परोक्ष: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1">परोक्ष प्रमाण का लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">इंद्रिय सापेक्ष ज्ञान</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/58 </span><span class="PrakritText"> जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदमट्ठेसु। 58। </span>= <span class="HindiText">पर के द्वारा होनेवाला जो पदार्थ संबंधी विज्ञान है, वह परोक्ष कहा गया है। <span class="GRef">( प्रवचनसार/40 )</span>; <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/1/11/101/5 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/11/7/52/30 )</span>, <span class="GRef">( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/58/76/12 )</span></span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/58 </span><span class="PrakritText"> जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदमट्ठेसु। 58। </span>= <span class="HindiText">पर के द्वारा होनेवाला जो पदार्थ संबंधी विज्ञान है, वह परोक्ष कहा गया है। <span class="GRef">( प्रवचनसार/40 )</span>; <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/1/11/101/5 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/11/7/52/30 )</span>, <span class="GRef">( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/58/76/12 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/11/6/52/24 </span><span class="SanskritText">उपात्तानुपात्तपरप्राधान्यादवगमः परोक्षम्। 6। उपात्तानींद्रियाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादि परः तत्प्राधान्यादवगमः परोक्षम्। ...तथा मतिश्रुतावरणक्षयोपशमे सति ज्ञस्वभावस्यात्मनः स्वमेवार्थानुपलब्धुमसमर्थस्य पूर्वोक्तप्रत्ययप्रधानं ज्ञानं परायत्तत्वात्तदुभयं परोक्षमित्युच्ये। </span>= <span class="HindiText">उपात्त-इंद्रियाँ और मन तथा अनुपात्त-प्रकाश उपदेशादि ‘पर’ हैं। पर की प्रधानता से होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। <span class="GRef">( समयसार / आत्मख्याति/13/क, 8)</span>, <span class="GRef">( तत्त्वसार/1/16 )</span> <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/143/5 )</span>; <span class="GRef">( धवला 13/5,5,21/212/1 )</span>; <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/55 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/369/765/8 )</span> तथा उसी प्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर ज्ञस्वभाव परंतु स्वयं पदार्थों को ग्रहण करने के लिए असमर्थ हुए आत्मा के पूर्वोक्त प्रत्ययों की प्रधानता से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पराधीन होने से परोक्ष है। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/1/11/101/5 )</span>; <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/144/1 )</span>। </span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/11/6/52/24 </span><span class="SanskritText">उपात्तानुपात्तपरप्राधान्यादवगमः परोक्षम्। 6। उपात्तानींद्रियाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादि परः तत्प्राधान्यादवगमः परोक्षम्। ...