रतिकर: Difference between revisions
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<div class="HindiText">नंदीश्वर द्वीप की पूर्वादि चारों दिशाओं में चार-चार बावड़ियाँ हैं । प्रत्येक बावड़ी के दोनों बाहर वाले कोनों पर एक-एक ढोलाकार (Cylindrical) पर्वत है । लाल वर्ण का होने के कारण इनका नाम रतिकर है । इस प्रकार कुल 32 रतिकर हैं । प्रत्येक के शीश पर एक एक जिनमंदिर है - विशेष देखें [[ लोक#4.5 | लोक - 4.5 ]]।</div> | |||
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<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> नंदीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में विद्यमान वापिकाओ के कोणों के समीप स्थित पर्वत । ये एक-एक वापी के चार-चार होने से सोलह वापियों के चौसठ होते हैं । इनमें बत्तीस वापियों के भीतर और बाह्य कोणों पर स्थित है । ये स्वर्णमय ढोल के आकार मे होते हैं । ये ढाई सौ योजन गहरे एक हजार योजन ऊंचे, इतने ही चौड़े और इतने ही लंबे तथा अविनाशी हैं । ये पर्वत देवों के द्वारा सेवित और एक-एक चैत्यालय से विभूषित है । इस तरह एक दिशा की चार वापियों के ये आठ और चारों दिशाओं के बत्तीस होते हैं । नंदीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में चार अंजनगिरि, सोलह दधिमुख और बत्तीस रतिकरों के बावन चैत्यालय प्रसिद्ध है । <span class="GRef"> ([[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#673|हरिवंशपुराण - 5.673-676]]) </span></p> | |||
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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
नंदीश्वर द्वीप की पूर्वादि चारों दिशाओं में चार-चार बावड़ियाँ हैं । प्रत्येक बावड़ी के दोनों बाहर वाले कोनों पर एक-एक ढोलाकार (Cylindrical) पर्वत है । लाल वर्ण का होने के कारण इनका नाम रतिकर है । इस प्रकार कुल 32 रतिकर हैं । प्रत्येक के शीश पर एक एक जिनमंदिर है - विशेष देखें लोक - 4.5 ।
पुराणकोष से
नंदीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में विद्यमान वापिकाओ के कोणों के समीप स्थित पर्वत । ये एक-एक वापी के चार-चार होने से सोलह वापियों के चौसठ होते हैं । इनमें बत्तीस वापियों के भीतर और बाह्य कोणों पर स्थित है । ये स्वर्णमय ढोल के आकार मे होते हैं । ये ढाई सौ योजन गहरे एक हजार योजन ऊंचे, इतने ही चौड़े और इतने ही लंबे तथा अविनाशी हैं । ये पर्वत देवों के द्वारा सेवित और एक-एक चैत्यालय से विभूषित है । इस तरह एक दिशा की चार वापियों के ये आठ और चारों दिशाओं के बत्तीस होते हैं । नंदीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में चार अंजनगिरि, सोलह दधिमुख और बत्तीस रतिकरों के बावन चैत्यालय प्रसिद्ध है । (हरिवंशपुराण - 5.673-676)