निक्षेपाधिकरण: Difference between revisions
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<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 6/9,12-15/516/28</span> <p class="SanskritText">अजीवाधिकरणं निर्वर्तनालक्षणं द्वेधा व्यवतिष्ठते। कुतः। मूलोत्तरभेदात्। मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणम् <b>उत्तर</b> - गुणनिर्वर्तनाधिकरणं चेति। तत्र मूतं पंचविधानि शरीराणि वाङ्मनःप्राणापानाश्च। उत्तरं काष्ठपुस्तकचित्रकर्मादि। .....निक्षेपश्चतुर्धाभिद्यते। कुतः। अप्रत्यवेक्षदुष्प्रमार्जनसहसानाभोगभेदात्-अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरणं दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणं, सहसानिक्षेपाधिकरणं, अनाभागनिक्षेपाधिकरणं चेति।....संयोगो द्विधा विभज्यते। कुतः। भक्तापानोपकरण भेदात्, भक्तपानसंयोगाधिकरणम्, उपकरणसंयोगाधिकरणं चेति। ....निसर्गस्त्रिधा कल्प्यते। कुतः। कायादिभेदात्। कायनिसर्गाधिकरणं वाङ्निसर्गाधिकरणं मनोनिसर्गाधिकरणं चेति।</p> <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 6/7,5/513/22</span><p class="SanskritText">तदुभयमधिकरणं दशप्रकारम्-विषलवणक्षारकटुकाम्लस्नेहाग्नि-दुष्प्रयुक्तकायवाङ्मनोयोगभेदात्। </p> | |||
<p class="HindiText">= अजीवाधिकरणों में निर्वर्तना लक्षण अधिकरण दो प्रकार का है। कैसे? मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरण और उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण। उसमें भी मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरण 8 प्रकार का है - पाँच प्रकार के शरीर, मन, वचन और प्राणापान। उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण काठ, पुस्तक व चित्रादि रूप से अनेक प्रकार का है ॥12॥ '''निक्षेपाधिकरण''' चार प्रकार का है। कैसे? अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण और अनाभोगनिक्षेपाधिकरण ॥13॥ संयोगनिक्षेपाधिकरण दो प्रकार का है। कैसे? भक्तपानसंयोगाधिकरण और उपकरणसंयोगाधिकरण ॥14॥ निसर्गाधिकरण तीन प्रकार का है। कैसे? कायनिसर्गाधिकरण, वचननिसर्गाधिकरण और मनोनिसर्गाधिकरण ॥15॥ तदुभयाधिकरण दश प्रकार का है - विष, लवण, क्षार, कटुक, आम्ल, स्निग्ध, अग्नि और दुष्प्रयुक्त मन, वचन, काय ॥5॥ </p><br> | |||
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<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> अजीवाधिकरण आस्रव के भेदों में एक भेद । यह चार प्रकार का होता है― सहसानिक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण, अनाभोगनिक्षेपाधिकरण और अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण । इनमें शीघ्रता से किसी वस्तु को रख देना सहसानिक्षेप, दुष्टतापूर्वक साफ की हुई भूमि में किसी वस्तु को रखना दुष्प्रमृष्टनिक्षेप, अव्यवस्था के साथ चाहे जहाँ किसी वस्तु को रख देना अनाभागनिक्षेप और बिना देखी-शोधी भूमि में किसी वस्तु को रख देना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेप है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#84|हरिवंशपुराण - 58.84-88]] </span></p> | |||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
राजवार्तिक अध्याय 6/9,12-15/516/28
अजीवाधिकरणं निर्वर्तनालक्षणं द्वेधा व्यवतिष्ठते। कुतः। मूलोत्तरभेदात्। मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणम् उत्तर - गुणनिर्वर्तनाधिकरणं चेति। तत्र मूतं पंचविधानि शरीराणि वाङ्मनःप्राणापानाश्च। उत्तरं काष्ठपुस्तकचित्रकर्मादि। .....निक्षेपश्चतुर्धाभिद्यते। कुतः। अप्रत्यवेक्षदुष्प्रमार्जनसहसानाभोगभेदात्-अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरणं दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणं, सहसानिक्षेपाधिकरणं, अनाभागनिक्षेपाधिकरणं चेति।....संयोगो द्विधा विभज्यते। कुतः। भक्तापानोपकरण भेदात्, भक्तपानसंयोगाधिकरणम्, उपकरणसंयोगाधिकरणं चेति। ....निसर्गस्त्रिधा कल्प्यते। कुतः। कायादिभेदात्। कायनिसर्गाधिकरणं वाङ्निसर्गाधिकरणं मनोनिसर्गाधिकरणं चेति।
राजवार्तिक अध्याय 6/7,5/513/22
तदुभयमधिकरणं दशप्रकारम्-विषलवणक्षारकटुकाम्लस्नेहाग्नि-दुष्प्रयुक्तकायवाङ्मनोयोगभेदात्।
= अजीवाधिकरणों में निर्वर्तना लक्षण अधिकरण दो प्रकार का है। कैसे? मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरण और उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण। उसमें भी मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरण 8 प्रकार का है - पाँच प्रकार के शरीर, मन, वचन और प्राणापान। उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण काठ, पुस्तक व चित्रादि रूप से अनेक प्रकार का है ॥12॥ निक्षेपाधिकरण चार प्रकार का है। कैसे? अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण और अनाभोगनिक्षेपाधिकरण ॥13॥ संयोगनिक्षेपाधिकरण दो प्रकार का है। कैसे? भक्तपानसंयोगाधिकरण और उपकरणसंयोगाधिकरण ॥14॥ निसर्गाधिकरण तीन प्रकार का है। कैसे? कायनिसर्गाधिकरण, वचननिसर्गाधिकरण और मनोनिसर्गाधिकरण ॥15॥ तदुभयाधिकरण दश प्रकार का है - विष, लवण, क्षार, कटुक, आम्ल, स्निग्ध, अग्नि और दुष्प्रयुक्त मन, वचन, काय ॥5॥
देखें अधिकरण ।
पुराणकोष से
अजीवाधिकरण आस्रव के भेदों में एक भेद । यह चार प्रकार का होता है― सहसानिक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण, अनाभोगनिक्षेपाधिकरण और अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण । इनमें शीघ्रता से किसी वस्तु को रख देना सहसानिक्षेप, दुष्टतापूर्वक साफ की हुई भूमि में किसी वस्तु को रखना दुष्प्रमृष्टनिक्षेप, अव्यवस्था के साथ चाहे जहाँ किसी वस्तु को रख देना अनाभागनिक्षेप और बिना देखी-शोधी भूमि में किसी वस्तु को रख देना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेप है । हरिवंशपुराण - 58.84-88