हीयमान: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि 1/22/127/9 </span><p class="SanskritText">कश्चिदवधिर्भास्करप्रकाशवद्गच्छंतमनुगच्छति। कश्चिन्नानुगच्छति तत्रैवानिपतति उन्मुखप्रश्नादेषिपुरुषवचनवत्। अपरोऽवधिः अरणिनिर्मथनोत्पंनशुष्कपर्णोपचीयमानेंधननिचयसमिद्धपावकवत्सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धपरिणामसंनिधानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते आ असंख्येयलोकेभ्यः। अपरोऽवधिपरिच्छिंनोपादानसंतत्यग्निशिखावत्सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेशपरिणामवृद्धियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो हीयते आ अंगुलस्यासंख्येयभागात्। इतरोऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणावस्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवावतिष्ठते, न हीयते नापि वर्धते लिंगवत् आ भवक्षयादाकेवलज्ञानोत्पत्तेर्वा। अन्योऽवधि सम्यग्दर्शनादिगुणवृद्धिहानियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते यादनेन वर्धितव्यं हीयते च यावदनेनहातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोर्मिवत्। एवं षड्विधोऽवधिर्भवति। </p> | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि 1/22/127/9 </span><p class="SanskritText">कश्चिदवधिर्भास्करप्रकाशवद्गच्छंतमनुगच्छति। कश्चिन्नानुगच्छति तत्रैवानिपतति उन्मुखप्रश्नादेषिपुरुषवचनवत्। अपरोऽवधिः अरणिनिर्मथनोत्पंनशुष्कपर्णोपचीयमानेंधननिचयसमिद्धपावकवत्सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धपरिणामसंनिधानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते आ असंख्येयलोकेभ्यः। अपरोऽवधिपरिच्छिंनोपादानसंतत्यग्निशिखावत्सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेशपरिणामवृद्धियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो हीयते आ अंगुलस्यासंख्येयभागात्। इतरोऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणावस्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवावतिष्ठते, न हीयते नापि वर्धते लिंगवत् आ भवक्षयादाकेवलज्ञानोत्पत्तेर्वा। अन्योऽवधि सम्यग्दर्शनादिगुणवृद्धिहानियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते यादनेन वर्धितव्यं हीयते च यावदनेनहातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोर्मिवत्। एवं षड्विधोऽवधिर्भवति। </p> | ||
<p class="HindiText">= 1. कोई अवधिज्ञान, जैसे सूर्य का प्रकाश उसके साथ जाता है, वैसे अपने स्वामी का अनुसरण करता है। उसे ``आनुगामी'' कहते हैं। (विशेष देखो नीचे) 2. कोई अवधिज्ञान अनुसरण नहीं करता. किंतु जैसे विमुख हुए पुरुष उसे ग्रहण नहीं करता है, वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहीं पर छूट जाता है। (उसे अनुगामी कहते हैं। विशेष देखो आगे) 3. कोई अवधि ज्ञान जंगल के निर्मंथन से उत्पन्न हुई और सूखे पत्तों से उपचीयमान ईंधन के समुदाय वृद्धि से प्राप्त हुई अग्नि के समान सम्यग्दर्शनादि गुणों की विशुद्धि रुप परिणामों के सन्निधान वश जितने परिणाम में उत्पन्न होता है, उससे (आगे) असंख्यातलोक जानने की योग्यता होने तक बढ़ता जाता है। (वह ``वर्द्धमान'' है)। 4. कोई अवधिज्ञान परिमित उपादान संततिवाली अग्निशिखाके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी हानिसे हुए संक्लेश परिणामोंके बढ़ने से जितने परिणाम में उत्पन्न होता है उससे (लेकर) मात्र अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जानने की योग्यता होने तक घटता चला जाता है। (उसे <strong>``हीयमान''</strong> कहते हैं)। 5. कोई अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणों के समान रूप से स्थिर रहने के कारण जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उतना ही बना रहता है। पर्याय के नाश होने तक या केवलज्ञान के उत्पन्न होने तक शरीर में स्थिर मस्सा आदि चिह्नोंवत् न घटता है न बढ़ता है उसे ``अवस्थित'' कहते हैं। 6. कोई अवधिज्ञान वायु के वेग से प्रेरित जल की तरंगो के समान सम्यग्दर्शनादि गुणों की कभी वृद्धि और कभी हानि होने से जितना परिमाण में उत्पन्न होता है, उससे बढ़ता है जहाँ तक उसे बढ़ना चाहिये, और घटता है जहाँ तक उसे घटना चाहिये उसे ``अनवस्थित'' कहते हैं। इस प्रकार अवधिज्ञान छः प्रकार का है।</p> | <p class="HindiText">= 1. कोई अवधिज्ञान, जैसे सूर्य का प्रकाश उसके साथ जाता है, वैसे अपने स्वामी का अनुसरण करता है। उसे ``आनुगामी'' कहते हैं। (विशेष देखो नीचे) 2. कोई अवधिज्ञान अनुसरण नहीं करता. किंतु जैसे विमुख हुए पुरुष उसे ग्रहण नहीं करता है, वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहीं पर छूट जाता है। (उसे अनुगामी कहते हैं। विशेष देखो आगे) 3. कोई अवधि ज्ञान जंगल के निर्मंथन से उत्पन्न हुई और सूखे पत्तों से उपचीयमान ईंधन के समुदाय वृद्धि से प्राप्त हुई अग्नि के समान सम्यग्दर्शनादि गुणों की विशुद्धि रुप परिणामों के सन्निधान वश जितने परिणाम में उत्पन्न होता है, उससे (आगे) असंख्यातलोक जानने की योग्यता होने तक बढ़ता जाता है। (वह ``वर्द्धमान'' है)। 