वेदांत: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:42, 12 October 2022
- वेदांत सामान्य
- शंकर वेदांत या ब्रह्माद्वैत
- भास्कर वेदांत या द्वैताद्वैत
- रामानुज वेदांत या विशिष्टाद्वैत
- निंबार्क वेदांत या द्वैताद्वैतवाद
- माध्व वेदांत या द्वैतवाद
- शुद्धाद्वैत (शैव दर्शन)
- वेदांत सामान्य
- सामान्य परिचय
स्याद्वादमंजरी/ परि.च./438- उत्तर मीमांसा या ब्रह्ममीमांसा ही वेदांत है। वेदों के अंतिम भाग में उपदिष्ट होने के कारण ही इसका नाम वेदांत है। यह अद्वैतवादी है।
- इनके साधु ब्राह्मण ही होते हैं। वे चार प्रकार के होते हैं – कुटीचर, बहूदक, हंस और परमहंस।
- इनमें से कुटीचर मठ में रहते हैं, त्रिदंडी होते हैं; शिखा व ब्रह्मसूत्र रखते हैं। गृहत्यागी होते हैं। यजमानों के अथवा कदाचित् अपने पुत्र के यहाँ भोजन करते हैं।
- बहूदक भी कुटीचर के समान हैं, परंतु ब्राह्मणों के घर नीरस भोजन लेते हैं। विष्णु का जाप करते हैं, तथा नदी में स्नान करते हैं।
- हंस साधु ब्रह्म सूत्र व शिखा नहीं रखते। कषाय वस्त्र धारण करते हैं, दंड रखते हैं, गाँव में एक रात और नगर में तीन रात रहते हैं। धुँआ निकलना बंद हो जाय तब ब्राह्मणों के घर भोजन करते हैं। तप करते हैं और देश विशेष में भ्रमण करते हैं।
- आत्मज्ञानी हो जाने पर वही हंस परमहंस कहलाते हैं। ये चारों वर्णों के घर भोजन करते हैं। शंकर के वेदांत की तुलना Bradleyके सिद्धांतों से की जा सकती है। इसके अंतर्गत समय-समय पर अनेक दार्शनिक धाराएँ उत्पन्न होती रहीं जो अद्वैत का प्रतिकार करती हुई भी किन्हीं-किन्हीं बातों में दृष्टिभेद को प्र्राप्त रहीं। उनमें से कुछ के नाम ये हैं–भर्तृ प्रपंच वेदांत (ई.श.7); शंकर वेदांत या ब्रह्मद्वैत (ई.श.8); भास्कर वेदांतः रामानुज वेदांत या विशिष्टाद्वैत (ई.श.11); माध्ववेदांत या द्वैतवाद (ई.श.12-13); वल्लभ वेदांत या शुद्धाद्वैत (ई.श.15); श्रीकंठ वेदांत या अविभागद्वैत (ई.श.17)।
- प्रवर्तक साहित्य व समय
स्याद्वादमंजरी/ परि.च./438- वेदांत का कथन महाभारत व गीतादि प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। तत्पश्चात् औडुलोमि, आश्मरथ्य, कासकृत्स्न, कार्ष्णाजिनि, बादरि, आत्रेय और जैमिनी वेदांत दर्शन के प्रतिपालक हुए।
- वेदांत साहित्य में बादरायण का ब्रह्मसूत्र सर्व प्रधान है। जिसका समय ई.400 है।
- तत्पश्चात् बोधायन व उपवर्य ने उनपर वृत्ति लिखी है।
- द्रविड़ाचार्य टंक व भर्तृप्रपंच (ई.श.7) भी टीकाकारों में प्रसिद्ध हैं।
- गौड़पाद (ई. 780) उनके शिष्य गोविंद और उनके शिष्य शंकराचार्य हुए। इनका समय ई. 800 है। शंकराचार्य ने ईशा, केन, कठ आदि 10 उपनिषदों पर तथा भगवद्गीता व वेदांत सूत्रों पर टीकाएँ लिखी हैं।
- मंडन और मंडन मिश्र भी शंकर के समकालीन थे। मंडन ने ब्रह्म सिद्धि आदि अनेक ग्रंथ रचे।
- शंकर के शिष्य सुरेश्वर (ई.820) थे। इन्होंने नैष्कर्म्य सिद्धि, वृहदारण्यक उपनिषद् भाष्य आदि ग्रंथ लिखे। नैष्कर्म्य आदि के चित्सुख आदि ने टीकाएँ लिखीं।
- पद्मपाद (ई.820) शंकराचार्य के दूसरे शिष्य थे। इन्होंने पंचपद आदि ग्रंथों की रचना की।
- वाचस्पति मिश्र (ई.840) ने शंकर भाष्य पर भामती और ब्रह्मसिद्धि पर तत्त्व समीक्षा लिखी।
- सूरेश्वर के शिष्य सर्वज्ञात्म मुनि (ई.900) थे, जिन्होंने संक्षेप शारीरिक नामक ग्रंथ लिखा।
- इनके अतिरिक्त आनंदबोध (ई.श.11-12) का न्याय मरकंद और न्याय दीपावली, श्री हर्ष (ई.1150) का खंडन खंड खाद्य, चित्सुखाचार्य (ई.1250) की चित्सुखी, विद्यारण्य (ई.1350) की पंचशती और जीवन्मुक्तिविवेक, मधुसूदन सरस्वती (ई.श.16 को) अद्वैत सिद्धि, अप्पय दीक्षित (ई.श.17) का सिद्धांत लेश और सदानंद का वेदांत सार महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
- जैन व वेदांत की तुलना
