अधिगम: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
(2 intermediate revisions by the same user not shown) | |||
Line 10: | Line 10: | ||
<p class="HindiText">= अधिगम और ज्ञान प्रमाण ये दोनों एकार्थवाची हैं।</p> | <p class="HindiText">= अधिगम और ज्ञान प्रमाण ये दोनों एकार्थवाची हैं।</p> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/6/43</span> <p class="HindiText">प्रमाण नय करि भया जो अपने स्वरूप का आकार ताकू अधिगम कहिये। | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/6/43</span> <p class="HindiText">प्रमाण नय करि भया जो अपने स्वरूप का आकार ताकू अधिगम कहिये। | ||
</p | </p></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> अधिगम सामान्य के भेद</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> अधिगम सामान्य के भेद</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 1/6</span><p class="SanskritText"> प्रमाणनयैरधिगमः। </p> | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 1/6</span><p class="SanskritText"> प्रमाणनयैरधिगमः। </p> | ||
Line 24: | Line 23: | ||
<p class="HindiText">स्वार्थाधिगम परार्थाधिगम</p> | <p class="HindiText">स्वार्थाधिगम परार्थाधिगम</p> | ||
<p class="HindiText">(ज्ञानात्मक) (शब्दात्मक)</p> | <p class="HindiText">(ज्ञानात्मक) (शब्दात्मक)</p> | ||
<p class="HindiText">प्रमाण नय प्रमाण नय</p | <p class="HindiText">प्रमाण नय प्रमाण नय</p></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> स्वार्थाधिगम</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> स्वार्थाधिगम</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/6/3</span> <p class="SanskritText">ज्ञानात्मकं स्वार्थम्। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/6/3</span> <p class="SanskritText">ज्ञानात्मकं स्वार्थम्। </p> | ||
Line 32: | Line 30: | ||
<p class="HindiText">= स्वाधिगम हेतु ज्ञानात्मक है जो प्रमाण और नय भेदों वाला है।</p> | <p class="HindiText">= स्वाधिगम हेतु ज्ञानात्मक है जो प्रमाण और नय भेदों वाला है।</p> | ||
<span class="GRef">सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 1/2</span> <p class="SanskritText">स्वार्थाधिगमो ज्ञानात्मको मतिश्रुत्यादिरूपः। </p> | <span class="GRef">सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 1/2</span> <p class="SanskritText">स्वार्थाधिगमो ज्ञानात्मको मतिश्रुत्यादिरूपः। </p> | ||
<p class="HindiText">= स्वार्थाधिगम ज्ञानात्मक है जो मति श्रुत आदि ज्ञान रूप है।</p | <p class="HindiText">= स्वार्थाधिगम ज्ञानात्मक है जो मति श्रुत आदि ज्ञान रूप है।</p></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> परार्थाधिगम</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> परार्थाधिगम</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/6/3</span> <p class="SanskritText">वचनात्मकं परार्थम्। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/6/3</span> <p class="SanskritText">वचनात्मकं परार्थम्। </p> | ||
Line 40: | Line 37: | ||
<p class="HindiText">= वचन पराधिगम हेतु हैं। वचनात्मक स्याद्वाद श्रुत के द्वारा जीवादिक की प्रत्येक पर्याय सप्तभंगी रूप से जानी जाती है।</p> | <p class="HindiText">= वचन पराधिगम हेतु हैं। वचनात्मक स्याद्वाद श्रुत के द्वारा जीवादिक की प्रत्येक पर्याय सप्तभंगी रूप से जानी जाती है।</p> | ||
