रत्नप्रभा: Difference between revisions
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<li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText"> रत्नप्रभा नाम की सार्थकता</span></strong> <br /> | <li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText"> रत्नप्रभा नाम की सार्थकता</span></strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> (सर्वार्थसिद्धि/3/1/203/7) </span><span class="SanskritText">चित्रादिरत्नप्रभासहचरिता भूमिः रत्नप्रभा । </span>=<span class="HindiText"> जिसकी प्रभा चित्र आदि रत्नों की प्रभा के समान है वह रत्नप्रभा भूमि है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/1/159/17 )</span>; <span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति/2/20 )</span>; <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/120 )</span> <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> रत्नप्रभा पृथिवी के तीन भाग तथा उनका स्वरूप विस्तार आदि</strong></span><strong> <br></strong><span class="GRef"> (तिलोयपण्णत्ति/2/9-18) </span><span class="PrakritGatha">खरपंकप्पब्बहुला भागा रयणप्पहाए पुढवीए । बहलत्तणं सहस्सा सोलस चउसीदि सीदिय ।9। खरभागो णादव्वो सोलस भेदेहिं संजुदो णियमा । चित्तादीओ खिदिओ तेसिं चित्ता बहुवियप्पा ।10। णाणाविहवण्णाओ महिओ वह सिलातला उववादा । बालुवसक्करसीसयरुप्पसुवण्णाण वइरं च ।11। अयतंबतउयसस्सयसिलाहिंगुलाणि हरिदालं । अंजणपवालगोमज्जगाणि रुजगंकअब्भपडलाणि ।12। तह अब्भबालुकाओ फलिहं जलकंतसूरकंताणि । चंदप्पहवेरुलियं गेरुवचंदण लोहिदंकाणि ।13। वव्वयवगमोअमसारगल्लपहुदीणि विविहवण्णाणि । जा होंति त्ति एदेण चित्तेत्ति य वण्णिदा एसा ।14। एदाए बहलत्तं एक्कसहस्सं हवंति जोयणया । तीएहेट्ठा कमसो चोद्दस अण्णा य ट्ठिदमही ।15। तण्णामा वेरुलियं लोहिययंकं मसारगल्लं च । गोमज्जयं पवालं जोदिरसं अंजणं णाम ।16। अंजणमूलं अंकं फलिहचंदणं च वच्चगयं । बहुला सेला एदा पत्तेक्कं इगिसहस्सबहलाइं ।17। ताणि खिदीणं हेट्ठापासाणं णाम रयणसेलसमा । जोयण सहस्सबहलं वेत्तसणसण्णिहाउ संठाओ ।18।</span> | ||
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<li | <li class="HindiText"> अधोलोक में सबसे पहली रत्नप्रभा पृथिवी है उसके तीन भाग हैं−खर भाग, पंक भाग और अब्बहुल भाग । इन तीनों भागों का बाहल्य क्रमशः सोलह हजार, चौरासी हजार और अस्सी हजार योजन प्रमाण है ।9। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> इनमें से खर भाग नियम से सोलह भेदों से सहित है । ये सोलह भेद चित्रादिक सोलह पृथिवी रूप हैं । इनमें से चित्रा पृथिवी अनेक प्रकार की है ।