता को प्राप्त हो जाता है― उनके द्वारा सेवनीय हो जाता है अतः सदा जिनधर्म की उपासना करनी चाहिए ॥72॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में मदनवेगा के लाभ और त्रिशिखिर के वध का वर्णन करने वाला पचीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥21॥