(जैनमत भी किसी न किसी अपेक्षा वेदांत के सिद्धांतों को स्वीकार करता है, संग्रह व्यवहारनय के आश्रय पर विचार करने से यह रहस्य स्पष्ट हो जाता है। जैसे–पर संग्रह नय की अपेक्षा एक सत् मात्र ही है इसके अतिरिक्त अन्य किसी चीज की सत्ता नहीं। इसी का व्यवहार करने पर वह सत्-उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप तीन शक्तियों से युक्त है, अथवा जीव व अजीव दो भेद रूप है। सत् ही वह एक है, वह सर्व व्यापक, ब्रह्म है। उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप शक्ति उसकी माया है। जीव व अजीव पुरुष व प्रकृति है। उत्पादादि त्रय से ही उसमें परिणमन या चंचलता होती है। उसी से सृष्टि की रचना होती है। इत्यादि (देखें सांख्य ) इस प्रकार दोनों में समानता है। परंतु अनेकांतवादी होने के कारण जैन तो इनके विपक्षी नयों को भी स्वीकार करके अद्वैत के साथ द्वैत पक्ष का भी ग्रहण कर लेते हैं। परंतु वेदांती एकांतवादी होने के कारण द्वैत का सर्वथा निरास करते हैं। इस प्रकार दोनों में भेद हैं। वेदांतवादी संग्रहनयाभासी हैं। (देखें अनेकांत - 2.9)।
- द्वैत व अद्वैत दर्शन का समन्वय
पं. वि./9/29 द्वैतं संसृतिरेव निश्चयवशादद्वैतमेवामृतं, संक्षेपादुभयत्र जल्पितमिदं पर्यंतकाष्ठागतम्। निर्गत्यादिपदाच्छनैः शबलितादन्यत्समालंबते यः सोऽसंज्ञ इति स्फुटं व्यवहते ब्रह्मादिनामेति च।29। = निश्चय से द्वैत ही संसार तथा अद्वैत ही मोक्ष है, यह दोनों के विषय में संक्षेप से कथन है, जो चरम सीमा को प्राप्त है। जो भव्य जीव धीरे-धीरे इस प्रथम (द्वैत) पद से निकलकर दूसरे अद्वैत पद का आश्रय करता है वह यद्यपि निश्चयतः वाच्य वाचक भाव का अभाव हो जाने के कारण संज्ञा (नाम) से रहित हो जाता है, फिर भी व्यवहार से वह ब्रह्मादि (पर ब्रह्म परमात्मा आदि) नाम को प्राप्त करता है।
देखें द्रव्य - 4 वस्तु स्वरूप में द्वैत व अद्वैत विधि निषेध व उसका समन्वय।
देखें उत्पाद - 2 (नित्य पक्ष का विधि निषेध व उसका समन्वय)।
- भर्तृप्रपंच वेदांत
स्याद्वादमंजरी/ परि.–च./पृ.440 भर्तृप्रपंच नामक आचार्य द्वारा चलाया गया। इसका अपना कोई ग्रंथ इस समय उपलब्ध नहीं है। भर्तृप्रपंच वैश्वानर के उपासक थे। शंकर की भाँति ब्रह्म के पर अपर दो भेद मानते थे।
- सामान्य परिचय
- शंकर वेदांत या ब्रह्माद्वैत
- शंकर वेदांत का तत्त्व विचार
षड्दर्शन समुच्चय/68/67; (भारतीय दर्शन)- सत्ता तीन प्रकार है–पारमार्थिक, प्रातिभासिक व व्यावहारिक। इनमें-से ब्रह्म ही एक पारमार्थिक सत् है। इसके अतिरिक्त घट, पट आदि व्यावहारिक सत् है। वास्तव में ये सब रस्सी में सर्प की भाँति प्रातिभासिक हैं।
- ब्रह्म, एक निर्विशेष, सर्वव्यापी, स्वप्रकाश, नित्य, स्वयं सिद्ध चेतन तत्त्व है।
- माया से अवच्छिन्न होने के कारण इसके दो रूप हो जाते हैं–ईश्वर व प्राज्ञ। दोनों में समष्टि व व्यष्टि, एक व अनेक, विशुद्ध सत्त्व व मलिन सत्त्व, सर्वज्ञ व अल्पज्ञ, सर्वेश्वर व अनीश्वर, समष्टि का कारण शरीर और व्यष्टि का कारण शरीर आदि रूप से दो भेद हैं। ईश्वर, नियंता, अव्यक्त, अंतर्यामी, सृष्टि का रचयिता व जीवों को उनके कर्मानुसार फलदाता है।
- सांख्य प्ररूपित बुद्धि व पाँचों ज्ञानेंद्रियों से मिलकर एक विज्ञानमय कोश बनता है। इसी में घिरा हुआ चैतन्य उपचार से जीव कहलाता है। जो कर्ता, भोक्ता, सुख, दुख, मरण आदि सहित हैं।
- इस शरीर युक्त चैतन्य (जीव) में ही ज्ञान, इच्छा व क्रिया रूप शक्तियाँ रहती हैं। वास्तव में चैतन्य ब्रह्म इन सबसे अतीत है।
- जगत् इस ब्रह्म का विवर्तमात्र है। जो जल-बुद्बुद्वत् उसमें से अभिव्यक्त होता है और उसी में लय हो जाता है।
- माया व सृष्टि
(तत्त्व बोध); (भारतीय दर्शन)- सत्त्वादि तीन गुणों की साम्यावस्था का नाम अव्यक्त प्रकृति है। व्यक्त प्रकृति में सत्त्व गुण ही प्रधान होने पर उसके दो रूप हो जाते हैं–माया व अविद्या। विशुद्धि सत्त्व प्रधान माया और मलिन सत्त्वप्रधान अविद्या है।