<span class="GRef">सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 1/7 </span><p class="SanskritText">परार्थाधिगमः शब्दरूपः। स च द्विविधः-प्रमाणत्मको नयात्मकश्चेति।.....अयं द्विविधोऽपि भेदः सप्तधा प्रवर्तते, विधिप्रतिषेधप्राधान्यात्। इयमेव प्रमाणसप्तभंगी नयसप्तभंगी च कथ्यते। </p> | <span class="GRef">सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 1/7 </span><p class="SanskritText">परार्थाधिगमः शब्दरूपः। स च द्विविधः-प्रमाणत्मको नयात्मकश्चेति।.....अयं द्विविधोऽपि भेदः सप्तधा प्रवर्तते, विधिप्रतिषेधप्राधान्यात्। इयमेव प्रमाणसप्तभंगी नयसप्तभंगी च कथ्यते। </p> | ||
<p class="HindiText">= शब्दात्मक अर्थात् वचन रूप अधिगम को परार्थाधिगम कहते हैं। वह अधिगम प्रमाण और नय रूप है। पुनः विधि प्रतिषेध की प्रधानता से ये दोनों भेद सप्त भंग में विभक्त हैं। इसी को प्रमाण सप्तभंगी तथा नय सप्तभंगी कहते हैं।</p | <p class="HindiText">= शब्दात्मक अर्थात् वचन रूप अधिगम को परार्थाधिगम कहते हैं। वह अधिगम प्रमाण और नय रूप है। पुनः विधि प्रतिषेध की प्रधानता से ये दोनों भेद सप्त भंग में विभक्त हैं। इसी को प्रमाण सप्तभंगी तथा नय सप्तभंगी कहते हैं।</p></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="5" id="5"> निसर्गज सम्यग्दर्शन</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="5" id="5"> निसर्गज सम्यग्दर्शन</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/3/12</span> <p class="SanskritText">यद्बाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम्। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/3/12</span> <p class="SanskritText">यद्बाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम्। </p> | ||
Line 47: | Line 43: | ||
<p><span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/3,5/13/23)</span>।</p> | <p><span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/3,5/13/23)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/13/85/28 </span><p class="SanskritText">तत्र प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भव्यस्य दर्शनोहोपशमादौ सत्यंतरंगे हेतौ बहिरंगादपरोपदेशात्तत्त्वार्थज्ञानात्..... प्रजायमानं तत्त्वार्थश्रद्धानं निसर्गजम्......प्रत्येतव्यम्। </p> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/13/85/28 </span><p class="SanskritText">तत्र प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भव्यस्य दर्शनोहोपशमादौ सत्यंतरंगे हेतौ बहिरंगादपरोपदेशात्तत्त्वार्थज्ञानात्..... प्रजायमानं तत्त्वार्थश्रद्धानं निसर्गजम्......प्रत्येतव्यम्। </p> | ||
<p class="HindiText">= निकट सिद्धि वाले भव्य जीव के दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम आदिक अंतरंग हेतुओं के विद्यमान रहने पर और परोपदेश को छोड़कर शेष | <p class="HindiText">= निकट सिद्धि वाले भव्य जीव के दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम आदिक अंतरंग हेतुओं के विद्यमान रहने पर और परोपदेश को छोड़कर शेष ऋद्धि दर्शन, जिनबिंब दर्शन, वेदना आदि बहिरंग कारणों से पैदा हुए तत्त्वार्थ-ज्ञान से उत्पन्न हुआ तत्त्वार्थ श्रद्धान निसर्गज समझना चाहिए।</p></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="6" id="6"> अधिगमज सम्यग्दर्शन</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="6" id="6"> अधिगमज सम्यग्दर्शन</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/3/12</span> <p class="SanskritText">यत्परोपदेशपूर्वकं जीवाद्यधिगमनिमित्तं तदुत्तरम्। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/3/12</span> <p class="SanskritText">यत्परोपदेशपूर्वकं जीवाद्यधिगमनिमित्तं तदुत्तरम्। </p> | ||
Line 59: | Line 54: | ||
