सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 5: Difference between revisions
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<div class="G_Start_Sans" id="21S">21. एवमेषामुद्दिष्टानां सम्यग्दर्शनादीनां जीवादीनां च संव्यवहारविशेषव्यभिचारनिवृत्त्यर्थमाह –</div> | <div class="G_Start_Sans" id="21S">21. एवमेषामुद्दिष्टानां सम्यग्दर्शनादीनां जीवादीनां च संव्यवहारविशेषव्यभिचारनिवृत्त्यर्थमाह –</div> | ||
<div class="G_Start_Hindi" id="21H">21. इस प्रकार पहले जो सम्यग्दर्शन आदि और जीवादि पदार्थ कहे हैं उनका शब्द प्रयोग करते समय विवक्षाभेदसे जो गड़बड़ी होना सम्भव है उसको दूर करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं | <div class="G_Start_Hindi" id="21H">21. इस प्रकार पहले जो सम्यग्दर्शन आदि और जीवादि पदार्थ कहे हैं उनका शब्द प्रयोग करते समय विवक्षाभेदसे जो गड़बड़ी होना सम्भव है उसको दूर करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –</div> | ||
<div class="G_Gatha_Sans" id="1.5">नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यास:।।5।। </div> | <div class="G_Gatha_Sans" id="1.5">नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यास:।।5।। </div> | ||
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<div class="G_HindiText">विशेषार्थ – नि उपसर्गपूर्वक क्षिप् धातुसे निक्षेप शब्द बना है। निक्षेपका अर्थ रखना है। न्यास शब्दका भी यही अर्थ है। आशय यह है कि एक-एक शब्दका लोकमें और शास्त्रमें प्रयोजन के अनुसार अनेक अर्थोंमें प्रयोग किया जाता है। यह प्रयोग कहाँ किस अर्थमें किया गया है इस बातको बतलाना ही निक्षेप विधिका काम है। यों तो आवश्यकतानुसार निक्षेपके अनेक भेद किये जा सकते हैं। शास्त्रोंमें भी ऐसे विविध भेदोंका उल्लेख देखनेमें आता है। किन्तु मुख्यतया यहाँ इसके चार भेद किये गये हैं – नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। इनका लक्षण और दृष्टान्त द्वारा कथन टीकामें किया ही है। आशय यह है कि जैसे टीकामें एक जीव शब्दका नाम निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, स्थापना निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, द्रव्य निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है और भाव निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, उसी प्रकार प्रत्येक शब्दका नामादि निक्षेप विधिके अनुसार पृथक्-पृथक् अर्थ होता है। इससे अप्रकृत अर्थका निराकरण होकर प्रकृत अर्थका ग्रहण हो जाता है, जिससे व्यवहार करनेमें किसी प्रकारकी गड़बड़ी नहीं होती। इससे वक्ता और श्रोता दोनों ही एक दूसरेके आशयको भली प्रकार समझ जाते हैं। ग्रन्थका हार्द समझनेके लिए भी इस विधिका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। जैन परम्परामें इसका बड़ा भारी महत्त्व माना गया है। इसी बातको ध्यानमें रखकर यहाँ भेदोंसहित निक्षेपके स्वरूपको स्पष्ट किया गया है। </div> | <div class="G_HindiText">विशेषार्थ – नि उपसर्गपूर्वक क्षिप् धातुसे निक्षेप शब्द बना है। निक्षेपका अर्थ रखना है। न्यास शब्दका भी यही अर्थ है। आशय यह है कि एक-एक शब्दका लोकमें और शास्त्रमें प्रयोजन के अनुसार अनेक अर्थोंमें प्रयोग किया जाता है। यह प्रयोग कहाँ किस अर्थमें किया गया है इस बातको बतलाना ही निक्षेप विधिका काम है। यों तो आवश्यकतानुसार निक्षेपके अनेक भेद किये जा सकते हैं। शास्त्रोंमें भी ऐसे विविध भेदोंका उल्लेख देखनेमें आता है। किन्तु मुख्यतया यहाँ इसके चार भेद किये गये हैं – नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। इनका लक्षण और दृष्टान्त द्वारा कथन टीकामें किया ही है। आशय यह है कि जैसे टीकामें एक जीव शब्दका नाम निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, स्थापना निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, द्रव्य निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है और भाव निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, उसी प्रकार प्रत्येक शब्दका नामादि निक्षेप विधिके अनुसार पृथक्-पृथक् अर्थ होता है। इससे अप्रकृत अर्थका निराकरण होकर प्रकृत अर्थका ग्रहण हो जाता है, जिससे व्यवहार करनेमें किसी प्रकारकी गड़बड़ी नहीं होती। इससे वक्ता और श्रोता दोनों ही एक दूसरेके आशयको भली प्रकार समझ जाते हैं। ग्रन्थका हार्द समझनेके लिए भी इस विधिका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। जैन परम्परामें इसका बड़ा भारी महत्त्व माना गया है। इसी बातको ध्यानमें रखकर यहाँ भेदोंसहित निक्षेपके स्वरूपको स्पष्ट किया गया है। </div> | ||
