• जैनकोष
    जैनकोष
  • Menu
  • Main page
    • Home
    • Dictionary
    • Literature
    • Kaavya Kosh
    • Study Material
    • Audio
    • Video
    • Online Classes
    • Games
    • Home
    • Dictionary
    • Literature
    • Kaavya Kosh
    • Study Material
    • Audio
    • Video
    • Online Classes
    • Games
    • What links here
    • Related changes
    • Special pages
    • Printable version
    • Permanent link
    • Page information
    • Recent changes
    • Help
    • Create account
    • Log in

जैन शब्दों का अर्थ जानने के लिए किसी भी शब्द को नीचे दिए गए स्थान पर हिंदी में लिखें एवं सर्च करें

Help
 Actions
  • Page
  • Discussion
  • View source
  • View history

साधु की परीक्षा का विधि-निषेध: Difference between revisions

From जैनकोष

Revision as of 22:36, 17 November 2023 (view source)
Maintenance script (talk | contribs)
(Imported from text file)
← Older edit
Latest revision as of 10:44, 22 February 2024 (view source)
J2jinendra (talk | contribs)
No edit summary
 
(2 intermediate revisions by 2 users not shown)
Line 1: Line 1:
<ol start="5">
<ol start="5">
   <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> साधु की परीक्षा का विधि-निषेध</strong> <br />
   <li class="HindiText"><strong name="5" id="5"> साधु की परीक्षा का विधि-निषेध</strong> <br />
     </span>
     </span>
     <ol>
     <ol>
       <li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> आगंतुक साधु की विनयपूर्वक  परीक्षा विधि</strong> </span><br />
       <li class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> आगंतुक साधु की विनयपूर्वक  परीक्षा विधि</strong> </span><br />
         <span class="GRef"> भगवती आराधना/410-414  </span><span class="PrakritGatha">आएसं एज्जंतं  अब्भुट्टितिं सहसा हु दठ्ठूणं। आणासंगहवच्छल्लदाए चरणे य णादुंजे।410।  आगंतुगवच्छव्वा पडिलेहाहिं तु अण्णमण्णेहिं। अण्णोण्णचरणकरणं जाणणहेदुं  परिक्खंति।411। आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे। सज्झाए य विहारे भिक्खग्गहणे  परिच्छंति।412। आएसस्स तिरत्त णियमा संघाडमो दु दादव्वो। सेज्ज संथारो वि य जइ वि  असंभेइओ होइ।413। तेण परं अवियाणिय ण होदि संघाइओ दु दादव्वो। सेज्जा संथारो वि  यग्गणिणा अविजुत्त जोगिस्स।414। </span>=  
         <span class="GRef"> भगवती आराधना/410-414  </span><span class="PrakritGatha">आएसं एज्जंतं  अब्भुट्टितिं सहसा हु दठ्ठूणं। आणासंगहवच्छल्लदाए चरणे य णादुंजे।410।  आगंतुगवच्छव्वा पडिलेहाहिं तु अण्णमण्णेहिं। अण्णोण्णचरणकरणं जाणणहेदुं  परिक्खंति।411। आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे। सज्झाए य विहारे भिक्खग्गहणे  परिच्छंति।412। आएसस्स तिरत्त णियमा संघाडमो दु दादव्वो। सेज्ज संथारो वि य जइ वि  असंभेइओ होइ।413। तेण परं अवियाणिय ण होदि संघाइओ दु दादव्वो। सेज्जा संथारो वि  यग्गणिणा अविजुत्त जोगिस्स।414। </span>=  
         <ol>
         <ol>