<p class="HindiText">= वह श्रद्धान प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण अर द्रव्यार्थिक ,पर्यायर्थिक नय अर नाम स्थापना द्रव्य भाव निक्षेप अर व्याकरणादिकरि साधित निरुक्ति अर निर्देश स्वामित्व आदि अनुयोग इत्यादि करि विशेष निर्णय रूप है लक्षण जाका ऐसा जो अधिगमज श्रद्धान हो है।</p> | <p class="HindiText">= वह श्रद्धान प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण अर द्रव्यार्थिक ,पर्यायर्थिक नय अर नाम स्थापना द्रव्य भाव निक्षेप अर व्याकरणादिकरि साधित निरुक्ति अर निर्देश स्वामित्व आदि अनुयोग इत्यादि करि विशेष निर्णय रूप है लक्षण जाका ऐसा जो अधिगमज श्रद्धान हो है।</p> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 93/118/28</span> <p class="SanskritText">परमार्थ विनिश्चयाधिगमशब्देन सम्यक्त्वं कथं भण्यत इति चेत्। परमोऽर्थः परमार्थः शुद्धबुद्धै कस्वभावः परमात्मा, परमार्थस्य विशेषणेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः परमार्थ निश्चयरूपोऽधिगमः। </p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 93/118/28</span> <p class="SanskritText">परमार्थ विनिश्चयाधिगमशब्देन सम्यक्त्वं कथं भण्यत इति चेत्। परमोऽर्थः परमार्थः शुद्धबुद्धै कस्वभावः परमात्मा, परमार्थस्य विशेषणेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः परमार्थ निश्चयरूपोऽधिगमः। </p> | ||
<p class="HindiText">= परमार्थ विनिश्चय अधिगम का अर्थ सम्यक्त्व है। सो कैसे?-परम अर्थ अर्थात् परमार्थ अर्थात् शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा। परमार्थ के विशेषण द्वारा संशयादि रहित निश्चय को परमार्थ निश्चयरूप अधिगम कहा गया है। </p | <p class="HindiText">= परमार्थ विनिश्चय अधिगम का अर्थ सम्यक्त्व है। सो कैसे?-परम अर्थ अर्थात् परमार्थ अर्थात् शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा। परमार्थ के विशेषण द्वारा संशयादि रहित निश्चय को परमार्थ निश्चयरूप अधिगम कहा गया है। </p></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="7" id="7"> निसर्गज व अधिगमज सम्यग्दर्शन में अंतर</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="7" id="7"> निसर्गज व अधिगमज सम्यग्दर्शन में अंतर</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./550/742/23</span> <p class="SanskritText">निसर्गजेऽर्थावबोधःस्यान्न वा। यदि स्यात्तदा तदप्यधिगमजमेव। यदि न स्यात्तदानवगततत्त्वः श्रद्दधीतेति। तन्न। उभयत्रांतरंगकारणे दर्शनमोहस्योपशमे क्षये क्षयोपशमे वा समाने च सत्याचार्याद्युपदेशेन जातमधिगमजं तद्विना जातं नैसर्गिकमिति भेदस्य सद्भावात्। </p> | <span class="GRef">गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./550/742/23</span> <p class="SanskritText">निसर्गजेऽर्थावबोधःस्यान्न वा। यदि स्यात्तदा तदप्यधिगमजमेव। यदि न स्यात्तदानवगततत्त्वः श्रद्दधीतेति। तन्न। उभयत्रांतरंगकारणे दर्शनमोहस्योपशमे क्षये क्षयोपशमे वा समाने च सत्याचार्याद्युपदेशेन जातमधिगमजं तद्विना जातं नैसर्गिकमिति भेदस्य सद्भावात्। </p> | ||
Line 68: | Line 62: | ||
<p class="HindiText">= जिस प्रकार शूद्र वेद के अर्थ का साक्षात् ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, किंतु ग्रंथांतरों को पढ़कर उसके ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। किसी-किसी जीव के तत्त्वार्थ का ज्ञान भी इसी तरह से होता है। ऐसे जीवों के गुरूपदेशादि के द्वारा साक्षात् तत्त्वबोध नहीं होता किंतु उनके ग्रंथों के अध्ययन आदि के द्वारा स्वयं तत्त्वबोध और तत्त्वरुचि उत्पन्न हो जाती है।</p> | <p class="HindiText">= जिस प्रकार शूद्र वेद के अर्थ का साक्षात् ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, किंतु ग्रंथांतरों को पढ़कर उसके ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। किसी-किसी जीव के तत्त्वार्थ का ज्ञान भी इसी तरह से होता है। ऐसे जीवों के गुरूपदेशादि के द्वारा साक्षात् तत्त्वबोध नहीं होता किंतु उनके ग्रंथों के अध्ययन आदि के द्वारा स्वयं तत्त्वबोध और तत्त्वरुचि उत्पन्न हो जाती है।</p> | ||
