श्रमणधर्म: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महावतों, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और व्युत्सर्ग इन पांच समितियों, तीन गुप्तियों, चित्त और पांच इंद्रियों का निरोध, षडावश्यकों-समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग, तथा केशलोंच, अस्नान, एकभक्त, स्थिति भुक्ति (खड़े होकर आहार करना) अनेलता, भूशयन, दंतमलमार्जन वर्जन, तप, संयम, चारित्र, परीषहजय, अनुप्रेक्षा, धर्म और पंचाचार का पालन करना श्रमणधर्म है । इसका दूसरा नाम मुनि-धर्म या अनगार-धर्म कहा है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#272|पद्मपुराण - 6.272]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#293|पद्मपुराण - 6.293]], </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.118-131 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महावतों, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और व्युत्सर्ग इन पांच समितियों, तीन गुप्तियों, चित्त और पांच इंद्रियों का निरोध, षडावश्यकों-समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग, तथा केशलोंच, अस्नान, एकभक्त, स्थिति भुक्ति (खड़े होकर आहार करना) अनेलता, भूशयन, दंतमलमार्जन वर्जन, तप, संयम, चारित्र, परीषहजय, अनुप्रेक्षा, धर्म और पंचाचार का पालन करना श्रमणधर्म है । इसका दूसरा नाम मुनि-धर्म या अनगार-धर्म कहा है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#272|पद्मपुराण - 6.272]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#293|पद्मपुराण - 6.293]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_2#118|हरिवंशपुराण - 2.118-131]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:25, 27 November 2023
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महावतों, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और व्युत्सर्ग इन पांच समितियों, तीन गुप्तियों, चित्त और पांच इंद्रियों का निरोध, षडावश्यकों-समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग, तथा केशलोंच, अस्नान, एकभक्त, स्थिति भुक्ति (खड़े होकर आहार करना) अनेलता, भूशयन, दंतमलमार्जन वर्जन, तप, संयम, चारित्र, परीषहजय, अनुप्रेक्षा, धर्म और पंचाचार का पालन करना श्रमणधर्म है । इसका दूसरा नाम मुनि-धर्म या अनगार-धर्म कहा है । पद्मपुराण - 6.272,पद्मपुराण - 6.293, हरिवंशपुराण - 2.118-131