           <li class="HindiText"> अन्य गण से आये हुए साधु को देखकर परगण के सब  साधु, वात्सल्य, सर्वज्ञ आज्ञा, आगंतुक को अपना बनाना और  नमस्कार करना इन प्रयोजनों के निमित्त उठकर खड़े हो जाते हैं।410। वह नवागंतुक  मुनि और इस संघ के मुनि परस्पर में एक दूसरे की प्रतिलेखन क्रिया व तेरह प्रकार  चारित्र की परीक्षा के लिए एक दूसरे को गौर से देखते हैं।411। षट् आवश्यक व  कायोत्सर्ग क्रियाओं में, पीछी आदि से शोधन क्रिया, भाषा बोलने की क्रिया, पुस्तक आदि के उठाने रखने की क्रिया, स्वाध्याय, एकाकी जाने आने की क्रिया, भिक्षा ग्रहणार्थ चर्या, इन सब क्रिया स्थानों में परस्पर परीक्षा करें।412।  आये हुए अन्य संघ के मुनि को स्वाध्याय संस्तर भिक्षा आदि का स्थान बतलाने के लिए  तथा उनकी शुद्धता की परीक्षा करने के लिए, तीन दिन रात तक सहायक मुनि साथ  रहैं।413। (मू.आ./160, 162, 163, 164)। </li>
           <li class="HindiText"> अन्य गण से आये हुए साधु को देखकर परगण के सब  साधु, वात्सल्य, सर्वज्ञ आज्ञा, आगंतुक को अपना बनाना और  नमस्कार करना इन प्रयोजनों के निमित्त उठकर खड़े हो जाते हैं।410। वह नवागंतुक  मुनि और इस संघ के मुनि परस्पर में एक दूसरे की प्रतिलेखन क्रिया व तेरह प्रकार  चारित्र की परीक्षा के लिए एक दूसरे को गौर से देखते हैं।411। षट् आवश्यक व  कायोत्सर्ग क्रियाओं में, पीछी आदि से शोधन क्रिया, भाषा बोलने की क्रिया, पुस्तक आदि के उठाने रखने की क्रिया, स्वाध्याय, एकाकी जाने आने की क्रिया, भिक्षा ग्रहणार्थ चर्या, इन सब क्रिया स्थानों में परस्पर परीक्षा करें।412।  आये हुए अन्य संघ के मुनि को स्वाध्याय संस्तर भिक्षा आदि का स्थान बतलाने के लिए  तथा उनकी शुद्धता की परीक्षा करने के लिए, तीन दिन रात तक सहायक मुनि साथ  रहैं।413। (<span class="GRef">मूलाचार/160, 162, 163, 164 </span>)। </li>
           <li class="HindiText">तीन दिन के पश्चात् यदि वह मुनि परीक्षा में ठीक नहीं उतरता तो उसे  सहाय प्रदान नहीं करते, तथा वसतिका व संस्तर भी उसे नहीं देते और यदि उसका  आचरण योग्य है, परंतु परीक्षा पूरी नहीं हुई है, तो भी आचार्य उसको सहाय वसतिका व संस्तर नहीं देते हैं।414। <br />
           <li class="HindiText">तीन दिन के पश्चात् यदि वह मुनि परीक्षा में ठीक नहीं उतरता तो उसे  सहाय प्रदान नहीं करते, तथा वसतिका व संस्तर भी उसे नहीं देते और यदि उसका  आचरण योग्य है, परंतु परीक्षा पूरी नहीं हुई है, तो भी आचार्य उसको सहाय वसतिका व संस्तर नहीं देते हैं।414। <br />
           </li>
           </li>
         </ol>
         </ol>
       </li>
       </li>
       <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> साधु की परीक्षा करने का  निषेध</strong> </span><br />
       <li class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> साधु की परीक्षा करने का  निषेध</strong> </span><br />