<div class="G_Gatha_Sans" id="1">मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म भूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये।।1।।</div> | |||
<div class="G_Arth_Hindi">जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्मरूपी पर्वतों के भेदनेवाले हैं और विश्वतत्त्वों के ज्ञाता हैं, उनकी मैं उन समान गुणों की प्राप्ति के लिए द्रव्य और भाव उभयरूप से वन्दना करता हूँ।।1।। </div> | |||
<div class="G_Teeka_Sans" id="1S">1. कश्चिद् भव्य: प्रत्यासन्ननिष्ठ: प्रज्ञावान् स्वहितमुपलिप्सुर्विविक्ते परमरम्ये भव्यसत्त्वविश्रामास्पदे क्वचिदाश्रमपदे मुनिपरिषन्मध्ये संनिषण्णं मूर्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्गं वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागमकुशलं परहितप्रतिपादनैककार्यमार्यनिषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपसद्य सविनयं परिपृच्छति स्म। भगवन्, किं<sup>1</sup> नु खलु आत्मने हितं स्यादिति ? स आह मोक्ष इति। स एव पुन: प्रत्याह – किंस्वरूपोऽसौ मोक्ष: कश्चास्य प्राप्त्युपाय इति ? आचार्य आह – निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलंकस्याशरीरस्यात्मनोऽचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्याबाधसुखमात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष<sup>2</sup> इति।</div> | |||
<div class="G_Teeka_Hindi" id="1H">1. अपने हित को चाहने वाला कोई एक बुद्धिमान् निकट भव्य था। वह अत्यन्त रमणीय भव्य जीवों के विश्राम के योग्य किसी एकान्त आश्रम में गया। वहाँ उसने मुनियों की सभा में बैठे हुए वचन बोले बिना ही, मात्र अपने शरीर की आकृति से मानो मूर्तिमान् मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाले, युक्ति तथा आगम में कुशल, दूसरे जीवों के हित का मुख्य रूप से प्रतिपादन करने वाले और आर्य पुरुषों के द्वारा सेवनीय प्रधान निर्ग्रन्थ आचार्य के पास जाकर विनय के साथ पूछा – "भगवन् ! आत्मा का हित क्या है ?" आचार्य ने उत्तर दिया "आत्मा का हित मोक्ष है।" भव्य ने फिर पूछा – "मोक्ष का क्या स्वरूप है और उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है ?" आचार्य ने कहा कि – "जब आत्मा भावकर्म द्रव्यकर्ममल कलंक और शरीर को अपने से सर्वथा जुदा कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं।" | |||
<div class="G_Teeka_Sans" id="2S">2. तस्यात्यन्तपरोक्षत्वाच्छद्मस्था: प्रवादिनस्तीर्थकरंमन्यास्तस्य स्वरूपमस्पृशन्तीभिर्वाग्भिर्युक्त्याभासनिबन्धनाभिरन्यथैव परिकल्पयन्ति "चैतन्यं<sup>3</sup> पुरुषस्य स्वरूपम्<sup>4</sup>, तच्च ज्ञेयाकारपरिच्छेदपराङ्मुखम्<sup>5</sup>" इति। तत्सदप्यसदेव <sup>6</sup>निराकारत्वादिति। " <sup>7</sup>बुद्ध्यादिवैशेषिकगुणोच्छेद: पुरुषस्य मोक्ष:" इति<sup>8</sup> । तदपि परिकल्पनमसदेव, विशेषलक्षणशून्यस्यावस्तुत्वात्। "प्रदीपनिर्वाण<sup>9</sup> कल्पमात्मनिर्वाणम्" इति च। तस्य खरविषाणकल्पना तैरेवाहत्य निरूपिता। इत्येवमादि। तस्य स्वरूपमनवद्यमुत्तरत्र वक्ष्याम:।</div> | |||
<div class="G_Teeka_Hindi" id="2H">2. वह (मोक्ष) अत्यन्त परोक्ष है, अत: अपने को तीर्थंकर मानने वाले अल्पज्ञानी प्रवादी लोग मोक्ष के स्वरूप को स्पर्श नहीं करने वाले और असत्य युक्तिरूप वचनों के द्वारा उसका स्वरूप सर्वथा अन्य प्रकार से बतलाते हैं। यथा- (1.सांख्य) पुरुष का स्वरूप चैतन्य है जो ज्ञेय के ज्ञान से रहित है। किन्तु ऐसा चैतन्य सत्स्वरूप होकर भी असत् ही है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसका स्वपरव्यवसायलक्षण कोई आकार अर्थात् स्वरूप नहीं प्राप्त होता। (2. वैशेषिक) बुद्धि आदि विशेष गुणों का नाश हो जाना आत्मा का मोक्ष है। किन्तु यह कल्पना भी असमीचीन है, क्योंकि विशेष लक्षण से रहित वस्तु नहीं होती। (3. बौद्ध) जिस प्रकार दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार आत्मा की सन्तान का विच्छेद होना ही मोक्ष है। किन्तु जैसे गदहे के सींग केवल कल्पना के विषय होते हैं स्वरूपसत् नहीं होते वैसे ही इस प्रकार का मोक्ष भी केवल कल्पना का विषय है स्वरूपसत् नहीं। यह बात स्वयं उन्हीं के कथन से सिद्ध हो जाती है। इत्यादि। इस मोक्ष का निर्दोष स्वरूप आगे(दसवें अध्याय के सूत्र 2 में) कहेंगे। | |||