- माया से अवच्छिन्न ब्रह्म ईश्वर तथा अविद्या से अवच्छिन्न जीव कहाता है।
- माया न सत् है न असत्, बल्कि अनिर्वचनीय है। समष्टि रूप से एक होती हुई भी व्यष्टि रूप से अनेक है। मायावच्छिन्न ईश्वर संकल्प मात्र से सृष्टि की रचना करता है। चैतन्य तो नित्य, सूक्ष्म व अपरिणामी है। जितने भी सूक्ष्म व स्थूल पदार्थ हैं वे माया के विकास हैं। त्रिगुणों की साम्यावस्था में माया कारण शक्ति रूप से विद्यमान रहती है। पर तमोगुण का प्राधान्य होने पर उसकी विक्षेप शक्ति के संपन्न चैतन्य से आकाश की, आकाश से वायु की, वायु से अग्नि की, अग्नि से जल की और जल से पृथिवी की क्रमशः उत्पत्ति होती है। इन्हें अपंचीकृत भूत कहते हैं। इन्हीं से आगे जाकर सूक्ष्म व स्थूल शरीरों की उत्पत्ति होती है।
- अविद्या की दो शक्तियाँ है।–आवरण व विक्षेप। आवरण द्वारा ज्ञान की हीनता और विक्षेप द्वारा राग द्वेष होता है।
- इंद्रिय व शरीर
(तत्त्व बोध); (भारतीय दर्शन)- आकाशादि अपंचीकृत भूतों के पृथक्-पृथक् सात्त्विक अंशों से क्रमशः श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिह्वा और घ्राण इंद्रिय की उत्पत्ति होती है।
- इन्हीं पाँच के मिलित सात्त्विक अंशों से बुद्धि, मन, चित्त व अहंकार की उत्पत्ति होती है। ये चारों मिलकर अंतःकरण कहलाते हैं।
- बुद्धि व पाँच ज्ञानेंद्रियों के सम्मेल को ज्ञानमयकोष कहते हैं। इसमें घिरा हुआ चैतन्य ही जीव कहलाता है। जो जन्म मरणादि करता है।
- मन व ज्ञानेंद्रियों के सम्मेल को मनोमय कोष कहते हैं। ज्ञानमय कोष की अपेक्षा यह कुछ स्थूल है।
- आकाशादि के व्यष्टिगत राजसिक अंशों से पाँच कर्मेंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं।
- और इन्हीं पाँचों के मिलित अंश से प्राण की उत्पत्ति होती है। वह पाँच प्रकार का होता है–प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। नासिका में स्थित वायु प्राण है, गुदा की ओर जाने वाला अपान है, समस्त शरीर में व्याप्त व्यान है, कंठ में स्थित उदान और भोजन का पाक करके बाहर निकलने वाला समान है।
- पाँच कर्मेंद्रियों व प्राण के सम्मेल से प्राणमय कोष बनता है।
- शरीर में यही तीन कोष काम आते हैं। ज्ञानमय कोष से ज्ञान, मनोमय कोष से इच्छा तथा प्राणमय कोष से क्रिया होती है।
- इन तीनों कोषों के सम्मेल से सूक्ष्म शरीर बनता है। इसी में वासनाएँ रहती हैं। यह स्वप्नावस्था रूप तथा अनुपभोग्य है।
- समष्टि रूप सूक्ष्म शरीर से आच्छादित चैतन्य सूत्रात्मा या हिरण्यगर्भ या प्राण कहा जाता है तथा उसी के व्यष्टि रूप से आच्छादित चैतन्य तैजस कहा जाता है।
- पंजीकृत उपरोक्त पंच भूतों से स्थूलशरीर बनता है। इसे ही अन्नमय कोष कहते हैं। यह जागृत स्वरूप तथा उपभोग्य है। वह चार प्रकार का है–जरायुज, अंडज, स्वेदज, व उद्भिज्ज (वनस्पति)।
- समष्टि रूप स्थूल शरीर से आच्छज्ञदित चैतन्य वैश्वानर या विराट कहा जाता है। तथा व्यष्टि रूप स्थूल शरीर से आच्छादित चैतन्य विश्व कहा जाता है।
- पंचीकृत विचार
(तत्त्व बोध); (भारतीय दर्शन) प्रत्येक भूत का आधा भाग ग्रहण करके उसमें शेष चार भूतों के 1/8-1/8 भाग मिला देने से वह पंचीकृत भूत कहलाता है। जैसे–1/2 आकश + 1/8 वायु + 1/8 तैजस + 1/8 जल + 1/8 पृथिवी, इन्हीं पंचीकृत भूतों से समष्टि व व्यष्टि रूप स्थूल शरीरों की उत्पत्ति होती है।
- मोक्ष विचार
(तत्त्व बोध); (भारतीय दर्शन) अविद्या वश ईश्वर व प्राज्ञ, सूत्रात्मा व तैजस, वैश्वानर व विश्व आदि में भेद की प्रतीति होती है। तत्त्वमसि ऐसा गुरु का उपदेश पाकर उन सर्व भेदों से परे उस अद्वैत ब्रह्म की ओर लक्ष्य जाता है । तब पहले ‘सोऽहं’ और पीछे ‘अहं ब्रह्म’ की प्रतीति होने से अज्ञान का नाश होता है। चित्त वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। चित्प्रतिबिंब ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। यही जीव व ब्रह्म का ऐक्य है। यही ब्रह्म साक्षात्कार है। इस अवस्था की प्राप्ति के लिए श्रवण, मनन, निदिध्यासन व अष्टांग योग साधन की आवश्यकता पड़ती है। यह अवस्था आनंदमय तथा अवाङ्मनसगोचर है। तत्पश्चात् प्रारब्ध कर्म शेष रहने तक शरीर में रहना पड़ता है। उस समय तक वह जीवन्मुक्त कहलाता है। अंत में शरीर छूट जाने पर पूर्ण मुक्ति हो जाती है।