<span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 2/49/176</span> <p class="SanskritText">केनापि हेतुना मोहवैधुर्यात्कोऽपि रोचते। तत्त्वं हि चर्चानायस्तः कोऽपि च क्षोदयन्निधीः। </p> | <span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 2/49/176</span> <p class="SanskritText">केनापि हेतुना मोहवैधुर्यात्कोऽपि रोचते। तत्त्वं हि चर्चानायस्तः कोऽपि च क्षोदयन्निधीः। </p> | ||
<p class="HindiText">= जिनका मोह वेदना अभिभवादिकों में-से किसी भी निमित्त को पाकर दूर हो गया है, सम्यग्दर्शन को घातने वाली सात प्रकृतियों का बाह्य निमित्त वश जिनके उपशम क्षय या क्षयोपशम हो चुका है उनमें से कोई जीव तो ऐसे होते हैं कि जिनको बिना किसी चर्चा के विशेष प्रयास के ही तत्त्व में रुचि उत्पन्न हो जाती है और कोई ऐसे होते हैं कि जो कुछ अधिक प्रयास करने पर ही बाह्य निमित्त के अनुसार मोह के दूर हो जाने पर तत्त्व रुचि को प्राप्त होते हैं। अल्प और अधिक प्रयास का ही निसर्ग और अधिगमज सम्यग्दर्शन में अंतर है।</p | <p class="HindiText">= जिनका मोह वेदना अभिभवादिकों में-से किसी भी निमित्त को पाकर दूर हो गया है, सम्यग्दर्शन को घातने वाली सात प्रकृतियों का बाह्य निमित्त वश जिनके उपशम क्षय या क्षयोपशम हो चुका है उनमें से कोई जीव तो ऐसे होते हैं कि जिनको बिना किसी चर्चा के विशेष प्रयास के ही तत्त्व में रुचि उत्पन्न हो जाती है और कोई ऐसे होते हैं कि जो कुछ अधिक प्रयास करने पर ही बाह्य निमित्त के अनुसार मोह के दूर हो जाने पर तत्त्व रुचि को प्राप्त होते हैं। अल्प और अधिक प्रयास का ही निसर्ग और अधिगमज सम्यग्दर्शन में अंतर है।</p></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="8" id="8"> सर्व सम्यग्दर्शन साक्षात् या परंपरा से अधिगमज ही होते हैं</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="8" id="8"> सर्व सम्यग्दर्शन साक्षात् या परंपरा से अधिगमज ही होते हैं</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/4/67/26</span> <p class="SanskritText">न हि निसर्गः स्वभावी येन ततः सम्यग्दर्शन मुत्पाद्यमानुपलब्धतत्त्वार्थगोचरतया रसायनवन्नोपपद्येत। </p> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/4/67/26</span> <p class="SanskritText">न हि निसर्गः स्वभावी येन ततः सम्यग्दर्शन मुत्पाद्यमानुपलब्धतत्त्वार्थगोचरतया रसायनवन्नोपपद्येत। </p> | ||
Line 84: | Line 77: | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 93/119</span> <p class="SanskritText">परमार्थतोऽर्थावबोधो यस्मात्सम्यक्त्वात्तत् परमार्थविनिश्चयाधिगमम्। </p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 93/119</span> <p class="SanskritText">परमार्थतोऽर्थावबोधो यस्मात्सम्यक्त्वात्तत् परमार्थविनिश्चयाधिगमम्। </p> | ||
<p class="HindiText">= क्योंकि परमार्थ से सम्यक्त्व से ही अर्थावबोध होता है, इसलिए वह सम्यक्त्व ही परमार्थ विनिश्चयाधिगम है।</p> | <p class="HindiText">= क्योंकि परमार्थ से सम्यक्त्व से ही अर्थावबोध होता है, इसलिए वह सम्यक्त्व ही परमार्थ विनिश्चयाधिगम है।</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 1/3/28-29 <p class="HindiText">सम्यग्दर्शन के उपजावने योग्य बाह्य परोपदेश पहले होय है, तिस तैं सम्यग्दर्शन उपजै है। पीछे सम्यग्दर्शन होय तब सम्यग्ज्ञान नाम पावै। * सर्वथा नैसर्गिक सम्यक्त्व असंभव है - देखें [[ सम्यग्दर्शन#III.2.1 | सम्यग्दर्शन - III.2.1]]।</p | <p>राजवार्तिक अध्याय 1/3/28-29 <p class="HindiText">सम्यग्दर्शन के उपजावने योग्य बाह्य परोपदेश पहले होय है, तिस तैं सम्यग्दर्शन उपजै है। पीछे सम्यग्दर्शन होय तब सम्यग्ज्ञान नाम पावै। * सर्वथा नैसर्गिक सम्यक्त्व असंभव है - देखें [[ सम्यग्दर्शन#III.2.1 | सम्यग्दर्शन - III.2.1]]।