सकलादेश: Difference between revisions
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<strong class="HindiText">1. सकलादेश निर्देश</strong> | <strong class="HindiText">1. सकलादेश निर्देश</strong> | ||
<p | <p><span class="GRef"> राजवार्तिक/4/42/13/252/23 </span><span class="SanskritText">यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि शब्देन एकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकत्वमापन्नस्य अनेकाशेषरूपस्य प्रतिपादनसंभवात् यौगपद्यम् । तत्र यदा यौगपद्यं तदा सकलादेश:, स एव प्रमाणमित्युच्यते। 'सकलादेश: प्रमाणाधीन:' इति वचनात् ।</span> =<span class="HindiText">जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मों की कालादिक की दृष्टि से अभेद विवक्षा होती है तब एक भी शब्द के द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्य रूप से एकत्व को प्राप्त सभी धर्मों का अखंड भाव से युगपत् कथन हो जाता है। यह सकलादेश कहलाता है। सकलादेश प्रमाण रूप है। कहा भी है - सकलादेश प्रमाणाधीन है। <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/1/6/54/451/15 )</span>, <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/23/283/10 )</span>।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 2/1/6/56/ पृष्ठ सं./पंक्ति सं. </span><span class="SanskritText">धर्मिमात्रवचनं सकलादेश: धर्ममात्रकथनं तु विकलादेश इत्यप्यसारम्, सत्त्वाद्यन्यतमेनापि धर्मेणाविशेषितस्य धर्मिणो वचनासंभवात् । धर्ममात्रस्य क्वचिद्धर्मिण्यवर्तमानस्य वक्तुमशक्ते:। स्याज्जीव एव स्यादस्त्येवेति धर्मिमात्रस्य च धर्ममात्रस्य वचनं संभवत्येवेति चेत्, न जीवशब्देन जीवत्वधर्मात्मकस्य जीववस्तुन: कथनादस्तिशब्देन चास्तित्वस्य क्वचिद्विशेष्ये विशेषणतया प्रतीयमानस्याभिधानात् । (459/11) सकलाप्रतिपादकत्वात् प्रत्येकं सदादिवाक्यं विकलादेश इति न समीचीना युक्तिस्तत्समुदायस्यापि विकलादेशत्वप्रसंगात् ।460/23। यदि पुनरस्तित्वादिधर्मसप्तकमुखेनाशेषानंतसप्तभंगीविषयानंतधर्मसप्तकस्वभावस्य वस्तुन: कालादिभिरभेदवृत्त्या भेदोपचारेण प्रकाशनात्सदादिसप्तविकल्पात्मकवाक्यस्य सकलादेशत्वसिद्धिस्तदा स्यादस्त्येव जीवादिवस्त्वित्यस्य सकलादेशत्वमस्तु। विवक्षितास्तित्वमुखेन शेषानंतधर्मात्मनो वस्तुनस्तथावृत्त्या कथनात् (462/1)</span> = <span class="HindiText">1. केवल धर्मी को कथन करने वाला वाक्य सकलादेश है और केवल धर्म को कथन करना हो तो केवल विकलादेश है। इस प्रकार...लक्षण साररहित है क्योंकि अस्तित्व नास्तित्वादि धर्मों में से किसी एक भी धर्म से विशिष्ट नहीं किये गये धर्मी का कथन असंभव है। अर्थात् संपूर्ण धर्मों से रहित शुद्ध वस्तु का निरूपण नहीं हो सकता। किसी न किसी धर्म से युक्त ही धर्मी का कथन किया जा सकता है।</span></p> | ||
<span class="GRef">( सप्तभंगीतरंगिणी/17/1 )</span><br> | |||