- प्रमाण विचार
(भारतीय दर्शन)- प्रमाण छह हैं–प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति व अनुपलब्धि। पिछले चार के लक्षण मीमांसकों वत् हैं। चित्त वृत्तिका इंद्रिय द्वार से बाहर निकलकर विषयाकार हो जाना प्रत्यक्ष है। पर ब्रह्मका प्रत्यक्ष चित्त वृत्ति से निरपेक्ष है।
- इस प्रत्यक्ष के दो भेद हैं–सविकल्प व निर्विकल्प अथवा जीव साक्षी व ईश्वर साक्षी अथवा ज्ञप्तिगत व ज्ञेयगत अथवा इंद्रियज व अतींद्रियज। सविकल्प व निर्विकल्प तो नैयायिकों वत् है। अंतःकरण की उपाधि सहित चैतन्य का प्रत्यक्ष जीव साक्षी है जो नाना रूप है। इसी प्रकार मायोपहित चैतन्य का प्रत्यक्ष ईश्वर साक्षी है जो एक रूप है। ज्ञप्तिगत स्वप्रकाशक है और ज्ञेयगत ऊपर कहा गया है। पाँचों इंद्रियों का ज्ञान इंद्रिय प्रत्यक्ष और सुख-दुःख का वेदन अतींद्रिय प्रत्यक्ष है।
- व्याप्ति ज्ञान से उत्पन्न अनुमति के कारण को अनुमान कहते हैं। वह केवल अन्वय रूप ही होता है व्यतिरेक रूप नहीं। नैयायिकों की भाँति तृतीय लिंग परामर्श का स्वीकार नहीं करते।
- शंकर वेदांत का तत्त्व विचार
- भास्कर वेदांत या द्वैताद्वैत
- सामान्य परिचय
स्या./सं.मं./परि-च./441 ई.श.10 में भट्ट भास्कर ने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य रचा। इनके यहाँ ज्ञान व क्रिया दोनों मोक्ष के कारण हैं। संसार में जीव अनेक रहते हैं। परंतु मुक्त होने पर सब ब्रह्म में लय हो जाते हैं। ब्रह्म व जगत् में कारण कार्य संबंध है, अतः दोनों ही सत्य हैं।
- तत्त्व विचार
(भारतीय दर्शन)- मूल तत्त्व एक है। उसके दो रूप हैं–कारण ब्रह्म व कार्य ब्रह्म।
- कारण ब्रह्म एक, अखंड, व्यापक, नित्य, चैतन्य है और कार्य ब्रह्म जगत् स्वरूप व अनित्य है।
- स्वतः परिणामी होने के कारण वह कारण ब्रह्म ही कार्य ब्रह्म में परिणमित हो जाता है।
- जीव व जगत् का प्रपंच ये दोनों उसी ब्रह्म की शक्तियाँ हैं। प्रलयावस्था में जगत् का सर्व प्रपंच और मुक्तावस्था में जीव स्वयं ब्रह्म में लय हो जाते हैं । जीव उस ब्रह्म की भोक्तृशक्ति है और आकाशादि उसके भोग्य।
- जीव अणु रूप व नित्य है। कर्तृत्व उसका स्वभाव नहीं है। 6. जड़ जगत् भी ब्रह्म का ही परिणाम है। अंतर केवल इतना है कि जीव में उसकी अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष है और उसमें अप्रत्यक्ष।
- मुक्ति विचार
(भारतीय दर्शन)- विद्या के निरंतर अभ्यास से ज्ञान प्रगट होता है और आजीवन शम, दम आदि योगानुष्ठानों के करने से शरीर का पतन, भेद का नाश, सर्वज्ञत्व की प्राप्ति और कर्तृत्व का नाश हो जाता है।
- निवृत्ति मार्ग के क्रम में इंद्रियाँ मन में, बुद्धि आत्मा में और अंत में वह आत्मा भी परमात्मा में लय हो जाता है।
- मुक्ति दो प्रकार की है–सद्योमुक्ति व क्रममुक्ति। सद्योमुक्ति साक्षत् ब्रह्म को उपासना से तत्क्षण प्राप्त होता है। और क्रममुक्ति, कार्य ब्रह्म द्वारा सत्कृत्यों के कारण देवयान मार्ग से अनेकों लोकों में घूमते हुए हिरण्यगर्भ के साथ-साथ होती है।
- जीवन्मुक्ति कोई चीज नहीं। बिना शरीर छूटे मुक्ति असंभव है।
- सामान्य परिचय
- रामानुज वेदांत या विशिष्टाद्वैत
- सामान्य परिचय
(भारतीय दर्शन) यामुन मुनि के शिष्य रामानुजने ई. 1050 में श्री भाष्य व वेदांतसार की रचना द्वारा विशिष्टाद्वैत का प्रचार किया है। क्योंकि यहाँ चित् व अचित् को ईश्वर के विशेष रूप से स्वीकार किया गया है। इसलिए इसे विशिष्टाद्वैत कहते हैं। इसके विचार बहुत प्रकार से निंबार्क वेदांत से मिलते हैं। (देखें वेदांत - 5)।