4. कोई अवधिज्ञान परिमित उपादान संततिवाली अग्निशिखाके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी हानिसे हुए संक्लेश परिणामोंके बढ़ने से जितने परिणाम में उत्पन्न होता है उससे (लेकर) मात्र अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जानने की योग्यता होने तक घटता चला जाता है। (उसे <strong>``हीयमान''</strong> कहते हैं)। 5. कोई अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणों के समान रूप से स्थिर रहने के कारण जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उतना ही बना रहता है। पर्याय के नाश होने तक या केवलज्ञान के उत्पन्न होने तक शरीर में स्थिर मस्सा आदि चिह्नोंवत् न घटता है न बढ़ता है उसे ``अवस्थित'' कहते हैं। 6. कोई अवधिज्ञान वायु के वेग से प्रेरित जल की तरंगो के समान सम्यग्दर्शनादि गुणों की कभी वृद्धि और कभी हानि होने से जितना परिमाण में उत्पन्न होता है, उससे बढ़ता है जहाँ तक उसे बढ़ना चाहिये, और घटता है जहाँ तक उसे घटना चाहिये उसे ``अनवस्थित'' कहते हैं। इस प्रकार अवधिज्ञान छः प्रकार का है।</p><br> | ||
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Latest revision as of 20:05, 16 February 2024
षट्खंडागम 13/5,5/सूत्र 56/292
तं च अणेयविहं देसोही परमोही सव्वोही हीयमाणयं वड्ढमाणयं अवट्ठिदं अणवट्ठिदं अणुगामी अणणुगामी सप्पडिवादोअप्पडिवादो एयक्खेतमणेयक्खेत ॥56॥
= वह (अवधिज्ञान) अनेक प्रकार है - देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हीयमान, वर्द्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एक क्षेत्रावदि और अनेक क्षेत्रावधि।
सर्वार्थसिद्धि 1/22/127/9
कश्चिदवधिर्भास्करप्रकाशवद्गच्छंतमनुगच्छति। कश्चिन्नानुगच्छति तत्रैवानिपतति उन्मुखप्रश्नादेषिपुरुषवचनवत्। अपरोऽवधिः अरणिनिर्मथनोत्पंनशुष्कपर्णोपचीयमानेंधननिचयसमिद्धपावकवत्सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धपरिणामसंनिधानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते आ असंख्येयलोकेभ्यः। अपरोऽवधिपरिच्छिंनोपादानसंतत्यग्निशिखावत्सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेशपरिणामवृद्धियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो हीयते आ अंगुलस्यासंख्येयभागात्। इतरोऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणावस्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवावतिष्ठते, न हीयते नापि वर्धते लिंगवत् आ भवक्षयादाकेवलज्ञानोत्पत्तेर्वा। अन्योऽवधि सम्यग्दर्शनादिगुणवृद्धिहानियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते यादनेन वर्धितव्यं हीयते च यावदनेनहातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोर्मिवत्। एवं षड्विधोऽवधिर्भवति।
= 1. कोई अवधिज्ञान, जैसे सूर्य का प्रकाश उसके साथ जाता है, वैसे अपने स्वामी का अनुसरण करता है। उसे ``आनुगामी कहते हैं। (विशेष देखो नीचे) 2. कोई अवधिज्ञान अनुसरण नहीं करता. किंतु जैसे विमुख हुए पुरुष उसे ग्रहण नहीं करता है, वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहीं पर छूट जाता है। (उसे अनुगामी कहते हैं। विशेष देखो आगे) 3. कोई अवधि ज्ञान जंगल के निर्मंथन से उत्पन्न हुई और सूखे पत्तों से उपचीयमान ईंधन के समुदाय वृद्धि से प्राप्त हुई अग्नि के समान सम्यग्दर्शनादि गुणों की विशुद्धि रुप परिणामों के सन्निधान वश जितने परिणाम में उत्पन्न होता है, उससे (आगे) असंख्यातलोक जानने की योग्यता होने तक बढ़ता जाता है। (वह ``वर्द्धमान है)। 4. कोई अवधिज्ञान परिमित उपादान संततिवाली अग्निशिखाके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी हानिसे हुए संक्लेश परिणामोंके बढ़ने से जितने परिणाम में उत्पन्न होता है उससे (लेकर) मात्र अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जानने की योग्यता होने तक घटता चला जाता है। (उसे ``हीयमान कहते हैं)। 5. कोई अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणों के समान रूप से स्थिर रहने के कारण जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उतना ही बना रहता है। पर्याय के नाश होने तक या केवलज्ञान के उत्पन्न होने तक शरीर में स्थिर मस्सा आदि चिह्नोंवत् न घटता है न बढ़ता है उसे ``अवस्थित कहते हैं। 6. कोई अवधिज्ञान वायु के वेग से प्रेरित जल की तरंगो के समान सम्यग्दर्शनादि गुणों की कभी वृद्धि और कभी हानि होने से जितना परिमाण में उत्पन्न होता है, उससे बढ़ता है जहाँ तक उसे बढ़ना चाहिये, और घटता है जहाँ तक उसे घटना चाहिये उसे ``अनवस्थित कहते हैं। इस प्रकार अवधिज्ञान छः प्रकार का है।
अवधिज्ञान के बारे में विस्तार से जानने के लिये देखें अवधिज्ञान ।