तथा मतिश्रुतावरणक्षयोपशमे सति ज्ञस्वभावस्यात्मनः स्वमेवार्थानुपलब्धुमसमर्थस्य पूर्वोक्तप्रत्ययप्रधानं ज्ञानं परायत्तत्वात्तदुभयं परोक्षमित्युच्ये। </span>= <span class="HindiText">उपात्त-इंद्रियाँ और मन तथा अनुपात्त-प्रकाश उपदेशादि ‘पर’ हैं। पर की प्रधानता से होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। <span class="GRef">( समयसार / आत्मख्याति/13/क, 8)</span>, <span class="GRef">( तत्त्वसार/1/16 )</span> <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/143/5 )</span>; <span class="GRef">( धवला 13/5,5,21/212/1 )</span>; <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/55 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/369/765/8 )</span> तथा उसी प्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर ज्ञस्वभाव परंतु स्वयं पदार्थों को ग्रहण करने के लिए असमर्थ हुए आत्मा के पूर्वोक्त प्रत्ययों की प्रधानता से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पराधीन होने से परोक्ष है। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/1/11/101/5 )</span>; <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/144/1 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/58 </span><span class="SanskritText">यत्त खलु परद्रव्यभूतादंतः करणादिंद्रियात्परोपदेशादुपलब्धेः संस्कारादालोकादेर्वा निमित्ततामुपगमात्स्वविषयमुपगतस्यार्थस्य परिच्छेदनं तत् परतः प्रादुर्भवत्परोक्षमित्यालक्षयते।</span> = <span class="HindiText">निमित्तता को प्राप्त जो परद्रव्यभूत अंतःकरण (मन) इंद्रिय, परोपदेश, उपलब्धि (जानने की शक्ति) संस्कार या प्रकाशादिक हैं, उनके द्वारा होने वाला स्वविषयप्रभूत पदार्थ का ज्ञान पर के द्वारा प्रगट होता है, इसलिए परोक्ष के रूप में जाना जाता है। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/12 )</span>। <br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/58 </span><span class="SanskritText">यत्त खलु परद्रव्यभूतादंतः करणादिंद्रियात्परोपदेशादुपलब्धेः संस्कारादालोकादेर्वा निमित्ततामुपगमात्स्वविषयमुपगतस्यार्थस्य परिच्छेदनं तत् परतः प्रादुर्भवत्परोक्षमित्यालक्षयते।</span> = <span class="HindiText">निमित्तता को प्राप्त जो परद्रव्यभूत अंतःकरण (मन) इंद्रिय, परोपदेश, उपलब्धि (जानने की शक्ति) संस्कार या प्रकाशादिक हैं, उनके द्वारा होने वाला स्वविषयप्रभूत पदार्थ का ज्ञान पर के द्वारा प्रगट होता है, इसलिए परोक्ष के रूप में जाना जाता है। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/12 )</span>। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">अविशदज्ञान</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परीक्षामुख/3/1 </span><span class="SanskritText">विशदं प्रत्यक्षं</span><span class="GRef"> परीक्षामुख/2/1 </span></span> <span class="SanskritText">परोक्षमितरत्। 1।</span> = <span class="HindiText">विशद अर्थात् स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। इससे भिन्न अर्थात् अविशद को परोक्षप्रमाण कहते हैं। </span><br /> | <span class="GRef"> परीक्षामुख/3/1 </span><span class="SanskritText">विशदं प्रत्यक्षं</span><span class="GRef"> परीक्षामुख/2/1 </span></span> <span class="SanskritText">परोक्षमितरत्। 1।</span> = <span class="HindiText">विशद अर्थात् स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। इससे भिन्न अर्थात् अविशद को परोक्षप्रमाण कहते हैं। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/1/51/1 </span><span class="SanskritText">अविशदप्रतिभासं परोक्षम्। ...यस्य ज्ञानस्य प्रतिभासो विशदो न भवति तत्परोक्षमित्यर्थः। ...अवैशद्यमस्पष्टत्वम्ं।</span> = <span class="HindiText">अविशद प्रतिभास को परोक्ष कहते हैं। ...जिस ज्ञान का प्रतिभास विशद नहीं है, वह परोक्षप्रमाण है। अविशदता अस्पष्टता को कहते हैं। <span class="GRef">(सप्तभंगीतरंगिनी/47/10)</span><br /> | <span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/1/51/1 </span><span class="SanskritText">अविशदप्रतिभासं परोक्षम्। ...