</p></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="9" id="9"> क्षायिक सम्यक्त्व साक्षात् रूप से अधिगमज व निसर्गज दोनों होते हैं</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="9" id="9"> क्षायिक सम्यक्त्व साक्षात् रूप से अधिगमज व निसर्गज दोनों होते हैं</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/2/20/64 भाषा</span><p class="HindiText"> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/2/20/64 भाषा</span><p class="HindiText"> किन्हीं कर्मभूमिया द्रव्य-मनुष्यों को केवली-श्रुतकेवली के निकट, उपदेश से और उपदेश के बिना भी क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है।</p></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="10" id="10"> पाँचों ज्ञानों में निसर्गज व अधिगमजपना</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="10" id="10"> पाँचों ज्ञानों में निसर्गज व अधिगमजपना</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/3/28 </span><p class="HindiText">केवलज्ञान श्रुतज्ञान-पूर्वक होता है तातैं निसर्गपना नाहीं। श्रुतज्ञान परोपदेश-पूर्वक ही होता है। स्वयंबुद्ध के श्रुतज्ञान हो है सो जन्मांतर के उपदेश-पूर्वक है। (तातैं निसर्गज नाहीं) मति, अवधि, मनःपर्ययज्ञान निसर्गज ही हैं।</p | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/3/28 </span><p class="HindiText">केवलज्ञान श्रुतज्ञान-पूर्वक होता है तातैं निसर्गपना नाहीं। श्रुतज्ञान परोपदेश-पूर्वक ही होता है। स्वयंबुद्ध के श्रुतज्ञान हो है सो जन्मांतर के उपदेश-पूर्वक है। (तातैं निसर्गज नाहीं) मति, अवधि, मनःपर्ययज्ञान निसर्गज ही हैं।</p></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="11" id="11"> चारित्र तो अधिगमज ही होता है</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="11" id="11"> चारित्र तो अधिगमज ही होता है</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/2/28/64</span><p class="SanskritText"> चारित्रं पुनरधिगमजमेव तस्य श्रुतपूर्वकत्वात्तद्विशेषस्यापि निसर्गजत्वाभावात् द्विविधहेतुकत्वं न संभवति। </p> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/2/28/64</span><p class="SanskritText"> चारित्रं पुनरधिगमजमेव तस्य श्रुतपूर्वकत्वात्तद्विशेषस्यापि निसर्गजत्वाभावात् द्विविधहेतुकत्वं न संभवति। </p> |
Latest revision as of 19:29, 15 February 2024
मौखिक उपदेशों को सुनकर या लिखित उपदेशों को पढ़कर जीव जो भी गुण-दोष उत्पन्न करता है वे अधिगमज कहलाते हैं, क्योंकि वे अधिगम पूर्वक हुए हैं। वे ही गुण या दोष यदि किन्हीं जीवों में स्वाभाविक होते हैं, तो उन्हें निसर्गज कहते हैं। सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तो दो प्रकार का होता है पर चारित्र केवल अधिगमज ही होता है क्योंकि उसमें अवश्य ही किसी के उपदेश की या अनुसरण की आवश्यकता पड़ती है।
- अधिगम सामान्य
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/3/12अधिगमोऽर्थावबोधः।
= अधिगम का अर्थ पदार्थ का ज्ञान है।
राजवार्तिक अध्याय 1/3,..../22/14अधिपूर्वाद् गमेर्भावसाधनोऽच् अधिगमनमधिगमः।
= `अधि' उपसर्ग पूर्वक `गम्' धातु में भाव साधन अच् प्रत्यय करने पर अधिगम अर्थात् पदार्थ का ज्ञान करना सो अधिगम है।
धवला पुस्तक 3/1,2,5/39/1अधिगमो णाणपमाणमिदि एगट्ठो।
= अधिगम और ज्ञान प्रमाण ये दोनों एकार्थवाची हैं।
राजवार्तिक अध्याय 1/6/43प्रमाण नय करि भया जो अपने स्वरूप का आकार ताकू अधिगम कहिये।
- अधिगम सामान्य के भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 1/6प्रमाणनयैरधिगमः।