10 । यहाँ पर अनेक प्रकार के वर्णों से युक्त महीतल, शिलातल, उपपाद, वालु, शक्कर, शीशा, चाँदी, सुवर्ण इनके उत्पत्तिस्थान, वज्र तथा अयस् (लोहा) ताँबा, त्रपु (रांगा), सस्यक (मणि विशेष), मनःशिला, हिंगुल (सिंगरफ), हरिताल, अंजन, प्रवाल (मूंगा) गोमध्यक (मणिविशेष) रुचक अंक (धातु विशेष), अभ्रपटल (धातुविशेष), अभ्रबालुका (लालरेत), स्फटिक मणि, जलकांतमणि, सूर्यकांतमणि, चंद्रप्रभमणि (चंद्रकांतमणि), वैडूर्यमणि, गेरु, चंदन, लोहितांक (लोहिताक्ष), वप्रक (मरकत) बकमणि (पुष्परोड़ा), मोचमणि (कदली वर्णाकार नीलमणि) और मसारगल्ल (मसृणपाषाणमणि विद्रमवर्ण) इत्यादिक विविध वर्ण वाली धातुएँ हैं । इसलिए इस पृथिवी का चित्रा इस नाम से वर्णन किया गया है ।11-14 । इस चित्रा पृथिवी की मोटाई 1 हजार योजन है । </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> इसके नीचे क्रम से चौदह अन्य पृथिवियाँ स्थित हैं ।15। वैडूर्य, लोहितांक (लोहिताक्ष), असारगल्ल (मसारकल्पा), गोमेदक, प्रवाल, ज्योतिरस, अंजन, अंजनमूल, अंक, स्फटिक, चंदन, वर्चगत (सर्वार्थ का), बहुल (बकुल) और शैल, ये उन उपर्युक्त चौदह पृथिवियों के नाम हैं । इनमें से प्रत्येक की मोटाई एक हजार योजन है ।16-17। इन पृथिवियों के नीचे एक पाषाण नाम की (सोलहवीं) पृथिवी है । जो रत्नशैल के समान है । इसकी मोटाई भी एक हजार योजन प्रमाण है । ये सब पृथिवियाँ वेत्रासन के सदृश स्थित हैं ।18। <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/1/8/160/19 )</span>; <span class="GRef">( त्रिलोकसार/146-148 )</span>; (ज. पं./11/114-120) । <br> | ||
<strong>अब्बहुल भाग में नरकों के पटल <br> | <strong>अब्बहुल भाग में नरकों के पटल <br> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> अधोलोक की प्रथमभूमि, रूढि नाम धर्मा । इसके तीन भाग है । खरभाग के चित्र आदि सोलह भेद है । खरभाग में असुरकुमारों को छोड़कर शेष नौ प्रकार के भवनवासी देव रहते हैं । इनमें नागकुमारों के चौरासी लाख, गरुडकुमारों के बहत्तर लाख, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, मेघकुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और विष्णु, कुमार इन छ: कुमारों के छिहत्तर लाख तथा वायुकुमारों के छियानवे लाख भवन हैं । ये भवन इस भाग में श्रेणी रूप से स्थित है तथा प्रत्येक में एक-एक चैत्यालय है इस खरभाग के नीचे पंकभाग मे असुरकुमारों के चौंसठ लाख भवन हैं । खरभाग में राक्षसों को छोड़कर शेष सात प्रकार के व्यंतर देव रहते हैं । पंकभाग मे राक्षसों का निवास है । यहाँ राक्षसों के सोलह हजार भवन है । अब्बहुल भाग में ऊपर नीचे एक-एक हजार योजन स्थान छोड़कर नारकियों के बिल है । इस पृथिवी के तेरह प्रस्तार और प्रस्तारों के तेरह इंद्रक बिल हैं । इंद्रक बिलों के नाम ये हैं― सीमांतक, नरक, रौरूक, भ्रांत, उदभ्रांत, असंभ्रांत, विभ्रांत, त्रस्त, त्रसित, वक्रांत, अवक्रांत और विक्रांत । <br> | |||