यस्य ज्ञानस्य प्रतिभासो विशदो न भवति तत्परोक्षमित्यर्थः। ...अवैशद्यमस्पष्टत्वम्ं।</span> = <span class="HindiText">अविशद प्रतिभास को परोक्ष कहते हैं। ...जिस ज्ञान का प्रतिभास विशद नहीं है, वह परोक्षप्रमाण है। अविशदता अस्पष्टता को कहते हैं। <span class="GRef">(सप्तभंगीतरंगिनी/47/10)</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">परोक्ष ज्ञान के भेद- </strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">मति श्रुत की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/1/11 </span><span class="SanskritText">आद्ये परोक्षम्। 11।</span> = <span class="HindiText">आदि के दो ज्ञान अर्थात् मति और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण है। <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/143/5 )</span>; <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/171 )</span>; <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/53 )</span>। </span><br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/1/11 </span><span class="SanskritText">आद्ये परोक्षम्। 11।</span> = <span class="HindiText">आदि के दो ज्ञान अर्थात् मति और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण है। <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/143/5 )</span>; <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/171 )</span>; <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/53 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/2 </span><span class="SanskritText"> शेषचतुष्टयं परोक्षमिति। </span>= <span class="HindiText">शेष कुमति, कुश्रुत, मति और श्रुतज्ञान ये चार परोक्ष हैं। <br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/2 </span><span class="SanskritText"> शेषचतुष्टयं परोक्षमिति। </span>= <span class="HindiText">शेष कुमति, कुश्रुत, मति और श्रुतज्ञान ये चार परोक्ष हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">स्मृति आदि की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/1/13 </span><span class="SanskritText"> मतिः स्मृतिः संज्ञा चिंताभिनिबोध इत्यनर्थांतरम्। </span>= <span class="HindiText">मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम हैं। </span><br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/1/13 </span><span class="SanskritText"> मतिः स्मृतिः संज्ञा चिंताभिनिबोध इत्यनर्थांतरम्। </span>= <span class="HindiText">मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम हैं। </span><br /> | ||
न्यायदर्शन सूत्र/मूल/1/1/3/9<span class="SanskritText"> प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि। 3। </span> | न्यायदर्शन सूत्र/मूल/1/1/3/9<span class="SanskritText"> प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि। 3। </span> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3">परोक्षाभास का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">परीक्षामुख/6/7</span> <span class="SanskritText">वैशद्येऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणस्य ज्ञानवत्।</span> = <span class="HindiText">परोक्षज्ञान को विशद् मानना परोक्षाभास है, जिस प्रकार परोक्षरूप से अभिमत मीमांसकों का इंद्रियज्ञान विशद होने से परोक्षाभास कहा जाता है। <br /> | <span class="GRef">परीक्षामुख/6/7</span> <span class="SanskritText">वैशद्येऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणस्य ज्ञानवत्।