- तत्त्व विचार
भारतीय दर्शन- मम बुद्धि से भिन्न ज्ञान का आश्रयभूत, अणु प्रमाण, निरवयव, नित्य, अव्यक्त, अचिंत्य, निर्विकार, आनंदरूप जीवात्मा चित् है। यह ईश्वर की बुद्धि के अनुसार काम करता है।
- संसारी जीव बद्ध हैं इनमें भी प्रारब्ध कर्म का आश्रय लेकर मोक्ष की प्रतीक्षा करने वाले दृप्त और शीघ्र मोक्ष की इच्छा करने वाले आर्त हैं। अनुष्ठान विशेष द्वारा बैकुंठ को प्राप्त होकर वहाँ भगवान् की सेवा करते हुए रहने वाला जीव मुक्त है। यह सर्व लोकों में अपनी इच्छा से विचरण करता है। कभी भी संसार में न आने वाला तथा सदा ईश्वरेच्छा के आधीन रहने वाला नित्य जीव है। भगवान् के अवतार के समान इसके भी अवतार स्वेच्छा से होते हैं।
- अचित् जड़ तत्त्व व विचारवान् होता है। रजतम गुण से रहित तथा आनंदजनक शुद्धसत्त्व है। बैकुंठ धाम तथा भगवान् के शरीरों के निर्माण का कारण है। जड़ है या अजड़ यह नहीं कहा जा सकता। त्रिगुण मिश्रित तथ बद्ध पुरुषों के ज्ञान व आनंद का आवरक मिश्रसत्त्व है। प्रकृति, महत्, अहंकार, मन, इंद्रिय, विषय, व भूत इस ही के परिणाम हैं। यही अविद्या या माया है। त्रिगुण शून्य तथा सृष्टि प्रलय का कारण काल सत्त्वशून्य है।
- चित् अचित् तत्त्वों का आधार, ज्ञानानंद स्वरूप, सृष्टि व प्रलयकर्ता, भक्त प्रतिपालक व दुष्टों का निग्रह करने वाला ईश्वर है। नित्य आनंद स्वरूप व अपरिणामी ‘पर’है। भक्तों की रक्षा व दुष्टों का निग्रह करने वाला व्यूह है। संकर्षण से संहार, प्रद्युम्न से धर्मोपदेश व वर्गों की सृष्टि तथा अनिरुद्ध से रक्षा, तत्त्वज्ञान व सृष्टि होती है । भगवान् का साक्षात् अवतार मुख्य है और शक्त्यावेश अवतार गौण। जीवों के अंतःकरण की वृत्तियों का नियामक अंतर्यामी है और भगवान् की उपास्य मूर्ति अर्चावतार है।
- ज्ञान व इंद्रिय विचार
(भारतीय दर्शन)- ज्ञान स्वयं गुण नहीं द्रव्य है। सुख, दुःख, इच्छा, प्रयत्न ये ज्ञान के ही स्वरूप हैं। यह नित्य आनंद स्वरूप व अजड़ है। आत्मा संकोच विस्तार रूप नहीं है पर ज्ञान है। आत्मा स्व प्रकाशक और ज्ञान पर प्रकाशक है। अचित् के संसर्ग से अविद्या, कर्म व वासना व रुचि से वेष्टित रहता है। बद्ध जीवों का ज्ञान अव्यापक, नित्य जीवों का सदा व्यापक और मुक्त जीवों का सादि अनंत व्यापक होता है।
- इंद्रिय अणु प्रमाण है। अन्य लोकों में भ्रमण करते समय इंद्रिय जीव के साथ रहती है। मोक्ष होने पर छूट जाती है।
- सृष्टि व मोक्ष विचार
(भारतीय दर्शन)- भगवान् के संकल्प विकल्प से मिश्रसत्त्व की साम्यावस्था में वैषम्य आने पर जब वह कर्मोन्मुख होती है तो उससे महत् अहंकार, मन ज्ञानेंद्रिय व कर्मेंद्रिय उत्पन्न होती है। मुक्त जीवों की छोड़ी हुई इंद्रियाँ जो प्रलय पर्यंत संसार में पड़ी रहती हैं, उन जीवों के द्वारा ग्रहण कर ली जाती हैं जिन्हें इंद्रियाँ नहीं होती।
- भगवान् के नाभि कमल से ब्रह्मा, उनसे क्रमशः देवर्षि, ब्रह्मर्षि, 9 प्रजापति, 10 दिक्पाल, 14 इंद्र, 14 मनु, 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य, देवयोनि, मनुष्यगण, तिर्यग्गण और स्थावर उत्पन्न हुए (विशेष देखें वेदांत - 6)।
- लक्ष्मीनारायण की उपासना के प्रभाव से स्थूल शरीर के साथ-साथ सुकृत दुष्कृत के भोग का भी नाश होता है। तब यह जीव सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर ब्रह्म-रंध्र से निकलता है। सूर्य की किरणों के सहारे अग्नि लोक में जाता है। मार्ग में–दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण व संवत्सर के अभिमानी देवता इसका सत्कार करते हैं। फिर ये सूर्यमंडल को भेदकर पहले सूर्यलोक में पहुँचते हैं। वहाँ से आगे क्रम पूर्वक चंद्रविद्युत् वरुण, इंद्र व प्रजापतियों द्वारा मार्ग दिखाया जाने पर अतिवाहक गणों के साथ चंद्रादि लोकों से होता हुआ वैकुंठ की सीमा में ‘विरजा’ नाम के तीर्थ में प्रवेश करता है। यहाँ सूक्ष्म शरीर को छोड़कर दिव्य शरीर धारण करता है, जिसका स्वरूप चतुर्भुज है। तब इंद्र आदि की आज्ञा से वैकुंठ में प्रवेश करता है। तहाँ ‘एरमद’ नामक अमृत सरोवर व ‘सोमसवन’ नामक अश्वत्थ को देखकर 500 दिव्य अप्सराओं से सत्कारित होता हुआ महामंडप के निकट अपने आचार्य के पलँग के पास जाता है। वहाँ साक्षात् भगवान् को प्रणाम करता है। तथा उसकी सेवा में जुट जाता है। यही उसकी मुक्ति है।