<span class="HindiText"> 2. कथंचित् जीव ही है, इस प्रकार केवल जीवद्रव्य रूप धर्मी को कहने वाला वचन विद्यमान है, और 'कथंचित् है ही' ऐसे केवल अस्तित्व धर्म को कहने वाला वाक्य भी संभवता है। ऐसा कोई कटाक्ष करते हैं। सो ऐसा तो नहीं कहना क्योंकि धर्मी वाचक जीव शब्द करके प्राणधारणरूप जीवत्व धर्म से तदात्मक हो रही जीव वस्तु कथन की गयी है केवल धर्मी का कथन नहीं। और धर्मवाचक अस्ति शब्द करके किसी विशेष्य में विशेषण होकर प्रतीत किये जा रहे ही अस्तित्व का निरूपण किया गया है कोरे अस्तित्वधर्म का नहीं।459/11।</span></p> | <span class="HindiText"> 2. कथंचित् जीव ही है, इस प्रकार केवल जीवद्रव्य रूप धर्मी को कहने वाला वचन विद्यमान है, और 'कथंचित् है ही' ऐसे केवल अस्तित्व धर्म को कहने वाला वाक्य भी संभवता है। ऐसा कोई कटाक्ष करते हैं। सो ऐसा तो नहीं कहना क्योंकि धर्मी वाचक जीव शब्द करके प्राणधारणरूप जीवत्व धर्म से तदात्मक हो रही जीव वस्तु कथन की गयी है केवल धर्मी का कथन नहीं। और धर्मवाचक अस्ति शब्द करके किसी विशेष्य में विशेषण होकर प्रतीत किये जा रहे ही अस्तित्व का निरूपण किया गया है कोरे अस्तित्वधर्म का नहीं।459/11।</span></p> | ||
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<span class="HindiText"> 4. अस्तित्व आदि सातों धर्म की प्रमुखता से शेष बचे हुए अनंत सप्तभंगियों के विषयभूत अनंत संख्यावाले सातों धर्मस्वरूप वस्तु का काल, आत्म रूप आदि अभेद वृत्ति या भेदउपचार करके प्ररूपण होता है। इस कारण अस्तित्व नास्तित्व आदि सप्त भेद स्वरूप वाक्य को सकलादेशपना सिद्ध हो जाता है ऐसा विचार होने पर हम कहेंगे कि तब तो 'स्यात् अस्ति एव जीवादि वस्तु' किसी अपेक्षा से जीवादि वस्तु है ही। इस प्रकार इस एक भंग को सकलादेशपन हो जाओ। क्योंकि विवक्षा किये गये एक अस्तित्व धर्म की प्रधानता करके शेष बचे हुए अनंत धर्म स्वरूप वस्तु का तिस प्रकार अभेद वृत्ति या अभेद उपचार से कथन कर दिया गया है। (462/1)।</span></p> | <span class="HindiText"> 4. अस्तित्व आदि सातों धर्म की प्रमुखता से शेष बचे हुए अनंत सप्तभंगियों के विषयभूत अनंत संख्यावाले सातों धर्मस्वरूप वस्तु का काल, आत्म रूप आदि अभेद वृत्ति या भेदउपचार करके प्ररूपण होता है। इस कारण अस्तित्व नास्तित्व आदि सप्त भेद स्वरूप वाक्य को सकलादेशपना सिद्ध हो जाता है ऐसा विचार होने पर हम कहेंगे कि तब तो 'स्यात् अस्ति एव जीवादि वस्तु' किसी अपेक्षा से जीवादि वस्तु है ही। इस प्रकार इस एक भंग को सकलादेशपन हो जाओ। क्योंकि विवक्षा किये गये एक अस्तित्व धर्म की प्रधानता करके शेष बचे हुए अनंत धर्म स्वरूप वस्तु का तिस प्रकार अभेद वृत्ति या अभेद उपचार से कथन कर दिया गया है। (462/1)।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,13-14/170/202/2 </span><span class="SanskritText">कथमेतेषां सप्तानां सुनयानां सकलादेशत्वम्; न:, एकधर्मप्रधानभावेन साकल्येन वस्तुन: प्रतिपादकत्वात् । सकलमादिशति कथयतीति सकलादेश:। न च त्रिकालगोचरानंतधर्मोपचितं वस्तु स्यादस्तीत्यनेन आदिश्यते तथानुपलंभात् ततो नैते सकलादेशा इति; न; उभयनयविषयीकृतविधिप्रतिषेधधर्मव्यतिरिक्तत्रिकालगोचरानंतधर्मानुपलंभात्, उपलंभे वा द्रव्यपर्यायार्थिकनयाभ्यां व्यतिरिक्तस्य तृतीयस्य नयस्यास्तित्वमासजेत्, न चैवम् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - इन सातों (स्यादस्ति आदि) सुनयरूप वाक्यों को सकलादेशपना कैसे प्राप्त है ? <strong>उत्तर</strong> - ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि वे सुनय वाक्य किसी एक धर्म को प्रधान करके साकल्य रूप से वस्तु का प्रतिपादन करते हैं, इसलिए ये सकलादेश