</span> = <span class="HindiText">परोक्षज्ञान को विशद् मानना परोक्षाभास है, जिस प्रकार परोक्षरूप से अभिमत मीमांसकों का इंद्रियज्ञान विशद होने से परोक्षाभास कहा जाता है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4">मति श्रुत ज्ञान की परोक्षता का कारण </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार/मूल/57</span> <span class="PrakritGatha">परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा। उवलद्धं तेहि कधं पच्च्क्खं अप्पणो होदि। 57। </span>= <span class="HindiText">वे इंद्रियाँ परद्रव्य हैं, उन्हें आत्मस्वभाव रूप नहीं कहा है, उसके द्वारा ज्ञात आत्मा का प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। 57। </span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार/मूल/57</span> <span class="PrakritGatha">परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा। उवलद्धं तेहि कधं पच्च्क्खं अप्पणो होदि। 57। </span>= <span class="HindiText">वे इंद्रियाँ परद्रव्य हैं, उन्हें आत्मस्वभाव रूप नहीं कहा है, उसके द्वारा ज्ञात आत्मा का प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। 57। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/8/18/122/6 </span><span class="SanskritText">अप्रत्यक्षा घटादयोऽग्राहकनिमित्तग्राह्यत्वाद् धूमाद्यनुमिताग्निवत्। अग्राहकमिंद्रियं तद्विगमेऽपि गृहीतस्मरणात् गवाक्षवत्।</span> = <span class="HindiText">इंद्रिय अग्राहक हैं, क्योंकि उनके नष्ट हो जाने पर भी स्मृति देखी जाती है। जैसे खिड़की नष्ट हो जाने पर भी उसके द्वारा देखनेवाला स्थिर रहता है उसी प्रकार इंद्रियों से देखनेवाला ग्राहक आत्मा स्थिर है, अतः अग्राहक निमित्त से ग्राह्य होने के कारण इंद्रिय ग्राह्य पदार्थ परोक्ष ही हैं। </span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/2/8/18/122/6 </span><span class="SanskritText">अप्रत्यक्षा घटादयोऽग्राहकनिमित्तग्राह्यत्वाद् धूमाद्यनुमिताग्निवत्। अग्राहकमिंद्रियं तद्विगमेऽपि गृहीतस्मरणात् गवाक्षवत्।</span> = <span class="HindiText">इंद्रिय अग्राहक हैं, क्योंकि उनके नष्ट हो जाने पर भी स्मृति देखी जाती है। जैसे खिड़की नष्ट हो जाने पर भी उसके द्वारा देखनेवाला स्थिर रहता है उसी प्रकार इंद्रियों से देखनेवाला ग्राहक आत्मा स्थिर है, अतः अग्राहक निमित्त से ग्राह्य होने के कारण इंद्रिय ग्राह्य पदार्थ परोक्ष ही हैं। </span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5" id="5">परोक्षज्ञान को प्रमाणपना कैसे घटित होता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/11/7/52/29 </span><span class="SanskritText">अत्राऽन्ये उपालभंते - परोक्षं प्रमाणं न भवति, प्रमीयतेऽनेनेति हि प्रमाणम्, न च परोक्षेण किंचित्प्रमीयते-परोक्षत्वादेवं इतिः सोऽनुपालंभः। कुतः। अतएव। यस्मात् ‘परायत्तं परोक्षम्’ इत्युच्यते न ‘अनवबोधः’ इति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> ‘जिसके द्वारा निर्णय किया जाये उसे प्रमाण कहते हैं’ इस लक्षण के अनुसार परोक्ष होने के कारण उससे (इंद्रिय ज्ञान से) किसी भी बात का निर्णय नहीं किया जा सकता, इसलिए परोक्ष नाम का कोई प्रमाण है? <strong>उत्तर -</strong> यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ परोक्ष का अर्थ अज्ञान या अनवबोध नहीं है किंतु पराधीन ज्ञान है। </span></li> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/11/7/52/29 </span><span class="SanskritText">अत्राऽन्ये उपालभंते - परोक्षं प्रमाणं न भवति, प्रमीयतेऽनेनेति हि प्रमाणम्, न च परोक्षेण