सीमांतक-इंद्रक बिल की पूर्व-दिशा में कांक्ष, पश्चिम दिशा में महाकांक्ष, दक्षिणदिशा में पिपास और उत्तर दिशा में अतिपिपास ये चार महानरक है । इस पृथिवी के कुल तीस लाख बिल है जिनमें छ: लाख बिल संख्यात योजन और चौबीस लाख बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं । सीमंतक इंद्रक का विस्तार पैतालीस लाख योजन होता है । इसी प्रकार नरक इंद्रक का विस्तार चवालीस लाख आठ हजार तीन सौ तैंतीस और 1/3 योजन प्रमाण, रौरव, इंद्रक का तैंतालीस लाख, सोलह हजार, छ: सौ सड़सठ और 2/3 योजनप्रमाण, चौथे भ्रांत इंद्रक का बयालीस लाख पच्चीस हजार, उदभ्रांत इंद्रक का इकतालीस लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस और 1/3 योजन प्रमाण, संभ्रांत इंद्रक का चालीस लाख इकतालीस हजार छ: सौ छियासठ और 2/3 योजन प्रमाण, असंभ्रांत इंद्रक का उनतालीस लाख पचास हजार योजन, विभ्रांत इंद्रक का अड़तीस लाख अठावन हजार तीन सौ तैंतीस और 1/3 योजन प्रमाण, नौवें त्रस्त इंद्रक का सैंतीस लाख छियासठ हजार छ: सौ छियासठ और 2/3 योजन प्रमाण, त्रसित इंद्रक का छत्तीस लाख पचहत्तर हजार, वक्रांत इंद्रक का पैंतीस लाख तेरासी हजार तीन सौ तैंतीस योजन और 1/3 योजन प्रमाण तथा बारहवें अवक्रांत इंद्रक का विस्तार चौंतीस लाख इकानवें हजार छ: सौ छियासठ और 2/3 योजन प्रमाण तथा तेरहवें विक्रांत इंद्रक का विस्तार चौतीस लाख योजन होता है । इस पृथिवी के इंद्रक बिलों की मुटाई एक कोश, श्रेणीबद्ध बिलों की 1 1/3 कोश और प्रकीर्णक बिलों की 2 1/3 कोश प्रमाण है । इसका आकार वेत्रासन रूप होता है । <br> | |||
यहाँ के जीवों की अधिकतम ऊँचाई सात धनुष, तीन हाथ, छ: अंगुल प्रमाण तथा आयु एक सागर प्रमाण होती है । <span class="GRef"> (महापुराण 10. 90-94), </span><span class="GRef"> ([[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#6|हरिवंशपुराण - 4.6]], 43-65, 71, 76-77, 151-152, 161, 171-183, 218, 305) </span></p> | |||
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Latest revision as of 15:21, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- रत्नप्रभा नाम की सार्थकता
(सर्वार्थसिद्धि/3/1/203/7) चित्रादिरत्नप्रभासहचरिता भूमिः रत्नप्रभा । = जिसकी प्रभा चित्र आदि रत्नों की प्रभा के समान है वह रत्नप्रभा भूमि है । ( राजवार्तिक/3/1/159/17 ); ( तिलोयपण्णत्ति/2/20 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/120 )
- रत्नप्रभा पृथिवी के तीन भाग तथा उनका स्वरूप विस्तार आदि