         <span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/64  </span>में उद्धृत–<span class="SanskritText">भुक्तिमात्रप्रदाने  तु का परीक्षा तपस्विनाम्। ते संतः संत्वसंतो वा गृही दानेन शुध्यति।..काले  कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीट के। एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः।</span> = <span class="HindiText">केवल  आहारदान देने के लिए मुनियों की क्या परीक्षा करनी चाहिए? वे मुनि चाहे अच्छे हों या बुरे, गृहस्थ तो उन्हें दान देने से  शुद्ध ही हो जाता है अर्थात् उसे तो पुण्य हो ही जाता है। इस कलिकाल में चित्त  सदा चलायमान रहता है, शरीर एक तरह से केवल अन्न का कीड़ा बना हुआ है, ऐसी अवस्था में भी वर्तमान में जिन रूप धारण करने वाले मुनि विद्यमान हैं, यही आश्चर्य है। <br />
         <span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/64  में उद्धृत</span>–<span class="SanskritText">भुक्तिमात्रप्रदाने  तु का परीक्षा तपस्विनाम्। ते संतः संत्वसंतो वा गृही दानेन शुध्यति।..काले  कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीट के। एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः।</span> = <span class="HindiText">केवल  आहारदान देने के लिए मुनियों की क्या परीक्षा करनी चाहिए? वे मुनि चाहे अच्छे हों या बुरे, गृहस्थ तो उन्हें दान देने से  शुद्ध ही हो जाता है अर्थात् उसे तो पुण्य हो ही जाता है। इस कलिकाल में चित्त  सदा चलायमान रहता है, शरीर एक तरह से केवल अन्न का कीड़ा बना हुआ है, ऐसी अवस्था में भी वर्तमान में जिन रूप धारण करने वाले मुनि विद्यमान हैं, यही आश्चर्य है। <br />
         </span></li>
         </span></li>
       <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> साधु परीक्षा संबंध शंका  समाधान</strong> <br />
       <li class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> साधु परीक्षा संबंध शंका  समाधान</strong> <br />
         <span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/ </span>अधिकार/पृष्ठ/पंक्ति  - <br />
         <span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/ अधिकार/पृष्ठ/पंक्ति</span> - <br />
         </span>
         </span>
         <ol>
         <ol>
Line 21: Line 21:
           <li class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>पंचम काल के अंत तक  चतुर्विध संघ का सद्भाव कह्या है। इनकौ साधु न मानिय तौ किसकौं मानिए? <strong>उत्तर–</strong>जैसे इस कालविषै हंस का सद्भाव कह्या है अर  गम्यक्षेत्र विषै हंस नाहीं दीसै है, तौ औरनिकौं तौ हंस माने जाते  नाहीं, हंस का सा लक्षण मिलें ही हंस मानें जायँ। तैसैं इस कालविषै साधु का सद्भाव  है, अर गम्य क्षेत्र विषै साधु न दीसै हैं, तो औरनिकौं तौ साधु मानें जाते  नाहीं। साधु लक्षण मिलैं ही साधु माने जायँ। (5/234/22<strong>)। </strong></li>
           <li class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>पंचम काल के अंत तक  चतुर्विध संघ का सद्भाव कह्या है। इनकौ साधु न मानिय तौ किसकौं मानिए? <strong>उत्तर–</strong>जैसे इस कालविषै हंस का सद्भाव कह्या है अर  गम्यक्षेत्र विषै हंस नाहीं दीसै है, तौ औरनिकौं तौ हंस माने जाते  नाहीं, हंस का सा लक्षण मिलें ही हंस मानें जायँ। तैसैं इस कालविषै साधु का सद्भाव  है, अर गम्य क्षेत्र विषै साधु न दीसै हैं, तो औरनिकौं तौ साधु मानें जाते  नाहीं। साधु लक्षण मिलैं ही साधु माने जायँ। (5/234/22<strong>)। </strong></li>