किंचित्प्रमीयते-परोक्षत्वादेवं इतिः सोऽनुपालंभः। कुतः। अतएव। यस्मात् ‘परायत्तं परोक्षम्’ इत्युच्यते न ‘अनवबोधः’ इति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> ‘जिसके द्वारा निर्णय किया जाये उसे प्रमाण कहते हैं’ इस लक्षण के अनुसार परोक्ष होने के कारण उससे (इंद्रिय ज्ञान से) किसी भी बात का निर्णय नहीं किया जा सकता, इसलिए परोक्ष नाम का कोई प्रमाण है? <strong>उत्तर -</strong> यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ परोक्ष का अर्थ अज्ञान या अनवबोध नहीं है किंतु पराधीन ज्ञान है। </span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p> प्रमाण का दूसरा भेद । मति और श्रुत ज्ञान से प्राप्त ज्ञान परोक्ष प्रमाण कहलाता है । इससे हेय पदार्थ को छोड़ने और उपादेय को ग्रहण करने की बुद्धि उत्पन्न होती है । <span class="GRef"> महापुराण 2. 61, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10. 144-145, 155 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> प्रमाण का दूसरा भेद । मति और श्रुत ज्ञान से प्राप्त ज्ञान परोक्ष प्रमाण कहलाता है । इससे हेय पदार्थ को छोड़ने और उपादेय को ग्रहण करने की बुद्धि उत्पन्न होती है । <span class="GRef"> महापुराण 2. 61, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_10#144|हरिवंशपुराण - 10.144-145]], 155 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
प्रमाण के भेदों में से परोक्ष भी एक है। इंद्रियों व विचारणा द्वारा जो कुछ भी जाना जाता है वह सब परोक्ष प्रमाण है। छद्मस्थों को पदार्थ विज्ञान के लिए एकमात्र यही साधन है। स्मृति, तर्क, अनुमान आदि अनेकों इसके रूप हैं। यद्यपि अविशद व इंद्रियों आदि से होने के कारण इसे परोक्ष कहा गया है, परंतु यह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि इसके द्वारा पदार्थ का निश्चय उतना ही दृढ़ होता है, जितना कि प्रत्यक्ष के द्वारा।
- परोक्ष प्रमाण का लक्षण
- इंद्रिय सापेक्ष ज्ञान
प्रवचनसार/58 जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदमट्ठेसु। 58। = पर के द्वारा होनेवाला जो पदार्थ संबंधी विज्ञान है, वह परोक्ष कहा गया है। ( प्रवचनसार/40 ); ( सर्वार्थसिद्धि/1/11/101/5 ); ( राजवार्तिक/1/11/7/52/30 ), ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/58/76/12 )
राजवार्तिक/1/11/6/52/24 उपात्तानुपात्तपरप्राधान्यादवगमः परोक्षम्। 6। उपात्तानींद्रियाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादि परः तत्प्राधान्यादवगमः परोक्षम्। ...तथा मतिश्रुतावरणक्षयोपशमे सति ज्ञस्वभावस्यात्मनः स्वमेवार्थानुपलब्धुमसमर्थस्य पूर्वोक्तप्रत्ययप्रधानं ज्ञानं परायत्तत्वात्तदुभयं परोक्षमित्युच्ये। = उपात्त-इंद्रियाँ और मन तथा अनुपात्त-प्रकाश उपदेशादि ‘पर’ हैं। पर की प्रधानता से होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। ( समयसार / आत्मख्याति/13/क, 8), ( तत्त्वसार/1/16 ) ( धवला 9/4,1,45/143/5 ); ( धवला 13/5,5,21/212/1 ); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/55 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/369/765/8 ) तथा उसी प्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर ज्ञस्वभाव परंतु स्वयं पदार्थों को ग्रहण करने के लिए असमर्थ हुए आत्मा के पूर्वोक्त प्रत्ययों की प्रधानता से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पराधीन होने से परोक्ष है। ( सर्वार्थसिद्धि/1/11/101/5 ); ( धवला 9/4,1,45/144/1 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/58 यत्त खलु परद्रव्यभूतादंतः करणादिंद्रियात्परोपदेशादुपलब्धेः संस्कारादालोकादेर्वा निमित्ततामुपगमात्स्वविषयमुपगतस्यार्थस्य परिच्छेदनं तत् परतः प्रादुर्भवत्परोक्षमित्यालक्षयते। = निमित्तता को प्राप्त जो परद्रव्यभूत अंतःकरण (मन) इंद्रिय, परोपदेश, उपलब्धि (जानने की शक्ति) संस्कार या प्रकाशादिक हैं, उनके द्वारा होने वाला स्वविषयप्रभूत पदार्थ का ज्ञान पर के द्वारा प्रगट होता है, इसलिए परोक्ष के रूप में जाना जाता है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/12 )।