रूप हैं; क्योंकि साकल्य रूप से जो वस्तु का प्रतिपादन करता है वह सकलादेश कहा जाता है। <strong>प्रश्न</strong> - त्रिकाल के विषयभूत अनंत धर्मों से उपचित वस्तु 'कथंचित् है' इस एक वाक्य के द्वारा तो कही नहीं जा सकती है, क्योंकि एक धर्म के द्वारा अनंत धर्मात्मक वस्तु का ग्रहण नहीं देखा जाता है। इसलिए उपर्युक्त सातों वाक्य सकलादेश नहीं हो सकते हैं। <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों के द्वारा विषय किये गये विधि और प्रतिषेध रूप धर्मों को छोड़कर इससे अतिरिक्त दूसरे त्रिकालवर्ती अनंत धर्म नहीं पाये जाते हैं। अर्थात् वस्तु में जितने धर्म हैं वे या तो विधिरूप हैं या प्रतिषेध रूप, विधि और प्रतिषेध से बहिर्भूत धर्म नहीं है। तथा विधिरूप धर्मों को द्रव्यार्थिक नय विषय करता है। यदि विधि और प्रतिषेध के सिवाय दूसरे धर्मों का सद्भाव माना जाय तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के अतिरिक्त एक तीसरे नय को मानना पड़ेगा। परंतु ऐसा है नहीं।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> सप्तभंगीतरंगिणी/ पृष्ठ/पंक्ति</span> <span class="SanskritText">- अत्र केचित् ...अनेकधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वं सकलादेशत्वं। ...तेषां प्रमाणवाक्यानां नयवाक्यानां च सप्तविधत्वव्याघात:। (16/3)। सिद्धांतविदस्तु एकधर्मबोधनमुखेन तदात्मकानेकाशेषधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वम् । तदुक्तम् ; 'एकगुणमुखेनाशेषवस्तुरूपसंघात्सकलादेश', इति। (19/8)।</span> =<span class="HindiText">यहाँ पर कोई ऐसा कहते हैं...सत्त्व असत्त्व आदि अनेक धर्म रूप जो वस्तु है उस वस्तु विषयक बोधजनक अर्थात् वस्तु के अनेक धर्मों का ज्ञान कराने वाला सकलादेश है। ...उनके मत में प्रमाण वाक्यों के तथा नय वाक्यों के भी सात प्रकार का भेद नहीं सिद्ध होगा। (16/3)। सिद्धांतवेत्ता ऐसा कहते हैं कि एक धर्म के बोधन के मुख से उसको आदि लेके संपूर्ण जो धर्म हैं उन सब धर्म स्वरूप जो वस्तु तादृश वस्तु विषयक बोधजनक जो वाक्य हैं उनको सकलादेश कहते हें। इसी बात को अन्य आचार्य ने भी कहा है। 'वस्तु के एक धर्म के द्वारा शेष सर्व वस्तुओं के स्वरूपों का' संग्रह करने से सकलादेश कहलाता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>* नय कथंचित् सकलादेश है</strong> - देखें [[ सप्तभंगी#2 | सप्तभंगी - 2]]।</p> | <p class="HindiText"><strong>* नय कथंचित् सकलादेश है</strong> - देखें [[ सप्तभंगी#2 | सप्तभंगी - 2]]।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong>* प्रमाण सकलादेश है</strong> - देखें [[ नय#I.2.7 | नय - I.2.7]]।</p> | <p class="HindiText"><strong>* प्रमाण सकलादेश है</strong> - देखें [[ नय#I.2.7 | नय - I.2.7]]।</p> |
Latest revision as of 17:33, 18 February 2024
1. सकलादेश निर्देश
राजवार्तिक/4/42/13/252/23 यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि शब्देन एकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकत्वमापन्नस्य अनेकाशेषरूपस्य प्रतिपादनसंभवात् यौगपद्यम् । तत्र यदा यौगपद्यं तदा सकलादेश:, स एव प्रमाणमित्युच्यते। 'सकलादेश: प्रमाणाधीन:' इति वचनात् । =जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मों की कालादिक की दृष्टि से अभेद विवक्षा होती है तब एक भी शब्द के द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्य रूप से एकत्व को प्राप्त सभी धर्मों का अखंड भाव से युगपत् कथन हो जाता है। यह सकलादेश कहलाता है। सकलादेश प्रमाण रूप है। कहा भी है - सकलादेश प्रमाणाधीन है। ( श्लोकवार्तिक 2/1/6/54/451/15 ), ( स्याद्वादमंजरी/23/283/10 )।