<div class="G_Teeka_Sans" id="3S">3. तत्प्राप्त्युपायं प्रत्यपि ते विसंवदन्ते – "ज्ञानादेव चारित्रनिरपेक्षात्तत्प्राप्ति:, श्रद्धानमात्रादेव वा, ज्ञाननिरपेक्षाच्चारित्रमात्रादेव" इति च। व्याध्यभिभूतस्य तद्विनिवृत्त्युपायभूतभेषजविषयव्यस्तज्ञानादिसाधनत्वाभाववद् <sup>11</sup>व्यस्तं ज्ञानादिर्मोक्षप्राप्त्युपायो न भवति।</div> | |||
<div class="G_Teeka_Hindi" id="3H">3. इसी प्रकार वे प्रवादी लोग उसकी प्राप्ति के विषय में भी विवाद करते हैं। कोई मानते हैं कि (1) चारित्रनिरपेक्ष ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति़ होती है। दूसरे मानते हैं कि (2) केवल श्रद्धान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। तथा अन्य मानते हैं कि (3) ज्ञाननिरपेक्ष चारित्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। परन्तु जिस प्रकार रोग के दूर करने की उपायभूत दवाई का मात्र ज्ञान, श्रद्धान या आचरण रोगी के रोग के दूर करने का उपाय नहीं है उसी प्रकार अलग-अलग ज्ञान आदि मोक्ष की प्राप्ति के उपाय नहीं हैं। </div> | |||
<div class="G_HindiText">विशेषार्थ – अब तक जो कुछ बतलाया है यह तत्त्वार्थसूत्र और उसके प्रथम सूत्र की उत्थानिका है। इसमें सर्व प्रथम जिस भव्य के निमित्त से इसकी रचना हुई उसका निर्देश किया है। आशय यह है कि कोई एक भव्य आत्मा के हित की खोज में किसी एकान्त रम्य आश्रम में गया और वहाँ मुनियों की सभा में बैठे हुए निर्ग्रन्थाचार्य से प्रश्न किया। इस पर से इस तत्त्वार्थसूत्र की रचना हुई है। तत्त्वार्थवार्तिक के प्रारम्भ में जो उत्थानिका दी है उससे भी इस बात की पुष्टि होती है। किन्तु वहाँ प्रथम सूत्र का निर्देश करने के बाद एक दूसरे अभिप्राय का भी उल्लेख किया है। वहाँ बतलाया है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचनाके सम्बन्ध में अन्य लोग इस प्रकार से व्याख्यान करते हैं कि 'इधर पुरुषोंकी शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती जा रही है, अत: सिद्धान्त की प्रक्रिया को प्रकट करने के लिए मोक्षमार्ग के निर्देश के सम्बन्धसे आनुपूर्वी क्रम से शास्त्र की रचना का प्रारम्भ करते हुए 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' यह सूत्र कहा है। यहाँ शिष्य और आचार्य का सम्बन्ध विवक्षित नहीं है। किन्तु आचार्यकी इच्छा संसारसागरमें निमग्न प्राणियोंके उद्धार करनेकी हुई। परन्तु मोक्षमार्ग के उपदेश के बिना उनके हितका उपदेश नहीं दिया जा सकता; अत: मोक्षमार्ग के व्याख्यान की इच्छा से यह शास्त्र रचा गया। मालूम होता है कि इस उल्लेख द्वारा तत्त्वार्थवार्तिककार ने तत्त्वार्थाधिगम-भाष्य की उत्थानिका का निर्देश किया है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में इसी आशय की उत्थानिका पायी जाती है। श्रुतसागरसूरि ने भी अपनी श्रुतसागरी में यही बतलाया है कि किसी शिष्य के प्रश्न के अनुरोध से आचार्यवर्य ने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की। उसमें शिष्य का नाम द्वयाक दिया है। इससे मालूम होता है कि सर्वार्थसिद्धि का यह अभिप्राय मुख्य है कि शिष्य के प्रश्न के निमित्त से तत्त्वार्थसूत्र की रचना हुई है। आगे उत्थानिका में मोक्ष की चर्चा आ जाने से थोड़े में मोक्षतत्त्वकी मीमांसा की गयी है। नियम यह है कि कर्म के निमित्तसे होनेवाले कार्यों में आत्माकी एकत्व तथा इष्टानिष्ट बुद्धि होनेसे संसार होता है। अत: कर्म, भावकर्म और नोकर्मके आत्मासे अलग हो जाने पर जो आत्माकी अपने ज्ञानादि गुण और आत्मोत्थ अव्याबाध सुखरूप स्वाभाविक अवस्था प्राप्त होती है उसे मोक्ष कहते हैं यह सिद्ध होता है। किन्तु अन्य प्रवादी लोग इस प्रकारसे मोक्षतत्त्वका विश्लेषण करने में असमर्थ हैं। पूज्यपाद स्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता गृद्धपिच्छ आचार्य के मुख से ऐसे तीन उदाहरण उपस्थित कराये हैं जिनके द्वारा मोक्षतत्त्व का गलत तरीके से स्वरूप उपस्थित किया गया है। इस प्रसंग से सर्व प्रथम सांख्यमत की मीमांसा की गयी है। यद्यपि सांख्यों ने आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीन प्रकार के दु:खों का सदा के लिए दूर हो जाना मोक्ष माना है, तथापि वे आत्मा को चैतन्य स्वरूप मानते हुए भी उसे ज्ञानरहित मानते हैं। उनकी मान्यता है कि ज्ञानधर्म प्रकृति का है तो भी संसर्ग से पुरुष अपने को ज्ञानवान् अनुभव करता है और प्रकृति अपने को चेतन अनुभव करती है। इसी से यहाँ सांख्यों के मोक्ष तत्त्व की आलोचना न करके पुरुष तत्त्व की आलोचना की गयी है और उसे असत् बतलाया गया है। दूसरा मत वैशेषिकों का है। वैशेषिकोंने ज्ञानादि विशेष