= जीवादि पदार्थों का ज्ञान प्रमाण और नयों द्वारा होता है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/6/3जीवादीनां तत्त्वं प्रमाणाभ्यां नयैश्चाधिगम्यते। ....तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च।
= जीवादि पदार्थों का स्वरूप प्रमाण और नयों के द्वारा जाना जाता है। प्रमाण के दो भेद हैं - स्वार्थ और परार्थ।
(राजवार्तिक अध्याय 1/6,4/33/11)।
सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 1/6/तत्राधिगमो द्विविधः स्वार्थः परार्थश्चेति।....स च द्विविधः प्रमाणात्मको नयात्मकश्चेति।
= अधिगम दो प्रकार का है - स्वार्थ और परार्थ। और वह अधिगम प्रमाण-रूप तथा नय-रूप इन दो भागों में विभक्त है।
(Chitra-5)
अधिगम
स्वार्थाधिगम परार्थाधिगम
(ज्ञानात्मक) (शब्दात्मक)
प्रमाण नय प्रमाण नय
- स्वार्थाधिगम
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/6/3ज्ञानात्मकं स्वार्थम्।
= स्वार्थ अधिगम ज्ञान स्वरूप है।
राजवार्तिक अध्याय 1/6,4/33/12स्वाधिगमहेतुर्ज्ञानात्मकः प्रमाणनयविकल्पः।
= स्वाधिगम हेतु ज्ञानात्मक है जो प्रमाण और नय भेदों वाला है।
सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 1/2स्वार्थाधिगमो ज्ञानात्मको मतिश्रुत्यादिरूपः।
= स्वार्थाधिगम ज्ञानात्मक है जो मति श्रुत आदि ज्ञान रूप है।
- परार्थाधिगम
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/6/3वचनात्मकं परार्थम्।
= परार्थ अधिगम वचन रूप है।
राजवार्तिक अध्याय 1/6,4/33/12पराधिगमहेतुर्वचनात्सकः। तेन श्रुताख्येन प्रमाणेन स्याद्वादनयसंस्कृतेन प्रतिपर्यायं सप्तभंगीमंतो जीवादयः पदार्था अधिगमयितव्या।
= वचन पराधिगम हेतु हैं। वचनात्मक स्याद्वाद श्रुत के द्वारा जीवादिक की प्रत्येक पर्याय सप्तभंगी रूप से जानी जाती है।
सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 1/7परार्थाधिगमः शब्दरूपः। स च द्विविधः-प्रमाणत्मको नयात्मकश्चेति।.....अयं द्विविधोऽपि भेदः सप्तधा प्रवर्तते, विधिप्रतिषेधप्राधान्यात्। इयमेव प्रमाणसप्तभंगी नयसप्तभंगी च कथ्यते।
= शब्दात्मक अर्थात् वचन रूप अधिगम को परार्थाधिगम कहते हैं। वह अधिगम प्रमाण और नय रूप है। पुनः विधि प्रतिषेध की प्रधानता से ये दोनों भेद सप्त भंग में विभक्त हैं। इसी को प्रमाण सप्तभंगी तथा नय सप्तभंगी कहते हैं।
- निसर्गज सम्यग्दर्शन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/3/12यद्बाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम्।
= जो बाह्य उपदेश के बिना होता है, वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है।
राजवार्तिक अध्याय 1/3,5/13/23)।
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/13/85/28तत्र प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भव्यस्य दर्शनोहोपशमादौ सत्यंतरंगे हेतौ बहिरंगादपरोपदेशात्तत्त्वार्थज्ञानात्..... प्रजायमानं तत्त्वार्थश्रद्धानं निसर्गजम्......प्रत्येतव्यम्।
= निकट सिद्धि वाले भव्य जीव के दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम आदिक अंतरंग हेतुओं के विद्यमान रहने पर और परोपदेश को छोड़कर शेष ऋद्धि दर्शन, जिनबिंब दर्शन, वेदना आदि बहिरंग कारणों से पैदा हुए तत्त्वार्थ-ज्ञान से उत्पन्न हुआ तत्त्वार्थ श्रद्धान निसर्गज समझना चाहिए।
- अधिगमज सम्यग्दर्शन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /1/3/12यत्परोपदेशपूर्वकं जीवाद्यधिगमनिमित्तं तदुत्तरम्।
= जो बाह्य उपदेश पूर्वक जीवादि पदार्थों के ज्ञान के निमित्त से होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है।
(राजवार्तिक अध्याय 1/3,5/14/23)।
धवला पुस्तक 1/1,1,144/गाथा 212/395छप्पंच-णव-विहाणं अत्थाणं जिणवरोवइठ्ठाणं। आणाए अहिगमेण व सद्दहणं होइ सम्मत्तं।
= जिनेंद्र देव के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नव पदार्थों का आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं।