श्लोकवार्तिक 2/1/6/56/ पृष्ठ सं./पंक्ति सं. धर्मिमात्रवचनं सकलादेश: धर्ममात्रकथनं तु विकलादेश इत्यप्यसारम्, सत्त्वाद्यन्यतमेनापि धर्मेणाविशेषितस्य धर्मिणो वचनासंभवात् । धर्ममात्रस्य क्वचिद्धर्मिण्यवर्तमानस्य वक्तुमशक्ते:। स्याज्जीव एव स्यादस्त्येवेति धर्मिमात्रस्य च धर्ममात्रस्य वचनं संभवत्येवेति चेत्, न जीवशब्देन जीवत्वधर्मात्मकस्य जीववस्तुन: कथनादस्तिशब्देन चास्तित्वस्य क्वचिद्विशेष्ये विशेषणतया प्रतीयमानस्याभिधानात् । (459/11) सकलाप्रतिपादकत्वात् प्रत्येकं सदादिवाक्यं विकलादेश इति न समीचीना युक्तिस्तत्समुदायस्यापि विकलादेशत्वप्रसंगात् ।460/23। यदि पुनरस्तित्वादिधर्मसप्तकमुखेनाशेषानंतसप्तभंगीविषयानंतधर्मसप्तकस्वभावस्य वस्तुन: कालादिभिरभेदवृत्त्या भेदोपचारेण प्रकाशनात्सदादिसप्तविकल्पात्मकवाक्यस्य सकलादेशत्वसिद्धिस्तदा स्यादस्त्येव जीवादिवस्त्वित्यस्य सकलादेशत्वमस्तु। विवक्षितास्तित्वमुखेन शेषानंतधर्मात्मनो वस्तुनस्तथावृत्त्या कथनात् (462/1) = 1. केवल धर्मी को कथन करने वाला वाक्य सकलादेश है और केवल धर्म को कथन करना हो तो केवल विकलादेश है। इस प्रकार...लक्षण साररहित है क्योंकि अस्तित्व नास्तित्वादि धर्मों में से किसी एक भी धर्म से विशिष्ट नहीं किये गये धर्मी का कथन असंभव है। अर्थात् संपूर्ण धर्मों से रहित शुद्ध वस्तु का निरूपण नहीं हो सकता। किसी न किसी धर्म से युक्त ही धर्मी का कथन किया जा सकता है।
( सप्तभंगीतरंगिणी/17/1 )
2. कथंचित् जीव ही है, इस प्रकार केवल जीवद्रव्य रूप धर्मी को कहने वाला वचन विद्यमान है, और 'कथंचित् है ही' ऐसे केवल अस्तित्व धर्म को कहने वाला वाक्य भी संभवता है। ऐसा कोई कटाक्ष करते हैं। सो ऐसा तो नहीं कहना क्योंकि धर्मी वाचक जीव शब्द करके प्राणधारणरूप जीवत्व धर्म से तदात्मक हो रही जीव वस्तु कथन की गयी है केवल धर्मी का कथन नहीं। और धर्मवाचक अस्ति शब्द करके किसी विशेष्य में विशेषण होकर प्रतीत किये जा रहे ही अस्तित्व का निरूपण किया गया है कोरे अस्तित्वधर्म का नहीं।459/11।
3. अस्तित्व नास्तित्व आदि धर्मों को कहने वाले सातों भी वाक्य यदि प्रत्येक अकेले बोले जायँ तो सकलादेश हैं इस प्रकार दूसरे अन्यवादी कह रहे हैं। वे भी युक्ति और शास्त्र प्रमाण में प्रवीण नहीं हैं क्योंकि युक्ति और आगम दोनों का अभाव है। यों तो उन सातों वाक्यों के समुदाय को भी विकलादेशपने का प्रसंग होगा। अस्तित्वादि सातों वाक्य भी समुदित होकर भी संपूर्ण वस्तुभूत अर्थ के प्रतिपादक नहीं हैं।460/23।