गुणों को समवायसम्बन्ध से यद्यपि आत्मा में स्वीकार किया है तथापि वे आत्मा से उनके उच्छेद हो जाने को उसकी मुक्ति मानते हैं। उनके यहाँ बतलाया है कि बुद्धि आदि विशेष गुणोंकी उत्पत्ति आत्मा और मन के संयोगरूप असमवायी कारण से होती है। मोक्ष अवस्था में चूंकि आत्मा और मन का संयोग नहीं रहता अत: वहाँ विशेष गुणों का सर्वथा अभाव हो जाता है। उनके यहाँ सभी व्यापक द्रव्यों के विशेष गुण क्षणिक माने गये हैं, इसलिए वे मोक्ष में ज्ञानादि विशेष गुणों का अभाव होने में आपत्ति नहीं समझते। अब यदि राग-द्वेष आदि की तरह मुक्तावस्था में आत्मा को ज्ञानादि गुणों से भी रहित मान लिया जाय तो आत्मा स्वतन्त्र पदार्थ नहीं ठहरता, क्योंकि जिसका किसी भी प्रकार का विशेष लक्षण नहीं पाया जाता वह वस्तु ही नहीं हो सकती । यही कारण है कि इनकी मान्यता को भी असत् बतलाया गया है। तीसरा मत बौद्धों का है। बौद्धों के यहाँ सोपधिशेष और निरुपधिशेष ये दो प्रकार के निर्वाण माने गये हैं। सोपधिशेष निर्वाण में केवल अविद्या, तृष्णा आदिरूप आस्रवों का ही नाश होता है, शुद्ध चित्सन्तति शेष रह जाती है। किन्तु निरुपधिशेष निर्वाण में चित्सन्तति भी नष्ट हो जाती है। यहाँ मोक्ष के इस दूसरे भेद को ध्यान में रखकर उसकी मीमांसा की गयी है। इस सम्बन्ध में बौद्धों का कहना है कि दीपक के बुझा देने पर जिस प्रकार वह ऊपर-नीचे दायें-बायें आगे-पीछे कहीं नहीं जाता किन्तु वहीं शान्त हो जाता है उसी प्रकार आत्मा की सन्तान का अन्त हो जाना ही उसका मोक्ष है। इसके बाद आत्मा की सन्तान नहीं चलती, वह वहीं शान्त हो जाती है। बौद्धों के इस तत्त्व की मीमांसा करते हुए आचार्य ने बतलाया है कि उनकी यह कल्पना असत् ही है। इस प्रकार थोड़े में मोक्ष तत्त्व की मीमांसा करके आचार्य ने अन्त में उसके कारण-तत्त्व की मीमांसा की है। इस सिलसिले में केवल इतना ही लिखना है कि अधिकतर विविध मत वाले लोग ज्ञान, दर्शन और चारित्र इनमें से एक-एक के द्वारा ही मोक्ष की सिद्धि मानते हैं। क्या सांख्य, क्या बौद्ध और क्या वैशेषिक इन सबने तत्त्वज्ञान या विद्या को ही मुक्ति का मुख्य साधन माना है। भक्तिमार्ग या नाम स्मरण यह श्रद्धा का प्रकारान्तर है। एक ऐसा भी प्रबल दल है जो केवल नामस्मरण को ही संसार से तरने का प्रधान साधन मानता है। यह दल इधर बहुत अधिक जोर पकड़ता जा रहा है। अपने इष्ट का कीर्तन करना इसका प्रकारान्तर है। किन्तु जिस प्रकार रोग का निवारण केवल दवाई के दर्शन आदि एक-एक कारण से नहीं हो सकता, उसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति भी एक-एक के द्वारा नहीं हो सकती। </div> | |||
<div class="GRef"><sup>1</sup> किं खलु आत्मने – आ.,अ.। चिं खलु आत्मनो- दि. 1, दि. 2। </div> | |||
<div class="GRef"><sup>2</sup> मोक्ष: त-आ., अ., दि. 1 दि. 2। </div> | |||
<div class="GRef"><sup>3</sup>'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमिति' – योगमा.।19। 'तदा द्रष्टु: स्वरूपेवस्थानम्' – योगसू. ।13। </div> | |||
<div class="GRef"><sup>4</sup>स्वरूपमिति त- आ., त.।</div> | |||
<div class="GRef"><sup>5</sup>मुखम्। तत् -- आ.।</div> | |||
<div class="GRef"><sup>6</sup> –त्वात् खरविषाणवत्। बुद्धया—मुऋ।</div> | |||
<div class="GRef"><sup>7</sup> 'नवानामात्मविशेषगुणानामत्यान्तोच्छित्तिर्मोक्ष:' –प्रश.व्यो. पृ. 638।</div> | |||
<div class="GRef"><sup>8</sup>इति च। तदपि दि.1, अ.।</div> | |||
<div class="GRef"><sup>9</sup> 'यस्मिन् न जातिर्न जरा न मृत्युर्न व्याधयो नाप्रियसंप्रयोग:। नेच्छाविपन्नप्रियविप्रयोग: क्षेमं पदं नैष्ठिकमच्युतं तत्।। दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम्।' –सौन्दर.।16/27-29। 'प्रदीपस्येव निर्वाणं विमोक्षस्तस्य चेतस:।' प्र. वार्तिकालं.।145।</div> | |||
<div class="GRef"><sup>10</sup> –षाणवत्कल्पना—आ., दि./ अ.मु.।</div> | |||
<div class="GRef"><sup>11</sup> –वत्। एवं व्यस्तज्ञानादि- दि.1, दि. 2 मु.।</div> |
Latest revision as of 19:02, 17 August 2024
21. एवमेषामुद्दिष्टानां सम्यग्दर्शनादीनां जीवादीनां च संव्यवहारविशेषव्यभिचारनिवृत्त्यर्थमाह –
21. इस प्रकार पहले जो सम्यग्दर्शन आदि और जीवादि पदार्थ कहे हैं उनका शब्द प्रयोग करते समय विवक्षाभेदसे जो गड़बड़ी होना सम्भव है उसको दूर करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यास:।।5।।
नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूपसे उनका अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदिका न्यास अर्थात् निक्षेप होता है।।5।।