(गोम्मट्टसार जीवकांड/मूल 561/1006)।
गोम्मट्टसार जीवकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 561/13तच्छ्रद्धानं....... अधिगमेन प्रमाणनयनिक्षेपनिरुक्त्यनुयोगद्वारैः विशेषनिर्णयलक्षणेन भवति।
= वह श्रद्धान प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण अर द्रव्यार्थिक ,पर्यायर्थिक नय अर नाम स्थापना द्रव्य भाव निक्षेप अर व्याकरणादिकरि साधित निरुक्ति अर निर्देश स्वामित्व आदि अनुयोग इत्यादि करि विशेष निर्णय रूप है लक्षण जाका ऐसा जो अधिगमज श्रद्धान हो है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 93/118/28परमार्थ विनिश्चयाधिगमशब्देन सम्यक्त्वं कथं भण्यत इति चेत्। परमोऽर्थः परमार्थः शुद्धबुद्धै कस्वभावः परमात्मा, परमार्थस्य विशेषणेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः परमार्थ निश्चयरूपोऽधिगमः।
= परमार्थ विनिश्चय अधिगम का अर्थ सम्यक्त्व है। सो कैसे?-परम अर्थ अर्थात् परमार्थ अर्थात् शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा। परमार्थ के विशेषण द्वारा संशयादि रहित निश्चय को परमार्थ निश्चयरूप अधिगम कहा गया है।
- निसर्गज व अधिगमज सम्यग्दर्शन में अंतर
गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./550/742/23निसर्गजेऽर्थावबोधःस्यान्न वा। यदि स्यात्तदा तदप्यधिगमजमेव। यदि न स्यात्तदानवगततत्त्वः श्रद्दधीतेति। तन्न। उभयत्रांतरंगकारणे दर्शनमोहस्योपशमे क्षये क्षयोपशमे वा समाने च सत्याचार्याद्युपदेशेन जातमधिगमजं तद्विना जातं नैसर्गिकमिति भेदस्य सद्भावात्।
= प्रश्न - जो निसर्ग विषैं पदार्थनि का अवबोध है कि नाहिं, जौ है तो वह भी अधिगमज ही भया अर नाहीं है तो तत्त्वज्ञान बिना सम्यक्त्व कैसे नाम पाया? =
अनगार धर्मामृत अधिकार 2/49/176 पर उद्धृत
उत्तर - दोउनिविषैं अंतरंग कारण दर्शनमोह का उपशम, क्षय, क्षयोपशम की समानता है। ताकौ होतैं तहाँ आचार्यादिक का उपदेश करि तत्त्वज्ञान होय सो अधिगम है। तीहिं विना होइ सो निसर्गज है। यह दोनों में अंतर है।"यथा शूद्रस्य वेदार्थे शास्त्रांतरसमीक्षणात्। स्वयमुत्पद्यते ज्ञानं तत्त्वार्थे कस्यचित्तथा।"
= जिस प्रकार शूद्र वेद के अर्थ का साक्षात् ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, किंतु ग्रंथांतरों को पढ़कर उसके ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। किसी-किसी जीव के तत्त्वार्थ का ज्ञान भी इसी तरह से होता है। ऐसे जीवों के गुरूपदेशादि के द्वारा साक्षात् तत्त्वबोध नहीं होता किंतु उनके ग्रंथों के अध्ययन आदि के द्वारा स्वयं तत्त्वबोध और तत्त्वरुचि उत्पन्न हो जाती है।
अनगार धर्मामृत अधिकार 2/49/176केनापि हेतुना मोहवैधुर्यात्कोऽपि रोचते। तत्त्वं हि चर्चानायस्तः कोऽपि च क्षोदयन्निधीः।
= जिनका मोह वेदना अभिभवादिकों में-से किसी भी निमित्त को पाकर दूर हो गया है, सम्यग्दर्शन को घातने वाली सात प्रकृतियों का बाह्य निमित्त वश जिनके उपशम क्षय या क्षयोपशम हो चुका है उनमें से कोई जीव तो ऐसे होते हैं कि जिनको बिना किसी चर्चा के विशेष प्रयास के ही तत्त्व में रुचि उत्पन्न हो जाती है और कोई ऐसे होते हैं कि जो कुछ अधिक प्रयास करने पर ही बाह्य निमित्त के अनुसार मोह के दूर हो जाने पर तत्त्व रुचि को प्राप्त होते हैं। अल्प और अधिक प्रयास का ही निसर्ग और अधिगमज सम्यग्दर्शन में अंतर है।
- सर्व सम्यग्दर्शन साक्षात् या परंपरा से अधिगमज ही होते हैं
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/4/67/26न हि निसर्गः स्वभावी येन ततः सम्यग्दर्शन मुत्पाद्यमानुपलब्धतत्त्वार्थगोचरतया रसायनवन्नोपपद्येत।
= निसर्ग का अर्थ स्वभाव नहीं है जिससे कि उस स्वभाव से ही उत्पन्न हो रहा सत्ता सम्यग्दर्शन नहीं जाने हुए तत्त्वार्थों को विषय करने की अपेक्षा से रसायन के समान सम्यग्दर्शन ही न बन सके, अर्थात् रसायन के तत्त्वों को न समझ करके क्रिया करने वाले पुरुष के जैसे रसायन की सिद्धि नहीं हो पाती है।