           <li class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>अब  श्रावक भी तौ जैसे संभवैं तैसे नाहीं। तातै जैसे श्रावक तैसे मुनि? <strong>उत्तर–</strong>श्रावक संज्ञा तौ शास्त्रविषै सर्व गृहस्थ जनौं की  है। श्रेणिक भी असंयमी था, ताकौं उत्तर पुराण विषै श्रावकोत्तम कह्या । बारह  सभाविषै श्रावक कहे, तहाँ सर्व व्रतधारी न थे।....तातै गृहस्थ जैनी श्रावक  नाम पावै हैं। अर ‘मुनि’ संज्ञा तौ निर्ग्रंथ बिना कहीं  कहीं नाहीं। बहुरि श्रावककै तौ आठ मूलगुण कहे हैं। सो मद्यमांस मधु पंचउदंबरादि  फलनिका भक्षण श्रावकनिकै है नाहीं, तातै काहू प्रकार श्रावकपना तौ  संभवै भी है। अर मुनि कै 28 मूलगुण हैं, सो भेषीनिकै दीसते ही नाहीं।  तातैं मुनिपनों काहू प्रकारकरि संभवै नाहीं। (6/274/1) </li>
           <li class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>अब  श्रावक भी तौ जैसे संभवैं तैसे नाहीं। तातै जैसे श्रावक तैसे मुनि? <strong>उत्तर–</strong>श्रावक संज्ञा तौ शास्त्रविषै सर्व गृहस्थ जनौं की  है। श्रेणिक भी असंयमी था, ताकौं उत्तर पुराण विषै श्रावकोत्तम कह्या । बारह  सभाविषै श्रावक कहे, तहाँ सर्व व्रतधारी न थे।....तातै गृहस्थ जैनी श्रावक  नाम पावै हैं। अर ‘मुनि’ संज्ञा तौ निर्ग्रंथ बिना कहीं  कहीं नाहीं। बहुरि श्रावककै तौ आठ मूलगुण कहे हैं। सो मद्यमांस मधु पंचउदंबरादि  फलनिका भक्षण श्रावकनिकै है नाहीं, तातै काहू प्रकार श्रावकपना तौ  संभवै भी है। अर मुनि कै 28 मूलगुण हैं, सो भेषीनिकै दीसते ही नाहीं।  तातैं मुनिपनों काहू प्रकारकरि संभवै नाहीं। (6/274/1) </li>
           <li class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>ऐसे गुरु  तौ अबार यहाँ नाहीं, तातै जैसे अर्हंंत की स्थापना प्रतिमा हैं, तैसैं गुरुनिकी स्थापना ये भेषधारी हैं? <strong>उत्तर–</strong>अर्हंतादिकी पाषाणादि में स्थापना बनावै, तौ तिनिका प्रतिपक्षी  नाहीं, अर कोई सामान्य मनुष्य आपकौं मुनि मनावै, तो वह मुनिनिका प्रतिपक्षी भया।  ऐसे भी स्थापना होती होय, तौं अरहंत भी आपकौं मनावो। (6/273/15) [पंचपरमेष्ठी  भगवान् के असाधारण गुणों की गृहस्थ या सामान्य मनुष्य में स्थापना करना निषिद्ध  है। <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/ </span>भाषाकार/1/5/54/264/6)। </li>
           <li class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>ऐसे गुरु  तौ अबार यहाँ नाहीं, तातै जैसे अर्हंंत की स्थापना प्रतिमा हैं, तैसैं गुरुनिकी स्थापना ये भेषधारी हैं? <strong>उत्तर–</strong>अर्हंतादिकी पाषाणादि में स्थापना बनावै, तौ तिनिका प्रतिपक्षी  नाहीं, अर कोई सामान्य मनुष्य आपकौं मुनि मनावै, तो वह मुनिनिका प्रतिपक्षी भया।  ऐसे भी स्थापना होती होय, तौं अरहंत भी आपकौं मनावो। (6/273/15) [पंचपरमेष्ठी  भगवान् के असाधारण गुणों की गृहस्थ या सामान्य मनुष्य में स्थापना करना निषिद्ध  है। <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/ भाषाकार/1/5/54/264/6</span>)। </li>
         </ol>
         </ol>
       </li>
       </li>