(तिलोयपण्णत्ति/2/9-18) खरपंकप्पब्बहुला भागा रयणप्पहाए पुढवीए । बहलत्तणं सहस्सा सोलस चउसीदि सीदिय ।9। खरभागो णादव्वो सोलस भेदेहिं संजुदो णियमा । चित्तादीओ खिदिओ तेसिं चित्ता बहुवियप्पा ।10। णाणाविहवण्णाओ महिओ वह सिलातला उववादा । बालुवसक्करसीसयरुप्पसुवण्णाण वइरं च ।11। अयतंबतउयसस्सयसिलाहिंगुलाणि हरिदालं । अंजणपवालगोमज्जगाणि रुजगंकअब्भपडलाणि ।12। तह अब्भबालुकाओ फलिहं जलकंतसूरकंताणि । चंदप्पहवेरुलियं गेरुवचंदण लोहिदंकाणि ।13। वव्वयवगमोअमसारगल्लपहुदीणि विविहवण्णाणि । जा होंति त्ति एदेण चित्तेत्ति य वण्णिदा एसा ।14। एदाए बहलत्तं एक्कसहस्सं हवंति जोयणया । तीएहेट्ठा कमसो चोद्दस अण्णा य ट्ठिदमही ।15। तण्णामा वेरुलियं लोहिययंकं मसारगल्लं च । गोमज्जयं पवालं जोदिरसं अंजणं णाम ।16। अंजणमूलं अंकं फलिहचंदणं च वच्चगयं । बहुला सेला एदा पत्तेक्कं इगिसहस्सबहलाइं ।17। ताणि खिदीणं हेट्ठापासाणं णाम रयणसेलसमा । जोयण सहस्सबहलं वेत्तसणसण्णिहाउ संठाओ ।18।- अधोलोक में सबसे पहली रत्नप्रभा पृथिवी है उसके तीन भाग हैं−खर भाग, पंक भाग और अब्बहुल भाग । इन तीनों भागों का बाहल्य क्रमशः सोलह हजार, चौरासी हजार और अस्सी हजार योजन प्रमाण है ।9।
- इनमें से खर भाग नियम से सोलह भेदों से सहित है । ये सोलह भेद चित्रादिक सोलह पृथिवी रूप हैं । इनमें से चित्रा पृथिवी अनेक प्रकार की है ।10 । यहाँ पर अनेक प्रकार के वर्णों से युक्त महीतल, शिलातल, उपपाद, वालु, शक्कर, शीशा, चाँदी, सुवर्ण इनके उत्पत्तिस्थान, वज्र तथा अयस् (लोहा) ताँबा, त्रपु (रांगा), सस्यक (मणि विशेष), मनःशिला, हिंगुल (सिंगरफ), हरिताल, अंजन, प्रवाल (मूंगा) गोमध्यक (मणिविशेष) रुचक अंक (धातु विशेष), अभ्रपटल (धातुविशेष), अभ्रबालुका (लालरेत), स्फटिक मणि, जलकांतमणि, सूर्यकांतमणि, चंद्रप्रभमणि (चंद्रकांतमणि), वैडूर्यमणि, गेरु, चंदन, लोहितांक (लोहिताक्ष), वप्रक (मरकत) बकमणि (पुष्परोड़ा), मोचमणि (कदली वर्णाकार नीलमणि) और मसारगल्ल (मसृणपाषाणमणि विद्रमवर्ण) इत्यादिक विविध वर्ण वाली धातुएँ हैं । इसलिए इस पृथिवी का चित्रा इस नाम से वर्णन किया गया है ।11-14 । इस चित्रा पृथिवी की मोटाई 1 हजार योजन है ।
- इसके नीचे क्रम से चौदह अन्य पृथिवियाँ स्थित हैं ।15। वैडूर्य, लोहितांक (लोहिताक्ष), असारगल्ल (मसारकल्पा), गोमेदक, प्रवाल, ज्योतिरस, अंजन, अंजनमूल, अंक, स्फटिक, चंदन, वर्चगत (सर्वार्थ का), बहुल (बकुल) और शैल, ये उन उपर्युक्त चौदह पृथिवियों के नाम हैं । इनमें से प्रत्येक की मोटाई एक हजार योजन है ।16-17। इन पृथिवियों के नीचे एक पाषाण नाम की (सोलहवीं) पृथिवी है । जो रत्नशैल के समान है । इसकी मोटाई भी एक हजार योजन प्रमाण है । ये सब पृथिवियाँ वेत्रासन के सदृश स्थित हैं ।18। ( राजवार्तिक/3/1/8/160/19 ); ( त्रिलोकसार/146-148 ); (ज. पं./11/114-120) ।
अब्बहुल भाग में नरकों के पटल
नोट−इंद्रक व श्रेणीबद्ध−देखें लोक - 2 में चित्र सं. 11 2. प्रत्येक पटल के मध्य में इंद्रक बिल हैं । उनकी चारों दिशाओं व चारों विदिशाओं में श्रेणीबद्ध बिल हैं । आठों अंतर दिशाओं में प्रकीर्णक बिल हैं । सीमांतक नामक प्रथम पटल के प्रत्येक पटल की प्रत्येक दिशा में 49 और प्रत्येक विदिशा में 48 हैं । आगे के पटलों में उत्तरोत्तर एक एक हीन हैं ।