- प्रमाण विचार
भारतीय दर्शन- यथार्थ ज्ञान स्वतः प्रमाण है। इंद्रियज्ञान प्रत्यक्ष है। योगज प्रत्यक्ष स्वयंसिद्ध और भगवत्प्रसाद से प्राप्त दिव्य है।
- व्याप्तिज्ञान अनुमान है। पाँच अवयवों का पक्ष नहीं। 5, 3, वा 2 जितने भी अवयवों से काम चले प्रयोग किये जा सकते हैं। उपमान अर्थापत्ति आदि सब अनुमान में गर्भित है।
- सामान्य परिचय
निंबार्क वेदांत या द्वैताद्वैतवाद
- माध्व वेदांत या द्वैतवाद
- सामान्य परिचय
ई. श. 12-13 में पूर्ण प्रज्ञा माध्व देव द्वारा इस मत का जन्म हुआ। न्याय सुधा व पदार्थ संग्रह इसके मुख्य ग्रंथ हैं। अनेक तत्त्व मानने से भेदवादी है।
- तत्त्व विचार
पदार्थ 10 हैं–द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य व अभाव।
- द्रव्य विचार
- द्रव्य दो-दो भागों में विभाजित है–गमन प्राप्य, उपादान कारण, परिणाम व परिणामी दोनों स्वरूप, परिणाम व अभिव्यक्ति। उसके 20 भेद हैं–परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृतआकाश, प्रकृति, गुणत्रय, महत्तत्त्व, अहंकार, बुद्धि, मन, इंद्रिय, तन्मात्रा, भूत, ब्रह्मांड, अविद्या, वर्ण, अंधकार, वासना, काल तथा प्रतिबिंब।
- परमात्मा–यह शुद्ध, चित्स्वरूप, सर्वज्ञाता, सर्वद्रष्टा, नित्य, एक, दोष व विकार रहित, सृष्टि, संहार, स्थिति, बंध, मोक्ष आदि का कर्ता, ज्ञान शरीरी तथा मुक्त पुरुष से भी परे है। जीवों व भगवान् के अवतारों में यह ओत-प्रोत है। मुक्त जीव तो स्वेच्छा से शरीर धारण करके छोड़ देता है। पर यह ऐसा नहीं करता। इसका शरीर अप्राकृत है।
- लक्ष्मी–परमात्मा की कृपा से लक्ष्मी, उत्पत्ति, स्थिति व लय आदि संपादन करती है। ब्रह्मा आदि लक्ष्मी के पुत्र हैं। नित्य मुक्त व आप्त काम हैं। लक्ष्मी परमात्मा की पत्नी समझी जाती है। श्री, भू, दुर्गा, नृणी, ह्री, महालक्ष्मी, दक्षिणा, सीता, जयंती, सत्या, रुक्मिणी, आदि सब लक्ष्मी की मूर्तियाँ हैं। अप्राकृत शरीर धारिणी है।
- जीव–ब्रह्मा आदि भी संसारी जीव हैं। यह असंख्य है। अज्ञान, दुख, भय आदि से आवृत हैं एक परमाणु प्रदेश में अनंत जीव रह सकते हैं। इसके तीन भेद हैं–मुक्ति योग्य, तमो योग्य व नित्य संसारी। ब्रह्मा आदि देव, नारदादि ऋषि, विश्वामित्रादि पितृ, चक्रवर्ती व मनुष्योत्तम मुक्ति योग्य संसारी है। तमो योग्य संसारी दो प्रकार हैं–चतुर्गणोपासक, एकगुणोपासक है। उपासना द्वारा कोई इस शरीर में रहते हुए भी मुक्ति पाता है। तमोयोग्य जीव पुनः अपि चार प्रकार है–दैत्य, राक्षस, पिशाच तथा अधम मनुष्य। नित्य संसारी जीव सदैव सुख भोगते हुए नरकादि में घूमते रहते हैं। ये अनंत हैं।
- अव्याकृत आकाश–यह नित्य व विभु है, परंतु भूताकाश से भिन्न है। वैशेषिक के दिक् पदार्थ वत् है।
- प्रकृति–जड़, परिणामी, सत्त्वादि गुणत्रय से अतिरिक्त, अव्यक्त व नाना रूप है। नवीन सृष्टि का कारण तथा नित्य है। लिंग शरीर की समष्टि रूप है।
- गुणत्रय–सत्त्व, रजस् व तनस् ये तीन गुण हैं। इनकी साम्यावस्था को प्रलय कहते हैं। रजो गुण से सृष्टि, सत्त्व गुण से स्थिति, तथा तमोगुण से संहार होता है।
- महत्–त्रिगुणों के अंशों के मिश्रण से उत्पन्न होता है। बुद्धि तत्त्व का कारण है।
- अहंकार–इसका लक्षण सांख्य वत् है। यह तीन प्रकार का है–वैकारिक, तैजस व तामस।
- बुद्धि–महत् से बुद्धि की उत्पत्ति होती है। यह दो प्रकार है–तत्त्व रूप व ज्ञान रूप।