Latest revision as of 10:44, 22 February 2024



  1. साधु की परीक्षा का विधि-निषेध
    1. आगंतुक साधु की विनयपूर्वक परीक्षा विधि
      भगवती आराधना/410-414 आएसं एज्जंतं अब्भुट्टितिं सहसा हु दठ्ठूणं। आणासंगहवच्छल्लदाए चरणे य णादुंजे।410। आगंतुगवच्छव्वा पडिलेहाहिं तु अण्णमण्णेहिं। अण्णोण्णचरणकरणं जाणणहेदुं परिक्खंति।411। आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे। सज्झाए य विहारे भिक्खग्गहणे परिच्छंति।412। आएसस्स तिरत्त णियमा संघाडमो दु दादव्वो। सेज्ज संथारो वि य जइ वि असंभेइओ होइ।413। तेण परं अवियाणिय ण होदि संघाइओ दु दादव्वो। सेज्जा संथारो वि यग्गणिणा अविजुत्त जोगिस्स।414। =
      1. अन्य गण से आये हुए साधु को देखकर परगण के सब साधु, वात्सल्य, सर्वज्ञ आज्ञा, आगंतुक को अपना बनाना और नमस्कार करना इन प्रयोजनों के निमित्त उठकर खड़े हो जाते हैं।410। वह नवागंतुक मुनि और इस संघ के मुनि परस्पर में एक दूसरे की प्रतिलेखन क्रिया व तेरह प्रकार चारित्र की परीक्षा के लिए एक दूसरे को गौर से देखते हैं।411। षट् आवश्यक व कायोत्सर्ग क्रियाओं में, पीछी आदि से शोधन क्रिया, भाषा बोलने की क्रिया, पुस्तक आदि के उठाने रखने की क्रिया, स्वाध्याय, एकाकी जाने आने की क्रिया, भिक्षा ग्रहणार्थ चर्या, इन सब क्रिया स्थानों में परस्पर परीक्षा करें।412। आये हुए अन्य संघ के मुनि को स्वाध्याय संस्तर भिक्षा आदि का स्थान बतलाने के लिए तथा उनकी शुद्धता की परीक्षा करने के लिए, तीन दिन रात तक सहायक मुनि साथ रहैं।413। (मूलाचार/160, 162, 163, 164 )।
      2. तीन दिन के पश्चात् यदि वह मुनि परीक्षा में ठीक नहीं उतरता तो उसे सहाय प्रदान नहीं करते, तथा वसतिका व संस्तर भी उसे नहीं देते और यदि उसका आचरण योग्य है, परंतु परीक्षा पूरी नहीं हुई है, तो भी आचार्य उसको सहाय वसतिका व संस्तर नहीं देते हैं।414।
    2. साधु की परीक्षा करने का निषेध
      सागार धर्मामृत/2/64 में उद्धृत–भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्। ते संतः संत्वसंतो वा गृही दानेन शुध्यति।..काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीट के। एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः। = केवल आहारदान देने के लिए मुनियों की क्या परीक्षा करनी चाहिए? वे मुनि चाहे अच्छे हों या बुरे, गृहस्थ तो उन्हें दान देने से शुद्ध ही हो जाता है अर्थात् उसे तो पुण्य हो ही जाता है। इस कलिकाल में चित्त सदा चलायमान रहता है, शरीर एक तरह से केवल अन्न का कीड़ा बना हुआ है, ऐसी अवस्था में भी वर्तमान में जिन रूप धारण करने वाले मुनि विद्यमान हैं, यही आश्चर्य है।
    3. साधु परीक्षा संबंध शंका समाधान
      मोक्षमार्ग प्रकाशक/ अधिकार/पृष्ठ/पंक्ति -
