संसारानुप्रेक्षा: Difference between revisions
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देखें [[ अनुप्रेक्षा ]]। | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/105</span> <p class="SanskritText">एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पंचप्रकारं संसारं भावयतोऽस्य जीवस्य संसारातीतस्वशुद्धात्मसंवित्तिविनाशकेषु संसारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु परिणामो न जायते, किंतु संसारातीतसुखास्वादे रतो भूत्वा स्वशुद्धात्मसंवित्तिवशेन संसारविनाशकनिजनिरंजनपरमात्मनि एव भावनां करोति। ततश्च यादृशमेव परमात्मनं भावयति तादृशमेव लब्ध्वा संसारविलक्षणे मोक्षेऽनंतकालं तिष्ठतीति। ....इति संसारानुप्रेक्षा गता। </p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के संसार को चिंतवन करते हुए इस जीव के, संसार रहित निज शुद्धात्म ज्ञान का नाश करनेवाले तथा संसार की वृद्धि के कारणभूत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं उनमें परिणाम नहीं जाता, किंतु वह संसारातीत सुख के अनुभव में लीन होकर निज शुद्धात्मज्ञान के बल से संसार को नष्ट करने वाले निज निरंजन परमात्मा में भावना करता है। तदनंतर जिस प्रकार के परमात्मा को भाता है उसी प्रकार के परमात्मा को प्राप्त होकर संसार से विलक्षण मोक्ष में अनंत काल तक रहता है। इस प्रकार '''संसारानुप्रेक्षा''' समाप्त हुई।</p><br> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415</span> <p class="SanskritText">कर्मविपाकवशादात्मनो भवांतरावाप्ति संसारः। सपुरस्तात्पंचविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यातः। तस्मिन्ननेकयोनिकुलकोटिबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्मयंत्रप्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति। नट इव रंगे। अथवा किं बहुना, स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवादि संसारस्वभावचिंतनमनुप्रेक्षा </p> | |||
<p class="HindiText">= कर्म विपाक के वश से आत्मा को भवांतर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तन रूप से व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटि लाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्म यंत्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या, और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थल में नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूप से संसार के स्वभाव का चिंतन करना '''संसारानुप्रेक्षा''' है। </p><br> | |||
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<div class="HindiText"> <p> बारह अनुप्रेक्षाओं में एक अनुप्रेक्षा । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप परिवर्तनों के कारण संसार दुःख रूप है ऐसी भावना करना संसारानुप्रेक्षा है । <span class="GRef"> महापुराण 11. 106, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#238|पद्मपुराण - 14.238-239]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 25.87-88, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 11.23-24 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> बारह अनुप्रेक्षाओं में एक अनुप्रेक्षा । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप परिवर्तनों के कारण संसार दुःख रूप है ऐसी भावना करना संसारानुप्रेक्षा है । <span class="GRef"> महापुराण 11. 106, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#238|पद्मपुराण - 14.238-239]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 25.87-88, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 11.23-24 </span></p> | ||
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Latest revision as of 17:16, 18 February 2024
सिद्धांतकोष से
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/105
एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पंचप्रकारं संसारं भावयतोऽस्य जीवस्य संसारातीतस्वशुद्धात्मसंवित्तिविनाशकेषु संसारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु परिणामो न जायते, किंतु संसारातीतसुखास्वादे रतो भूत्वा स्वशुद्धात्मसंवित्तिवशेन संसारविनाशकनिजनिरंजनपरमात्मनि एव भावनां करोति। ततश्च यादृशमेव परमात्मनं भावयति तादृशमेव लब्ध्वा संसारविलक्षणे मोक्षेऽनंतकालं तिष्ठतीति। ....इति संसारानुप्रेक्षा गता।
= इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के संसार को चिंतवन करते हुए इस जीव के, संसार रहित निज शुद्धात्म ज्ञान का नाश करनेवाले तथा संसार की वृद्धि के कारणभूत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं उनमें परिणाम नहीं जाता, किंतु वह संसारातीत सुख के अनुभव में लीन होकर निज शुद्धात्मज्ञान के बल से संसार को नष्ट करने वाले निज निरंजन परमात्मा में भावना करता है। तदनंतर जिस प्रकार के परमात्मा को भाता है उसी प्रकार के परमात्मा को प्राप्त होकर संसार से विलक्षण मोक्ष में अनंत काल तक रहता है। इस प्रकार संसारानुप्रेक्षा समाप्त हुई।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415
कर्मविपाकवशादात्मनो भवांतरावाप्ति संसारः। सपुरस्तात्पंचविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यातः। तस्मिन्ननेकयोनिकुलकोटिबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्मयंत्रप्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति। नट इव रंगे। अथवा किं बहुना, स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवादि संसारस्वभावचिंतनमनुप्रेक्षा
= कर्म विपाक के वश से आत्मा को भवांतर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तन रूप से व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटि लाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्म यंत्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या, और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थल में नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूप से संसार के स्वभाव का चिंतन करना संसारानुप्रेक्षा है।
अधिक जानकारी के लिये देखें अनुप्रेक्षा 1.14 ।
पुराणकोष से
बारह अनुप्रेक्षाओं में एक अनुप्रेक्षा । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप परिवर्तनों के कारण संसार दुःख रूप है ऐसी भावना करना संसारानुप्रेक्षा है । महापुराण 11. 106, पद्मपुराण - 14.238-239, पांडवपुराण 25.87-88, वीरवर्द्धमान चरित्र 11.23-24