- मनस्–यह दो प्रकार है–तत्त्वरूप व तत्त्वभिन्न। प्रथम की उत्पत्ति वैकारिक अंहकार से होती है। तत्त्व-भिन्न मन इंद्रिय है। वह दो प्रकार है–नित्य व अनित्य। परमात्मा आदि सब जीवों के पास रहने वाला नित्य है। बद्ध जीवों का मन अचेतन व मुक्त जीवों का चेतन है। अनित्य मन बाह्य पदार्थ है। तथा सर्व जीवों के पास है। यह पाँच प्रकार है–मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त व चेतना। मन संकल्प विकल्पात्मक है। निश्चयात्मिक बुद्धि है। पर में स्व की मति अंहकार है। स्मरण का हेतु चित्त है। कार्य करने की शक्ति स्वरूप चेतना है।
- इंद्रिय–तत्त्वभूत व तत्त्वभिन्न दोनों प्रकार की ज्ञानेंद्रियाँ व कर्मेंद्रियाँ, नित्य व अनित्य दो-दो प्रकार की हैं। अनित्य इंद्रियाँ तैजस अंहकार की उपज हैं। और नित्य इंद्रियाँ परमात्मा व लक्ष्मी आदि सब जीवों के स्वरूप भूत हैं। ये साक्षी कहलाती हैं।
- तन्मात्रा–शब्द स्पर्शादि रूप पाँच हैं। ये दो प्रकार हैं। तत्त्व रूप व तत्त्वभिन्न। तत्त्व रूप की उपज तामस अहंकार से है। (सांख्य वत्)।
- भूत–पाँच तन्मात्राओं से उत्पन्न होने वाले आकाश पृथिवी आदि पाँच भूत हैं। (सांख्य वत्)।
- ब्रह्मांड–पचास कोटि योजन विस्तीर्ण ब्रह्मांड 24 उपादानों से उत्पन्न होता है। विष्णु का बीज है। घड़े के दो कपालों वत् इसके दो भाग हैं। ऊपरला भाग ‘द्यौ’ और निचला भाग ‘पृथिवी’ कहलाता है। इसी में चौदह भुवनों का अवस्थान है। भगवान् ने महत् आदि तत्त्वों के अंश को उदर में रखकर ब्रह्मांड में प्रवेश किया है। तब उसकी नाभि में कमल उत्पन्न हुआ, जिससे चतुर्मुख ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् देवता, मन, आकाश आदि पाँच भूतों की क्रमशः उत्पत्ति हुई।
- अविद्या–पाँच भूतों के पश्चात् सूक्ष्म माया से भगवान् ने स्थूल अविद्या उत्पन्न की, जिसको उसने चतुर्मुख में धारण किया। इसकी पाँच श्रेणियाँ हैं–मोह, महामोह, तामिस्र, अंध तामिस्र, तथा तम, विपर्यय, आग्रह, क्रोध, मरण, तथा शार्वर क्रमशः इनके नामांतर हैं।
- वर्णतत्त्व–सर्व शब्दों के मूल भूत वर्ण 51 हैं। वह नित्य है तथा समवाय संबंध से रहित है।
- अंधकार–यह भाव रूप द्रव्य है। जड़ प्रकृति से उत्पन्न होता है। इतना धनीभूत हो सकता है कि हथियारों से काटा जा सके।
- वासना–स्वप्न ज्ञान के उपादान कारण को वासना कहते हैं। स्वप्न ज्ञान सत्य है। जाग्रतावस्था के अनुभवों से वासना उत्पन्न होती है और अंतःकरण में टिक जाती है। इस प्रकार अनादि की वासनाएँ संस्कार रूप से वर्तमान हैं, जो स्वप्न के विषय बनते हैं। ‘मनोरथ’ प्रयत्न सापेक्ष है और ‘स्वप्न’ अदृष्ट सापेक्ष। यही दोनों में अंतर है।
- काल–प्रकृति से उत्पन्न, क्षण लव आदि रूप काल अनित्य है, परंतु इसका प्रवाह नित्य है।
- प्रतिबिंब–बिंब से पृथक्, क्रियावान, तथा बिंब के सदृश प्रतिबिंब है। परमात्मा का प्रतिबिंब दैत्यों में है। यह दो प्रकार है–नित्य व अनित्य। सर्व जीवों में परमात्मा का प्रतिबिंब नित्य है तथा दर्पण में मुख का प्रतिबिंब अनित्य है। छाया, परिवेष, चंद्रचाप, प्रतिसूर्य, प्रतिध्वनि, स्फटिक का लौहित्य इत्यादि भी प्रतिबिंब कहलाते हैं।
- गुण कर्मादि शेष पदार्थ विचार
- द्रव्य के लिए देखें उपरोक्त शीर्षक ।
- दोष से भिन्न गुण हैं। यह अनेक हैं–जैसे रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, गुरुत्व, लघुत्व, मृदुत्व, काटिन्य, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, आलोक, शम, दम, कृपा, तितिक्षा, बल, भय, लज्जा, गांभीर्य, सौंदर्य, धैर्य, स्थैर्य, शौर्य, औदार्य, सौभाग्य आदि। रूप, रस, गंध, स्पर्श व शब्द ये पाँच गुण पृथिवी में पाकज हैं और अन्य द्रव्यों में अपाकज। ये लोग पीलुपाक वाद (देखें वैशेषिक ) नहीं मानते।
