द्रविड़ संघ: Difference between revisions
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<span class="GRef"> सा मू. 24/27</span> <span class="PrakritText">सिरिपुज्जपादसीसो दाविड़संघस्स कारगो दुट्ठो। णामेण वज्जणंदी पाहुड़वेदी महासत्तो ।24। अप्पासुयचणयाणं भक्खणदो वज्जिदो सुणिंदेहिं। परिरइयं विवरीतं विसेसयं वग्गणं चोज्जं ।25। बीएसु णत्थि जीवो उब्भसणं णत्थि फासुगं णत्थि। सवज्जं ण हु मण्णइ ण गणइ गिहकप्पियं अट्ठं ।26। कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवँतो। ण्हंतो सयिलणीरे पावं पउरं स संजेदि ।27।</span> | |||
<span class="HindiText"> = श्री पुज्यपाद या देवनन्दि आचार्य का शिष्य वज्रनन्दि द्रविड़ संघ को उत्पन्न करने वाला हुआ। यह समयसार आदि प्राभृत ग्रन्थों का ज्ञाता और महान् पराक्रमी था। मुनिराजों ने उसे अप्रासुक या सचित्त चने खाने से रोका, परन्तु वह न माना और बिगड़ कर प्रायश्चितादि विषयक शास्त्रों की विपरीत रचनाकर डाली ।24-25। उसके विचारानुसार बीजों में जीव नहीं होते, जगत में कोई भी वस्तु अप्रासुक नहीं है। वह न तो मुनियों के लिये खड़े-खड़े भोजन की विधि को अपनाता है, न कुछ सावद्य मानता है और न ही गृहकल्पित अर्थ को कुछ गिनता है ।26। कच्छार खेत वसतिका और वाणिज्य आदि कराके जीवन निर्वाह करते हुए उसने प्रचुर पाप का संग्रह किया। अर्थात् उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि खेती करावें, वसतिका निर्माण करावें, वाणिज्य करावें और अप्रासुक जल में स्नान करें तो कोई दोष नहीं है।</span><br> | |||
<span class="GRef"> दर्शनसार/ टीका 11</span> <span class="SanskritText">द्राविड़ाः......सावद्यं प्रासुकं च न मन्यते, उद्भोजनं निराकुर्वन्ति।</span> <span class="HindiText"> = द्रविड़ संघके मुनिजन सावद्य तथा प्रासुक को नहीं मानते और मुनियों को खड़े होकर भोजन करने का निषेध करते हैं।</span><br> | |||
<span class="GRef">दर्शनसार/ प्रस्चावना 54 प्रेमी जी</span><br> | |||
-<span class="HindiText"> "द्रविड़ संघ के विषय में दर्शनसार की वचनिका के कर्ता एक जगह जिन संहिता का प्रमाण देकर कहते हैं कि `सभूषणं सवस्त्रंस्यात् बिम्ब द्राविड़संघजम्' अर्थात् द्राविड़ संघ की प्रतिमायें वस्त्र और आभूषण सहित होती हैं। ....न मालूम यह जिनसंहिता किसकी लिखी हुई और कहाँ तक प्रामाणिक है। अभी तक हमें इस विषयमें बहुत संदेह है कि द्राविड़ संघ सग्रन्थ प्रतिमाओं का पूजक होगा।</span> | |||
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सा मू. 24/27 सिरिपुज्जपादसीसो दाविड़संघस्स कारगो दुट्ठो। णामेण वज्जणंदी पाहुड़वेदी महासत्तो ।24। अप्पासुयचणयाणं भक्खणदो वज्जिदो सुणिंदेहिं। परिरइयं विवरीतं विसेसयं वग्गणं चोज्जं ।25। बीएसु णत्थि जीवो उब्भसणं णत्थि फासुगं णत्थि। सवज्जं ण हु मण्णइ ण गणइ गिहकप्पियं अट्ठं ।26। कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवँतो। ण्हंतो सयिलणीरे पावं पउरं स संजेदि ।27।
= श्री पुज्यपाद या देवनन्दि आचार्य का शिष्य वज्रनन्दि द्रविड़ संघ को उत्पन्न करने वाला हुआ। यह समयसार आदि प्राभृत ग्रन्थों का ज्ञाता और महान् पराक्रमी था। मुनिराजों ने उसे अप्रासुक या सचित्त चने खाने से रोका, परन्तु वह न माना और बिगड़ कर प्रायश्चितादि विषयक शास्त्रों की विपरीत रचनाकर डाली ।24-25। उसके विचारानुसार बीजों में जीव नहीं होते, जगत में कोई भी वस्तु अप्रासुक नहीं है। वह न तो मुनियों के लिये खड़े-खड़े भोजन की विधि को अपनाता है, न कुछ सावद्य मानता है और न ही गृहकल्पित अर्थ को कुछ गिनता है ।26। कच्छार खेत वसतिका और वाणिज्य आदि कराके जीवन निर्वाह करते हुए उसने प्रचुर पाप का संग्रह किया। अर्थात् उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि खेती करावें, वसतिका निर्माण करावें, वाणिज्य करावें और अप्रासुक जल में स्नान करें तो कोई दोष नहीं है।
दर्शनसार/ टीका 11 द्राविड़ाः......सावद्यं प्रासुकं च न मन्यते, उद्भोजनं निराकुर्वन्ति। = द्रविड़ संघके मुनिजन सावद्य तथा प्रासुक को नहीं मानते और मुनियों को खड़े होकर भोजन करने का निषेध करते हैं।
दर्शनसार/ प्रस्चावना 54 प्रेमी जी
- "द्रविड़ संघ के विषय में दर्शनसार की वचनिका के कर्ता एक जगह जिन संहिता का प्रमाण देकर कहते हैं कि `सभूषणं सवस्त्रंस्यात् बिम्ब द्राविड़संघजम्' अर्थात् द्राविड़ संघ की प्रतिमायें वस्त्र और आभूषण सहित होती हैं। ....न मालूम यह जिनसंहिता किसकी लिखी हुई और कहाँ तक प्रामाणिक है। अभी तक हमें इस विषयमें बहुत संदेह है कि द्राविड़ संघ सग्रन्थ प्रतिमाओं का पूजक होगा।
दिगंबर साधुओं का संघ।–देखें इतिहास - 6.3।