- खर पंक भाग में भवनवासियों के निवास−देखें भवन - 4 ।
पुराणकोष से
अधोलोक की प्रथमभूमि, रूढि नाम धर्मा । इसके तीन भाग है । खरभाग के चित्र आदि सोलह भेद है । खरभाग में असुरकुमारों को छोड़कर शेष नौ प्रकार के भवनवासी देव रहते हैं । इनमें नागकुमारों के चौरासी लाख, गरुडकुमारों के बहत्तर लाख, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, मेघकुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और विष्णु, कुमार इन छ: कुमारों के छिहत्तर लाख तथा वायुकुमारों के छियानवे लाख भवन हैं । ये भवन इस भाग में श्रेणी रूप से स्थित है तथा प्रत्येक में एक-एक चैत्यालय है इस खरभाग के नीचे पंकभाग मे असुरकुमारों के चौंसठ लाख भवन हैं । खरभाग में राक्षसों को छोड़कर शेष सात प्रकार के व्यंतर देव रहते हैं । पंकभाग मे राक्षसों का निवास है । यहाँ राक्षसों के सोलह हजार भवन है । अब्बहुल भाग में ऊपर नीचे एक-एक हजार योजन स्थान छोड़कर नारकियों के बिल है । इस पृथिवी के तेरह प्रस्तार और प्रस्तारों के तेरह इंद्रक बिल हैं । इंद्रक बिलों के नाम ये हैं― सीमांतक, नरक, रौरूक, भ्रांत, उदभ्रांत, असंभ्रांत, विभ्रांत, त्रस्त, त्रसित, वक्रांत, अवक्रांत और विक्रांत ।
सीमांतक-इंद्रक बिल की पूर्व-दिशा में कांक्ष, पश्चिम दिशा में महाकांक्ष, दक्षिणदिशा में पिपास और उत्तर दिशा में अतिपिपास ये चार महानरक है । इस पृथिवी के कुल तीस लाख बिल है जिनमें छ: लाख बिल संख्यात योजन और चौबीस लाख बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं । सीमंतक इंद्रक का विस्तार पैतालीस लाख योजन होता है । इसी प्रकार नरक इंद्रक का विस्तार चवालीस लाख आठ हजार तीन सौ तैंतीस और 1/3 योजन प्रमाण, रौरव, इंद्रक का तैंतालीस लाख, सोलह हजार, छ: सौ सड़सठ और 2/3 योजनप्रमाण, चौथे भ्रांत इंद्रक का बयालीस लाख पच्चीस हजार, उदभ्रांत इंद्रक का इकतालीस लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस और 1/3 योजन प्रमाण, संभ्रांत इंद्रक का चालीस लाख इकतालीस हजार छ: सौ छियासठ और 2/3 योजन प्रमाण, असंभ्रांत इंद्रक का उनतालीस लाख पचास हजार योजन, विभ्रांत इंद्रक का अड़तीस लाख अठावन हजार तीन सौ तैंतीस और 1/3 योजन प्रमाण, नौवें त्रस्त इंद्रक का सैंतीस लाख छियासठ हजार छ: सौ छियासठ और 2/3 योजन प्रमाण, त्रसित इंद्रक का छत्तीस लाख पचहत्तर हजार, वक्रांत इंद्रक का पैंतीस लाख तेरासी हजार तीन सौ तैंतीस योजन और 1/3 योजन प्रमाण तथा बारहवें अवक्रांत इंद्रक का विस्तार चौंतीस लाख इकानवें हजार छ: सौ छियासठ और 2/3 योजन प्रमाण तथा तेरहवें विक्रांत इंद्रक का विस्तार चौतीस लाख योजन होता है । इस पृथिवी के इंद्रक बिलों की मुटाई एक कोश, श्रेणीबद्ध बिलों की 1 1/3 कोश और प्रकीर्णक बिलों की 2 1/3 कोश प्रमाण है । इसका आकार वेत्रासन रूप होता है ।