22. अतद्गुणे वस्तुनि संव्यवहारार्थं पुरुषकारान्नियुज्यमानं संज्ञाकर्म नाम। काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयमिति स्थाप्यमाना स्थापना। गुणैर्गुणान्वा द्रुतं गत गुणैर्द्रोष्यते गुणान्द्रोष्यतीति वा द्रव्यम्। वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भाव:। तद्यथा, नामजीव: स्थापनाजीवो द्रव्यजीवो भावजीव इति चतुर्धा जीवशब्दार्थो न्यस्यते। जीवनगुणमनपेक्ष्य यस्य कस्यचिन्नाम क्रियमाणं नाम जीव:। अक्षनिक्षेपादिषु जीव इति वा मनुष्यजीव इति वा व्यवस्थाप्यमान: स्थापनाजीव:। द्रव्यजीवो द्विविध: आगमद्रव्यजीवो नोआगमद्रव्यजीवश्चेति। तत्र जीवप्राभृतज्ञायी मनुष्यजीवप्राभृतज्ञायी वा अनुपयुक्त आत्मा आगमद्रव्यजीव:। नोआगमद्रव्यजीवस्त्रेधा व्यवतिष्ठते ज्ञायकशरीरभावि-तद्व्यतिरिक्तभेदात्। तत्र ज्ञातुर्यच्छरीरं त्रिकालगोचरं तज्ज्ञायकशरीरम्। सामान्यापेक्षया नोआगमभाविजीवो नास्ति, जीवनसामान्यस्य सदापि विद्यमानत्वात्। विशेषापेक्षया त्वस्ति। गत्यन्तरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभव प्राप्तिं प्रत्यभिमुखो मनुष्यभाविजीव:। तद्व्यतिरिक्त: कर्मनोकर्मविकल्प:। भावजीवो द्विविध: आगमभावजीवो नोआगमभावजीवश्चेति। तत्र जीवप्राभृतविषयोपयोगाविष्टो मनुष्यजीवप्राभृतविषयोपयोगयुक्तो वा आत्मा आगमभावजीव:। जीवनपर्यायेण मनुष्यजीवत्वपर्यायेण वा स्रमाविष्ट आत्मा नोआगमभावजीव:। एवमि-तरेषामपि पदार्थानां नामादिनिक्षेपविधिर्नियोज्य:। स किमर्थ: ? अप्रकृतनिराकरणाय प्रकृतनिरूपणाय च। निक्षेपविधिना शब्दार्थ: प्रस्तीर्यते। तच्छब्दग्रहणं किमर्थम् ? सर्वसंग्रहार्थम्। असति हि तच्छब्दे सम्यग्दर्शनादीनां प्रधानानामेव न्यासेनाभिसंबन्ध: स्यात्, तद्विषयभावेनोपगृहीतानां जीवादीनां अप्रधानानां न स्यात्। तच्छब्दग्रहणे पुन: क्रियमाणे सति सामर्थ्यात्प्रधानानामप्रधानानां च ग्रहणं सिद्धं भवति।
22. संज्ञाके अनुसार गुणरहित वस्तुमें व्यवहारके लिए अपनी इच्छासे की गयी संज्ञाको नाम कहते हैं। काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप आदिमें ‘वह यह है’ इस प्रकार स्थापित करनेको स्थापना कहते हैं। जो गुणोंके द्वारा प्राप्त हुआ था या गुणोंको प्राप्त हुआ था अथवा जो गुणोंके द्वारा प्राप्त किया जायेगा या गुणोंको प्राप्त होगा उसे द्रव्य कहते हैं। वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्यको भाव कहते हैं। विशेष इस प्रकार है – नामजीव, स्थापनाजीव, द्रव्यजीव और भावजीव, इस प्रकार जीव पदार्थका न्यास चार प्रकारसे किया जाता है। जीवन गुणकी अपेक्षा न करके जिस किसीका ‘जीव’ ऐसा नाम रखना नामजीव है। अक्षनिक्षेप आदिमें यह ‘जीव है’ या ‘मनुष्य जीव है’ ऐसा स्थापित करना स्थापना-जीव है। द्रव्यजीवके दो भेद हैं – आगम द्रव्यजीव और नोआगम द्रव्यजीव। इनमें-से जो जीवविषयक या मनुष्य जीवविषयक शास्त्रको जानता है किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित है वह आगम द्रव्यजीव है। नोआगम द्रव्यजीवके तीन भेद हैं – ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त। ज्ञाताके शरीरको ज्ञायक शरीर कहते हैं। जीवन सामान्यकी अपेक्षा ‘नोआगम भाविजीव’ यह भेद नहीं बनता, क्योंकि जीवनसामान्यकी अपेक्षा जीव सदा विद्यमान है। हाँ, पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा ‘नोआगम भाविजीव’ यह भेद बन जाता है, क्योंकि जो जीव दूसरी गतिमें विद्यमान है वह जब मनुष्य भवको प्राप्त करेनेके लिए सम्मुख होता है तब वह मनुष्य भाविजीव कहलाता है। तद्व्यतिरिक्तके दो भेद हैं – कर्म और नोकर्म। भावजीवके दो भेद हैं – आगम भावजीव और नोआगम भावजीव। इनमें-से जो आत्मा जीवविषयक शास्त्रको जानता है और उसके उपयोगसे युक्त है अथवा मनुष्य जीवविषयक शास्त्रको जानता है और उसके उपयोगसे युक्त है वह आगम भावजीव है। तथा जीवन पर्याय या मनुष्य जीवन पर्यायसे युक्त आत्मा नोआगम भावजीव कहलाता है। इसी प्रकार अजीवादि अन्य पदार्थोंकी भी नामादि निक्षेप विधि लगा लेना चाहिए। शंका – निक्षेप विधिका कथन किस लिए किया जाता है ? समाधान – अप्रकृतका निराकरण करनेके लिए और प्रकृतका निरूपण करनेके लिए इसका कथन किया जाता है। तात्पर्य यह है कि प्रकृतमें किस शब्दका क्या अर्थ है यह निक्षेप विधिके द्वारा विस्तारसे बतलाया जाता है। शंका – सूत्रमें ‘तत्’ शब्दका ग्रहण किस लिए किया है? समाधान – सबका संग्रह करनेके लिए सूत्रमें ‘तत्’ शब्दका ग्रहण किया है। यदि सूत्रमें ‘तत्’ शब्द न रखा जाय तो प्रधानभूत सम्यग्दर्शनादिका ही न्यासके साथ सम्बन्ध होता। सम्यग्दर्शनादिकके विषयरूपसे ग्रहण किये गये अप्रधानभूत जीवादिकका न्यासके साथ सम्बन्ध न होता। परन्तु सूत्रमें ‘तत्’ शब्दके ग्रहण कर लेनेपर सामर्थ्यसे प्रधान और अप्रधान सबका ग्रहण बन जाता है।