- अविशदज्ञान
परीक्षामुख/3/1 विशदं प्रत्यक्षं परीक्षामुख/2/1 परोक्षमितरत्। 1। = विशद अर्थात् स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। इससे भिन्न अर्थात् अविशद को परोक्षप्रमाण कहते हैं।
न्यायदीपिका/3/1/51/1 अविशदप्रतिभासं परोक्षम्। ...यस्य ज्ञानस्य प्रतिभासो विशदो न भवति तत्परोक्षमित्यर्थः। ...अवैशद्यमस्पष्टत्वम्ं। = अविशद प्रतिभास को परोक्ष कहते हैं। ...जिस ज्ञान का प्रतिभास विशद नहीं है, वह परोक्षप्रमाण है। अविशदता अस्पष्टता को कहते हैं। (सप्तभंगीतरंगिनी/47/10)
- इंद्रिय सापेक्ष ज्ञान
- परोक्ष ज्ञान के भेद-
- मति श्रुत की अपेक्षा
तत्त्वार्थसूत्र/1/11 आद्ये परोक्षम्। 11। = आदि के दो ज्ञान अर्थात् मति और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण है। ( धवला 9/4,1,45/143/5 ); ( नयचक्र बृहद्/171 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/53 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/2 शेषचतुष्टयं परोक्षमिति। = शेष कुमति, कुश्रुत, मति और श्रुतज्ञान ये चार परोक्ष हैं।
- स्मृति आदि की अपेक्षा
तत्त्वार्थसूत्र/1/13 मतिः स्मृतिः संज्ञा चिंताभिनिबोध इत्यनर्थांतरम्। = मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम हैं।
न्यायदर्शन सूत्र/मूल/1/1/3/9 प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि। 3। न्यायदर्शन सूत्र/ मूल/2/2/1/106 न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसंभवाभाव-प्रामाण्यात्। 1। = न्यायदर्शन में प्रमाण चार होते हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। 3। प्रमाण चार ही नहीं होते हैं किंतु ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव ये चार और मिलकर आठ प्रमाण हैं।
प.सु./3/2 प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदं। 2। = वह परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष आदि की सहायता से होता है और उसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पाँच भेद हैं। 2। ( स्याद्वादमंजरी/28/321/21 ); ( न्यायदीपिका/3/§3/53/1)।
स्याद्वादमंजरी/28/322/5 प्रमाणांतराणां पुनरर्थापच्युपमानसंभवप्राति-भैतिह्यादीनामत्रैव अंतर्भावः। = अर्थापत्ति, उपमान, संभव, प्रातिभ, ऐतिह्य आदि का अंतर्भाव प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों में हो जाता है।
- मति श्रुत की अपेक्षा
- परोक्षाभास का लक्षण
परीक्षामुख/6/7 वैशद्येऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणस्य ज्ञानवत्। = परोक्षज्ञान को विशद् मानना परोक्षाभास है, जिस प्रकार परोक्षरूप से अभिमत मीमांसकों का इंद्रियज्ञान विशद होने से परोक्षाभास कहा जाता है।
- मति श्रुतज्ञान- देखें मतिज्ञान ; श्रुतज्ञान ।
- स्मृति आदि संबंधी विषय- देखें मतिज्ञान - 3।
- स्मृति आदि में परस्पर कारणकार्य भाव- देखें मतिज्ञान - 3।
- मति श्रुतज्ञान- देखें मतिज्ञान ; श्रुतज्ञान ।
- मति श्रुत ज्ञान की परोक्षता का कारण
प्रवचनसार/मूल/57 परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा। उवलद्धं तेहि कधं पच्च्क्खं अप्पणो होदि। 57। = वे इंद्रियाँ परद्रव्य हैं, उन्हें आत्मस्वभाव रूप नहीं कहा है, उसके द्वारा ज्ञात आत्मा का प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। 57।