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/2/63/13स्वयंबुद्धश्रुतज्ञानमपरोपदेशमिति चेन्न, तस्य जंमांतरोपदेशपूर्वकत्वात् तज्जन्मापेक्षया स्वयंबुद्धत्वस्याविरोधात्।
= प्रश्न - जो मुनिमहाराज स्वयंबुद्ध हैं अर्थात् अपने आप ही पूर्ण श्रुतज्ञान को पैदा कर लिया है उन मुनियों का श्रुतज्ञान तो परोपदेश की अपेक्षा नहीं रहता, अतः उसको निसर्ग से जन्य सम्यग्ज्ञान कह देना चाहिए।
( राजवार्तिक हिंदी /1/3/28 )।
उत्तर = ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उन प्रत्येक बुद्ध (स्वयंबुद्ध) मुनियों के भी इस जन्म के पूर्व के दूसरे जन्मों में जाने हुए आप्त उपदेश को कारण मानकर ही इस जन्म में पूर्ण श्रुतज्ञान हो सका है। इस जन्म की अपेक्षा से उनको स्वयंबुद्ध होने में कोई विरोध नहीं है।
धवला पुस्तक 6/1,9-9,34/431/1जाइस्सरण-जिणबिंबदंसणेहि विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो।
= जातिस्मरण और जिनबिंब दर्शन के बिना उत्पन्न होने वाला नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व असंभव है।
लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा 6/4चिरातीतकाले उपदेशितपदार्थधारणलाभो वास देशनालब्धिर्भवति। तुशब्देनोपदेशकररहितेषु नारकादिभवेषु पूर्वभवश्रुतधारिततत्त्वार्थस्य संस्कारबलात् सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति, इति सूच्यते।
= अथवा लंबे समय पहले तत्त्वों की प्राप्ति देशना लब्धि है। तु शब्द करि नारकादि विषैं तहाँ उपदेश देने वाला नाहीं, तहाँ पूर्व भवविषैं धार् या हुवा तत्त्वार्थ के संस्कार बल तैं सम्यग्दर्शन की प्राप्ति जाननी।
( मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार 7/383/8)।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 93/119परमार्थतोऽर्थावबोधो यस्मात्सम्यक्त्वात्तत् परमार्थविनिश्चयाधिगमम्।
= क्योंकि परमार्थ से सम्यक्त्व से ही अर्थावबोध होता है, इसलिए वह सम्यक्त्व ही परमार्थ विनिश्चयाधिगम है।
राजवार्तिक अध्याय 1/3/28-29
सम्यग्दर्शन के उपजावने योग्य बाह्य परोपदेश पहले होय है, तिस तैं सम्यग्दर्शन उपजै है। पीछे सम्यग्दर्शन होय तब सम्यग्ज्ञान नाम पावै। * सर्वथा नैसर्गिक सम्यक्त्व असंभव है - देखें सम्यग्दर्शन - III.2.1।
- क्षायिक सम्यक्त्व साक्षात् रूप से अधिगमज व निसर्गज दोनों होते हैं
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/2/20/64 भाषाकिन्हीं कर्मभूमिया द्रव्य-मनुष्यों को केवली-श्रुतकेवली के निकट, उपदेश से और उपदेश के बिना भी क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है।
- पाँचों ज्ञानों में निसर्गज व अधिगमजपना
राजवार्तिक अध्याय 1/3/28केवलज्ञान श्रुतज्ञान-पूर्वक होता है तातैं निसर्गपना नाहीं। श्रुतज्ञान परोपदेश-पूर्वक ही होता है। स्वयंबुद्ध के श्रुतज्ञान हो है सो जन्मांतर के उपदेश-पूर्वक है। (तातैं निसर्गज नाहीं) मति, अवधि, मनःपर्ययज्ञान निसर्गज ही हैं।
- चारित्र तो अधिगमज ही होता है
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/3/2/28/64चारित्रं पुनरधिगमजमेव तस्य श्रुतपूर्वकत्वात्तद्विशेषस्यापि निसर्गजत्वाभावात् द्विविधहेतुकत्वं न संभवति।
= चारित्र तो अधिगम से ही जन्य है। निसर्ग (परोपदेश के बिना अन्य कारण समूह) से उत्पन्न नहीं होता है। क्योंकि प्रथम ही श्रुतज्ञान से जीव आदि तत्त्वों का निर्णय कर चारित्र का पालन किया जाता है, अतः श्रुतज्ञान-पूर्वक ही चारित्र है। इसके विशेष अर्थात् सामायिक, परिहारविशुद्धि आदि भी निसर्ग से उत्पन्न नहीं होते। अतः चारित्र-निसर्ग व अधिगम दोनों प्रकार से नहीं होता (अपितु अधिगम से ही होता है।)
राजवार्तिक अध्याय 1/3/28
चारित्र है सो अधिगम ही है तातैं श्रुतज्ञानपूर्वक ही हैं।