विशेषार्थ – नि उपसर्गपूर्वक क्षिप् धातुसे निक्षेप शब्द बना है। निक्षेपका अर्थ रखना है। न्यास शब्दका भी यही अर्थ है। आशय यह है कि एक-एक शब्दका लोकमें और शास्त्रमें प्रयोजन के अनुसार अनेक अर्थोंमें प्रयोग किया जाता है। यह प्रयोग कहाँ किस अर्थमें किया गया है इस बातको बतलाना ही निक्षेप विधिका काम है। यों तो आवश्यकतानुसार निक्षेपके अनेक भेद किये जा सकते हैं। शास्त्रोंमें भी ऐसे विविध भेदोंका उल्लेख देखनेमें आता है। किन्तु मुख्यतया यहाँ इसके चार भेद किये गये हैं – नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। इनका लक्षण और दृष्टान्त द्वारा कथन टीकामें किया ही है। आशय यह है कि जैसे टीकामें एक जीव शब्दका नाम निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, स्थापना निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, द्रव्य निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है और भाव निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, उसी प्रकार प्रत्येक शब्दका नामादि निक्षेप विधिके अनुसार पृथक्-पृथक् अर्थ होता है। इससे अप्रकृत अर्थका निराकरण होकर प्रकृत अर्थका ग्रहण हो जाता है, जिससे व्यवहार करनेमें किसी प्रकारकी गड़बड़ी नहीं होती। इससे वक्ता और श्रोता दोनों ही एक दूसरेके आशयको भली प्रकार समझ जाते हैं। ग्रन्थका हार्द समझनेके लिए भी इस विधिका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। जैन परम्परामें इसका बड़ा भारी महत्त्व माना गया है। इसी बातको ध्यानमें रखकर यहाँ भेदोंसहित निक्षेपके स्वरूपको स्पष्ट किया गया है।
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म भूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये।।1।।
जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्मरूपी पर्वतों के भेदनेवाले हैं और विश्वतत्त्वों के ज्ञाता हैं, उनकी मैं उन समान गुणों की प्राप्ति के लिए द्रव्य और भाव उभयरूप से वन्दना करता हूँ।।1।।
1. कश्चिद् भव्य: प्रत्यासन्ननिष्ठ: प्रज्ञावान् स्वहितमुपलिप्सुर्विविक्ते परमरम्ये भव्यसत्त्वविश्रामास्पदे क्वचिदाश्रमपदे मुनिपरिषन्मध्ये संनिषण्णं मूर्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्गं वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागमकुशलं परहितप्रतिपादनैककार्यमार्यनिषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपसद्य सविनयं परिपृच्छति स्म। भगवन्, किं1 नु खलु आत्मने हितं स्यादिति ? स आह मोक्ष इति। स एव पुन: प्रत्याह – किंस्वरूपोऽसौ मोक्ष: कश्चास्य प्राप्त्युपाय इति ? आचार्य आह – निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलंकस्याशरीरस्यात्मनोऽचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्याबाधसुखमात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष2 इति।
1. अपने हित को चाहने वाला कोई एक बुद्धिमान् निकट भव्य था। वह अत्यन्त रमणीय भव्य जीवों के विश्राम के योग्य किसी एकान्त आश्रम में गया। वहाँ उसने मुनियों की सभा में बैठे हुए वचन बोले बिना ही, मात्र अपने शरीर की आकृति से मानो मूर्तिमान् मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाले, युक्ति तथा आगम में कुशल, दूसरे जीवों के हित का मुख्य रूप से प्रतिपादन करने वाले और आर्य पुरुषों के द्वारा सेवनीय प्रधान निर्ग्रन्थ आचार्य के पास जाकर विनय के साथ पूछा – "भगवन् ! आत्मा का हित क्या है ?" आचार्य ने उत्तर दिया "आत्मा का हित मोक्ष है।" भव्य ने फिर पूछा – "मोक्ष का क्या स्वरूप है और उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है ?" आचार्य ने कहा कि – "जब आत्मा भावकर्म द्रव्यकर्ममल कलंक और शरीर को अपने से सर्वथा जुदा कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं।"
2. तस्यात्यन्तपरोक्षत्वाच्छद्मस्था: प्रवादिनस्तीर्थकरंमन्यास्तस्य स्वरूपमस्पृशन्तीभिर्वाग्भिर्युक्त्याभासनिबन्धनाभिरन्यथैव परिकल्पयन्ति "चैतन्यं3 पुरुषस्य स्वरूपम्4, तच्च ज्ञेयाकारपरिच्छेदपराङ्मुखम्5" इति। तत्सदप्यसदेव 6निराकारत्वादिति। " 7बुद्ध्यादिवैशेषिकगुणोच्छेद: पुरुषस्य मोक्ष:" इति8 । तदपि परिकल्पनमसदेव, विशेषलक्षणशून्यस्यावस्तुत्वात्। "प्रदीपनिर्वाण9 कल्पमात्मनिर्वाणम्" इति च। तस्य खरविषाणकल्पना तैरेवाहत्य निरूपिता। इत्येवमादि। तस्य स्वरूपमनवद्यमुत्तरत्र वक्ष्याम:।