राजवार्तिक/2/8/18/122/6 अप्रत्यक्षा घटादयोऽग्राहकनिमित्तग्राह्यत्वाद् धूमाद्यनुमिताग्निवत्। अग्राहकमिंद्रियं तद्विगमेऽपि गृहीतस्मरणात् गवाक्षवत्। = इंद्रिय अग्राहक हैं, क्योंकि उनके नष्ट हो जाने पर भी स्मृति देखी जाती है। जैसे खिड़की नष्ट हो जाने पर भी उसके द्वारा देखनेवाला स्थिर रहता है उसी प्रकार इंद्रियों से देखनेवाला ग्राहक आत्मा स्थिर है, अतः अग्राहक निमित्त से ग्राह्य होने के कारण इंद्रिय ग्राह्य पदार्थ परोक्ष ही हैं।
कषायपाहुड़ 1/1,1/ §16/24/3 मदि-सुदणाणाणि परोक्खाणि, पाएण तत्थ अविसदभावदंसणादो। = मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि इनमें प्रायः अस्पष्टता देखी जाती है।
परीक्षामुख/2/12 सावरणत्वे करण जन्यत्वे च प्रतिबंधसंभवात्। 12। = आवरण सहित और इंद्रियों की सहायता से होनेवाले ज्ञान का प्रतिबंध संभव है। (इसलिए वह परोक्ष है)।
न्यायविनिश्चय/ वृ./1/3/96/24 इदं तु पुनरिंद्रियज्ञानं परिस्फुटमपि नात्ममात्रापेक्षं तदंयस्येंद्रियस्याप्यपेक्षणात्। अत एकांगविकलतया परोक्षमेवेति मतम्। = इंद्रियज्ञान यद्यपि विशद है परंतु आत्ममात्र की अपेक्षा से उत्पन्न न होकर अन्य इंद्रियादिक की अपेक्षा से उत्पन्न होता है, अतः प्रत्यक्षज्ञान के लक्षण में एकांग विकल होने से परोक्ष ही माना गया है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/12 मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थतः परोक्षम्। व्यवहारतः प्रत्यक्षं च भवति। = मति और श्रुतज्ञान दोनों ही परमार्थ से परोक्ष हैं और व्यवहार से प्रत्यक्ष होते हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/55/73/15 इंद्रियज्ञानं यद्यपि व्यवहारेण प्रत्यक्षं भण्यते, तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव। = इंद्रियज्ञान यद्यपि व्यवहार से प्रत्यक्ष कहा जाता है, तथापि निश्चयनय से केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष ही है। ( न्यायदीपिका/2/ §12/34/2)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/700 आभिनिबोधिकबोधो विषयविषयिसंनिकर्षजस्तस्मात् भवति परोक्षं नियमादपि च मतिपुरस्सरं श्रुतं ज्ञानम्। 700। = मतिज्ञान विषय विषयी के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है, और श्रुतज्ञान भी नियम से मतिज्ञान पूर्वक होता है, इसलिए वे दोनों ज्ञान परोक्ष कहलाते हैं। 700। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/701, 707 )।
- इंद्रिय ज्ञान की परोक्षता संबंधी शंका समाधान - देखें श्रुतज्ञान - I.5।
- मतिज्ञान का परमार्थ में कोई मूल्य नहीं - देखें मतिज्ञान - 2।
- सम्यग्दर्शन की कथंचित् परोक्षता- देखें सम्यग्दर्शन - I.3।
- इंद्रिय ज्ञान की परोक्षता संबंधी शंका समाधान - देखें श्रुतज्ञान - I.5।
- परोक्षज्ञान को प्रमाणपना कैसे घटित होता है
राजवार्तिक/1/11/7/52/29 अत्राऽन्ये उपालभंते - परोक्षं प्रमाणं न भवति, प्रमीयतेऽनेनेति हि प्रमाणम्, न च परोक्षेण किंचित्प्रमीयते-परोक्षत्वादेवं इतिः सोऽनुपालंभः। कुतः। अतएव। यस्मात् ‘परायत्तं परोक्षम्’ इत्युच्यते न ‘अनवबोधः’ इति। = प्रश्न - ‘जिसके द्वारा निर्णय किया जाये उसे प्रमाण कहते हैं’ इस लक्षण के अनुसार परोक्ष होने के कारण उससे (इंद्रिय ज्ञान से) किसी भी बात का निर्णय नहीं किया जा सकता, इसलिए परोक्ष नाम का कोई प्रमाण है? उत्तर - यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ परोक्ष का अर्थ अज्ञान या अनवबोध नहीं है किंतु पराधीन ज्ञान है।
पुराणकोष से
प्रमाण का दूसरा भेद । मति और श्रुत ज्ञान से प्राप्त ज्ञान परोक्ष प्रमाण कहलाता है । इससे हेय पदार्थ को छोड़ने और उपादेय को ग्रहण करने की बुद्धि उत्पन्न होती है । महापुराण 2. 61, हरिवंशपुराण - 10.144-145, 155