4. अस्तित्व आदि सातों धर्म की प्रमुखता से शेष बचे हुए अनंत सप्तभंगियों के विषयभूत अनंत संख्यावाले सातों धर्मस्वरूप वस्तु का काल, आत्म रूप आदि अभेद वृत्ति या भेदउपचार करके प्ररूपण होता है। इस कारण अस्तित्व नास्तित्व आदि सप्त भेद स्वरूप वाक्य को सकलादेशपना सिद्ध हो जाता है ऐसा विचार होने पर हम कहेंगे कि तब तो 'स्यात् अस्ति एव जीवादि वस्तु' किसी अपेक्षा से जीवादि वस्तु है ही। इस प्रकार इस एक भंग को सकलादेशपन हो जाओ। क्योंकि विवक्षा किये गये एक अस्तित्व धर्म की प्रधानता करके शेष बचे हुए अनंत धर्म स्वरूप वस्तु का तिस प्रकार अभेद वृत्ति या अभेद उपचार से कथन कर दिया गया है। (462/1)।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/170/202/2 कथमेतेषां सप्तानां सुनयानां सकलादेशत्वम्; न:, एकधर्मप्रधानभावेन साकल्येन वस्तुन: प्रतिपादकत्वात् । सकलमादिशति कथयतीति सकलादेश:। न च त्रिकालगोचरानंतधर्मोपचितं वस्तु स्यादस्तीत्यनेन आदिश्यते तथानुपलंभात् ततो नैते सकलादेशा इति; न; उभयनयविषयीकृतविधिप्रतिषेधधर्मव्यतिरिक्तत्रिकालगोचरानंतधर्मानुपलंभात्, उपलंभे वा द्रव्यपर्यायार्थिकनयाभ्यां व्यतिरिक्तस्य तृतीयस्य नयस्यास्तित्वमासजेत्, न चैवम् । = प्रश्न - इन सातों (स्यादस्ति आदि) सुनयरूप वाक्यों को सकलादेशपना कैसे प्राप्त है ? उत्तर - ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि वे सुनय वाक्य किसी एक धर्म को प्रधान करके साकल्य रूप से वस्तु का प्रतिपादन करते हैं, इसलिए ये सकलादेश रूप हैं; क्योंकि साकल्य रूप से जो वस्तु का प्रतिपादन करता है वह सकलादेश कहा जाता है। प्रश्न - त्रिकाल के विषयभूत अनंत धर्मों से उपचित वस्तु 'कथंचित् है' इस एक वाक्य के द्वारा तो कही नहीं जा सकती है, क्योंकि एक धर्म के द्वारा अनंत धर्मात्मक वस्तु का ग्रहण नहीं देखा जाता है। इसलिए उपर्युक्त सातों वाक्य सकलादेश नहीं हो सकते हैं। उत्तर - नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों के द्वारा विषय किये गये विधि और प्रतिषेध रूप धर्मों को छोड़कर इससे अतिरिक्त दूसरे त्रिकालवर्ती अनंत धर्म नहीं पाये जाते हैं। अर्थात् वस्तु में जितने धर्म हैं वे या तो विधिरूप हैं या प्रतिषेध रूप, विधि और प्रतिषेध से बहिर्भूत धर्म नहीं है। तथा विधिरूप धर्मों को द्रव्यार्थिक नय विषय करता है। यदि विधि और प्रतिषेध के सिवाय दूसरे धर्मों का सद्भाव माना जाय तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के अतिरिक्त एक तीसरे नय को मानना पड़ेगा। परंतु ऐसा है नहीं।
सप्तभंगीतरंगिणी/ पृष्ठ/पंक्ति - अत्र केचित् ...अनेकधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वं सकलादेशत्वं। ...तेषां प्रमाणवाक्यानां नयवाक्यानां च सप्तविधत्वव्याघात:। (16/3)। सिद्धांतविदस्तु एकधर्मबोधनमुखेन तदात्मकानेकाशेषधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वम् । तदुक्तम् ; 'एकगुणमुखेनाशेषवस्तुरूपसंघात्सकलादेश', इति। (19/8)। =यहाँ पर कोई ऐसा कहते हैं...सत्त्व असत्त्व आदि अनेक धर्म रूप जो वस्तु है उस वस्तु विषयक बोधजनक अर्थात् वस्तु के अनेक धर्मों का ज्ञान कराने वाला सकलादेश है। ...उनके मत में प्रमाण वाक्यों के तथा नय वाक्यों के भी सात प्रकार का भेद नहीं सिद्ध होगा। (16/3)। सिद्धांतवेत्ता ऐसा कहते हैं कि एक धर्म के बोधन के मुख से उसको आदि लेके संपूर्ण जो धर्म हैं उन सब धर्म स्वरूप जो वस्तु तादृश वस्तु विषयक बोधजनक जो वाक्य हैं उनको सकलादेश कहते हें। इसी बात को अन्य आचार्य ने भी कहा है। 'वस्तु के एक धर्म के द्वारा शेष सर्व वस्तुओं के स्वरूपों का' संग्रह करने से सकलादेश कहलाता है।
* नय कथंचित् सकलादेश है - देखें सप्तभंगी - 2।
* प्रमाण सकलादेश है - देखें नय - I.2.7।