      1. प्रश्न–शील संयमादि पालै हैं, तपश्चरणादि करैं हैं, सो जेता करैं तितना ही भला है? उत्तर–यहू सत्य है, धर्म थोरा भी पाल्या हुआ भला है। परंतु प्रतिज्ञा तौ बड़े धर्म की करिए अर पालिए थोरा तौ वहाँ प्रतिज्ञा भंगतैं महापाप हो है।...शील संयमादि होतैं भी पापी ही कहिए।....यथायोग्य नाम धराय धर्मक्रिया करतैं तौ पापीपना होता नाहीं। जेता धर्म्म साधै तितना ही भला है। (5/234/9)।
      2. प्रश्न–पंचम काल के अंत तक चतुर्विध संघ का सद्भाव कह्या है। इनकौ साधु न मानिय तौ किसकौं मानिए? उत्तर–जैसे इस कालविषै हंस का सद्भाव कह्या है अर गम्यक्षेत्र विषै हंस नाहीं दीसै है, तौ औरनिकौं तौ हंस माने जाते नाहीं, हंस का सा लक्षण मिलें ही हंस मानें जायँ। तैसैं इस कालविषै साधु का सद्भाव है, अर गम्य क्षेत्र विषै साधु न दीसै हैं, तो औरनिकौं तौ साधु मानें जाते नाहीं। साधु लक्षण मिलैं ही साधु माने जायँ। (5/234/22)।
      3. प्रश्न–अब श्रावक भी तौ जैसे संभवैं तैसे नाहीं। तातै जैसे श्रावक तैसे मुनि? उत्तर–श्रावक संज्ञा तौ शास्त्रविषै सर्व गृहस्थ जनौं की है। श्रेणिक भी असंयमी था, ताकौं उत्तर पुराण विषै श्रावकोत्तम कह्या । बारह सभाविषै श्रावक कहे, तहाँ सर्व व्रतधारी न थे।....तातै गृहस्थ जैनी श्रावक नाम पावै हैं। अर ‘मुनि’ संज्ञा तौ निर्ग्रंथ बिना कहीं कहीं नाहीं। बहुरि श्रावककै तौ आठ मूलगुण कहे हैं। सो मद्यमांस मधु पंचउदंबरादि फलनिका भक्षण श्रावकनिकै है नाहीं, तातै काहू प्रकार श्रावकपना तौ संभवै भी है। अर मुनि कै 28 मूलगुण हैं, सो भेषीनिकै दीसते ही नाहीं। तातैं मुनिपनों काहू प्रकारकरि संभवै नाहीं। (6/274/1)
      4. प्रश्न–ऐसे गुरु तौ अबार यहाँ नाहीं, तातै जैसे अर्हंंत की स्थापना प्रतिमा हैं, तैसैं गुरुनिकी स्थापना ये भेषधारी हैं? उत्तर–अर्हंतादिकी पाषाणादि में स्थापना बनावै, तौ तिनिका प्रतिपक्षी नाहीं, अर कोई सामान्य मनुष्य आपकौं मुनि मनावै, तो वह मुनिनिका प्रतिपक्षी भया। ऐसे भी स्थापना होती होय, तौं अरहंत भी आपकौं मनावो। (6/273/15) [पंचपरमेष्ठी भगवान् के असाधारण गुणों की गृहस्थ या सामान्य मनुष्य में स्थापना करना निषिद्ध है। ( श्लोकवार्तिक 2/ भाषाकार/1/5/54/264/6)।


पूर्व पृष्ठ

अगला पृष्ठ

Retrieved from "https://www.jainkosh.org/w/index.php?title=साधु_की_परीक्षा_का_विधि-निषेध&oldid=132058"
Categories:
  • स
  • चरणानुयोग
JainKosh

जैनकोष याने जैन आगम का डिजिटल ख़जाना ।

यहाँ जैन धर्म के आगम, नोट्स, शब्दकोष, ऑडियो, विडियो, पाठ, स्तोत्र, भक्तियाँ आदि सब कुछ डिजिटली उपलब्ध हैं |

Quick Links

  • Home
  • Dictionary
  • Literature
  • Kaavya Kosh
  • Study Material
  • Audio
  • Video
  • Online Classes

Other Links

  • This page was last edited on 22 February 2024, at 10:44.
  • Privacy policy
  • About जैनकोष
  • Disclaimers
© Copyright Jainkosh. All Rights Reserved
  • Powered by MediaWiki