2. वह (मोक्ष) अत्यन्त परोक्ष है, अत: अपने को तीर्थंकर मानने वाले अल्पज्ञानी प्रवादी लोग मोक्ष के स्वरूप को स्पर्श नहीं करने वाले और असत्य युक्तिरूप वचनों के द्वारा उसका स्वरूप सर्वथा अन्य प्रकार से बतलाते हैं। यथा- (1.सांख्य) पुरुष का स्वरूप चैतन्य है जो ज्ञेय के ज्ञान से रहित है। किन्तु ऐसा चैतन्य सत्स्वरूप होकर भी असत् ही है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसका स्वपरव्यवसायलक्षण कोई आकार अर्थात् स्वरूप नहीं प्राप्त होता। (2. वैशेषिक) बुद्धि आदि विशेष गुणों का नाश हो जाना आत्मा का मोक्ष है। किन्तु यह कल्पना भी असमीचीन है, क्योंकि विशेष लक्षण से रहित वस्तु नहीं होती। (3. बौद्ध) जिस प्रकार दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार आत्मा की सन्तान का विच्छेद होना ही मोक्ष है। किन्तु जैसे गदहे के सींग केवल कल्पना के विषय होते हैं स्वरूपसत् नहीं होते वैसे ही इस प्रकार का मोक्ष भी केवल कल्पना का विषय है स्वरूपसत् नहीं। यह बात स्वयं उन्हीं के कथन से सिद्ध हो जाती है। इत्यादि। इस मोक्ष का निर्दोष स्वरूप आगे(दसवें अध्याय के सूत्र 2 में) कहेंगे।
3. तत्प्राप्त्युपायं प्रत्यपि ते विसंवदन्ते – "ज्ञानादेव चारित्रनिरपेक्षात्तत्प्राप्ति:, श्रद्धानमात्रादेव वा, ज्ञाननिरपेक्षाच्चारित्रमात्रादेव" इति च। व्याध्यभिभूतस्य तद्विनिवृत्त्युपायभूतभेषजविषयव्यस्तज्ञानादिसाधनत्वाभाववद् 11व्यस्तं ज्ञानादिर्मोक्षप्राप्त्युपायो न भवति।
3. इसी प्रकार वे प्रवादी लोग उसकी प्राप्ति के विषय में भी विवाद करते हैं। कोई मानते हैं कि (1) चारित्रनिरपेक्ष ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति़ होती है। दूसरे मानते हैं कि (2) केवल श्रद्धान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। तथा अन्य मानते हैं कि (3) ज्ञाननिरपेक्ष चारित्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। परन्तु जिस प्रकार रोग के दूर करने की उपायभूत दवाई का मात्र ज्ञान, श्रद्धान या आचरण रोगी के रोग के दूर करने का उपाय नहीं है उसी प्रकार अलग-अलग ज्ञान आदि मोक्ष की प्राप्ति के उपाय नहीं हैं।
विशेषार्थ – अब तक जो कुछ बतलाया है यह तत्त्वार्थसूत्र और उसके प्रथम सूत्र की उत्थानिका है। इसमें सर्व प्रथम जिस भव्य के निमित्त से इसकी रचना हुई उसका निर्देश किया है। आशय यह है कि कोई एक भव्य आत्मा के हित की खोज में किसी एकान्त रम्य आश्रम में गया और वहाँ मुनियों की सभा में बैठे हुए निर्ग्रन्थाचार्य से प्रश्न किया। इस पर से इस तत्त्वार्थसूत्र की रचना हुई है। तत्त्वार्थवार्तिक के प्रारम्भ में जो उत्थानिका दी है उससे भी इस बात की पुष्टि होती है। किन्तु वहाँ प्रथम सूत्र का निर्देश करने के बाद एक दूसरे अभिप्राय का भी उल्लेख किया है। वहाँ बतलाया है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचनाके सम्बन्ध में अन्य लोग इस प्रकार से व्याख्यान करते हैं कि 'इधर पुरुषोंकी शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती जा रही है, अत: सिद्धान्त की प्रक्रिया को प्रकट करने के लिए मोक्षमार्ग के निर्देश के सम्बन्धसे आनुपूर्वी क्रम से शास्त्र की रचना का प्रारम्भ करते हुए 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' यह सूत्र कहा है। यहाँ शिष्य और आचार्य का सम्बन्ध विवक्षित नहीं है। किन्तु आचार्यकी इच्छा संसारसागरमें निमग्न प्राणियोंके उद्धार करनेकी हुई। परन्तु मोक्षमार्ग के उपदेश के बिना उनके हितका उपदेश नहीं दिया जा सकता; अत: मोक्षमार्ग के व्याख्यान की इच्छा से यह शास्त्र रचा गया। मालूम होता है कि इस उल्लेख द्वारा तत्त्वार्थवार्तिककार ने तत्त्वार्थाधिगम-भाष्य की उत्थानिका का निर्देश किया है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में इसी आशय की उत्थानिका पायी जाती है। श्रुतसागरसूरि ने भी अपनी श्रुतसागरी में यही बतलाया है कि किसी शिष्य के प्रश्न के अनुरोध से आचार्यवर्य ने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की। उसमें शिष्य का नाम द्वयाक दिया है। इससे मालूम होता है कि सर्वार्थसिद्धि का यह अभिप्राय मुख्य है कि शिष्य के प्रश्न के निमित्त से तत्त्वार्थसूत्र की रचना हुई है। आगे उत्थानिका में मोक्ष की चर्चा आ जाने से थोड़े में मोक्षतत्त्वकी मीमांसा की गयी है। नियम यह है कि कर्म के निमित्तसे होनेवाले कार्यों में आत्माकी एकत्व तथा इष्टानिष्ट बुद्धि होनेसे संसार होता है। अत: कर्म, भावकर्म और नोकर्मके आत्मासे अलग हो जाने पर जो आत्माकी अपने ज्ञानादि गुण और आत्मोत्थ अव्याबाध सुखरूप स्वाभाविक अवस्था प्राप्त होती है उसे मोक्ष कहते हैं यह सिद्ध होता है। किन्तु अन्य प्रवादी लोग इस प्रकारसे मोक्षतत्त्वका विश्लेषण करने में असमर्थ हैं। पूज्यपाद स्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता गृद्धपिच्छ आचार्य के मुख से ऐसे तीन उदाहरण उपस्थित कराये हैं जिनके द्वारा मोक्षतत्त्व का गलत तरीके से स्वरूप उपस्थित किया गया है। इस प्रसंग से सर्व प्रथम सांख्यमत की मीमांसा की गयी है। यद्यपि सांख्यों ने आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीन प्रकार के दु:खों का सदा के लिए दूर हो जाना मोक्ष माना है, तथापि वे आत्मा को चैतन्य स्वरूप मानते हुए भी उसे ज्ञानरहित मानते हैं। उनकी मान्यता है कि ज्ञानधर्म प्रकृति का है तो भी संसर्ग से पुरुष अपने को ज्ञानवान् अनुभव करता है और प्रकृति अपने को चेतन अनुभव करती है। इसी से यहाँ सांख्यों के मोक्ष तत्त्व की आलोचना न करके पुरुष तत्त्व की आलोचना की गयी है और उसे असत् बतलाया गया है। दूसरा मत वैशेषिकों का है। वैशेषिकोंने ज्ञानादि विशेष गुणों को समवायसम्बन्ध से यद्यपि आत्मा में स्वीकार किया है तथापि वे आत्मा से उनके उच्छेद हो जाने को उसकी मुक्ति मानते हैं। उनके यहाँ बतलाया है कि बुद्धि आदि विशेष गुणोंकी उत्पत्ति आत्मा और मन के संयोगरूप असमवायी कारण से होती है। मोक्ष अवस्था में चूंकि आत्मा और मन का संयोग नहीं रहता अत: वहाँ विशेष गुणों का सर्वथा अभाव हो जाता है। उनके यहाँ सभी व्यापक द्रव्यों के विशेष गुण क्षणिक माने गये हैं, इसलिए वे मोक्ष में ज्ञानादि विशेष गुणों का अभाव होने में आपत्ति नहीं समझते। अब यदि राग-द्वेष आदि की तरह मुक्तावस्था में आत्मा को ज्ञानादि गुणों से भी रहित मान लिया जाय तो आत्मा स्वतन्त्र पदार्थ नहीं ठहरता, क्योंकि जिसका किसी भी प्रकार का विशेष लक्षण नहीं पाया जाता वह वस्तु ही नहीं हो सकती । यही कारण है कि इनकी मान्यता को भी असत् बतलाया गया है। तीसरा मत बौद्धों का है। बौद्धों के यहाँ सोपधिशेष और निरुपधिशेष ये दो प्रकार के निर्वाण माने गये हैं। सोपधिशेष निर्वाण में केवल अविद्या, तृष्णा आदिरूप आस्रवों का ही नाश होता है, शुद्ध चित्सन्तति शेष रह जाती है। किन्तु निरुपधिशेष निर्वाण में चित्सन्तति भी नष्ट हो जाती है। यहाँ मोक्ष के इस दूसरे भेद को ध्यान में रखकर उसकी मीमांसा की गयी है। इस सम्बन्ध में बौद्धों का कहना है कि दीपक के बुझा देने पर जिस प्रकार वह ऊपर-नीचे दायें-बायें आगे-पीछे कहीं नहीं जाता किन्तु वहीं शान्त हो जाता है उसी प्रकार आत्मा की सन्तान का अन्त हो जाना ही उसका मोक्ष है। इसके बाद आत्मा की सन्तान नहीं चलती, वह वहीं शान्त हो जाती है। बौद्धों के इस तत्त्व की मीमांसा करते हुए आचार्य ने बतलाया है कि उनकी यह कल्पना असत् ही है। इस प्रकार थोड़े में मोक्ष तत्त्व की मीमांसा करके आचार्य ने अन्त में उसके कारण-तत्त्व की मीमांसा की है। इस सिलसिले में केवल इतना ही लिखना है कि अधिकतर विविध मत वाले लोग ज्ञान, दर्शन और चारित्र इनमें से एक-एक के द्वारा ही मोक्ष की सिद्धि मानते हैं। क्या सांख्य, क्या बौद्ध और क्या वैशेषिक इन सबने तत्त्वज्ञान या विद्या को ही मुक्ति का मुख्य साधन माना है। भक्तिमार्ग या नाम स्मरण यह श्रद्धा का प्रकारान्तर है। एक ऐसा भी प्रबल दल है जो केवल नामस्मरण को ही संसार से तरने का प्रधान साधन मानता है। यह दल इधर बहुत अधिक जोर पकड़ता जा रहा है। अपने इष्ट का कीर्तन करना इसका प्रकारान्तर है। किन्तु जिस प्रकार रोग का निवारण केवल दवाई के दर्शन आदि एक-एक कारण से नहीं हो सकता, उसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति भी एक-एक के द्वारा नहीं हो सकती।
1 किं खलु आत्मने – आ.,अ.। चिं खलु आत्मनो- दि. 1, दि. 2।
2 मोक्ष: त-आ., अ., दि. 1 दि. 2।
3'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमिति' – योगमा.।19। 'तदा द्रष्टु: स्वरूपेवस्थानम्' – योगसू. ।13।
4स्वरूपमिति त- आ., त.।
5मुखम्। तत् -- आ.।
6 –त्वात् खरविषाणवत्। बुद्धया—मुऋ।
7 'नवानामात्मविशेषगुणानामत्यान्तोच्छित्तिर्मोक्ष:' –प्रश.व्यो. पृ. 638।
8इति च। तदपि दि.1, अ.।
9 'यस्मिन् न जातिर्न जरा न मृत्युर्न व्याधयो नाप्रियसंप्रयोग:। नेच्छाविपन्नप्रियविप्रयोग: क्षेमं पदं नैष्ठिकमच्युतं तत्।। दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम्।' –सौन्दर.।16/27-29। 'प्रदीपस्येव निर्वाणं विमोक्षस्तस्य चेतस:।' प्र. वार्तिकालं.।145।
10 –षाणवत्कल्पना—आ., दि./ अ.मु.।
11 –वत्। एवं व्यस्तज्ञानादि- दि.1, दि. 2 मु.।