- पुण्य पाप का असाधारण व साक्षात् कारण कर्म है, जो तीन प्रकार है ...विहित, निषिद्ध और उदासीन। वेद विहित क्रियाएँ विहित कर्म हैं। यह दो प्रकार है–फलेच्छा सापेक्ष ‘काम्य कर्म तथा ईश्वर को प्राप्त करने के लिए ‘अकाम्य’ कर्म। काम्य कर्म दो प्रकार है–प्रारब्ध और अप्रारब्ध। अप्रारब्ध भी दो प्रकार है–इष्ट व अनिष्ट। वेद निषिद्ध कार्य निषिद्ध कर्म है। उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, गमन, भ्रमण, वमन, भोजन, विदारण इत्यादि साधारण कर्म उदासीन कर्म है। कर्म के अन्य प्रकार भी दो भेद हैं–नित्य और अनित्य। ईश्वर के सृष्टि संहार आदि नित्य कर्म हैं। अनित्य वस्तु भूत शरीरादि के कार्य अनित्य कर्म है।
- सामान्य–दो प्रकार का है–नित्य और अनित्य। अन्य प्रकार से जाति व उपाधि इन दो भेदों रूप है। ब्राह्मणत्व आदि जाति सामान्य है। और प्रमेयत्व जीवत्व आदि उपाधि सामान्य है। यावद्वस्तु भावि जाति नित्य सामान्य है और ब्राह्मणत्वादि यावद्वस्तु भावि जाति अनित्य सामान्य है। सर्वज्ञत्व रूप उपाधि नित्य सामान्य है और प्रमेयत्वादि अनित्य सामान्य है।
- देखने में भेद न होने पर भी भेद के व्यवहार का कारण गुण गुणी का भेद विशेष है। नित्य व अनित्य दो प्रकार का है। ईश्वरादि नित्य द्रव्यों में नित्य और घटादि अनित्य द्रव्यों में अनित्य है।
- विशेषण के संबंध से विशेष का जो आकार वही विशिष्ट है। यह भी नित्य व अनित्य है। सर्वज्ञत्वादि विशेषणों से विशिष्ट परब्रह्म नित्य है और दंडे से विशिष्ट दंडी अनित्य।
- हाथ, वितस्ति आदि से अतिरिक्त पट, गगन आदि, प्रत्यक्ष सिद्ध पदार्थ अंशी हैं। यह भी नित्य व अनित्य दो प्रकार हैं। आकाशादि नित्य अंशी है और पट आदि अनित्य।
- शक्ति चार प्रकार है–अचिंत्य शक्ति, सहज शक्ति, आधेय और पद शक्ति। परमात्मा व लक्ष्मी आदि की अणिमा महिमा आदि शक्तियाँ अचिंत्य हैं। कार्यमात्र के अनुकूल स्वभाव रूप शक्ति ही सहज शक्ति है जैसे दंड आदि में घट बनाने की शक्ति। यह नित्य द्रव्यों में नित्य और अनित्य द्रव्यों में अनित्य होती है। आहित या स्थापित आधेय शक्ति कहलाती है जैसे प्रतिमा में भगवान्। पद व उसके अर्थ में वाच्य वाचकपने की शक्ति पदशक्ति है। वह दो प्रकार है–मुख्या व परमुख्या। परमात्मा में सब शब्दों की शक्ति परमुख्या है और शब्द में केवल मुख्या।
- ‘यह उसके सदृश है’ ऐसे व्यवहार का कारण पदार्थ ‘सादृश’ कहलाता है। यह नाना है। नित्य द्रव्य में नित्य और अनित्य द्रव्य में अनित्य है।
- ज्ञान में निषेधात्मक भाव ‘अभाव’ है। वह चार प्रकार है–प्राक्, प्रध्वंस, अन्योन्य व अत्यंत। कार्य की उत्पत्ति से पूर्व अभाव को प्रागभाव, उसके नाश हो जाने पर प्रध्वंसाभाव है। सार्वकालिक परस्पर में अभाव अन्योन्याभाव है। वह नित्य व अनित्य दो प्रकार है। अनित्य पदार्थों में परस्पर अभाव अनित्य है और नित्य पदार्थों में नित्य। अप्रामाणिक वस्तु में अत्यंताभाव–जैसे शशशृंग।
- सृष्टि व प्रलय विचार
- सृष्टि का क्रम निम्न प्रकार है–इच्छा युक्त परमात्मा ‘प्रकृति’ के गर्भ में प्रवेश करके उसके त्रिगुणों में विषमता उत्पन्न करने के द्वारा उसे कार्योन्मुख करता है। फलस्वरूप महत् से ब्रह्मांड पर्यंत तत्त्व तथा देवताओं की सृष्टि होती है। फिर चेतन अचेतन अंशों को उदर में निक्षेप कर हजार वर्ष पश्चात् नाभि में एक कमल उत्पन्न होता है, जिससे चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। ब्रह्मा के सहस्र वर्ष पर्यंत तपश्चरण से प्रसन्न परमात्मा पंचभूत उत्पन्न करता है, फिर सूक्ष्म रूपेण चौदह लोकों का चतुर्मुख में प्रवेशकर स्थूल रूपेण चौदह लोकों को उत्पन्न करते हैं। बाद में सब देवता अंड के भीतर से उत्पन्न होते हैं। (और भी देखें वेदांत - 4)।
- धर्म संकट में पड़ जाने पर दश अवतार होते हैं–मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, राम, परशुराम, श्री कृष्ण, बुद्ध, कल्की। श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं और शेष अवतार परमात्मा के अंश।
- प्रलय दो प्रकार है–महाप्रलय व अवांतर प्रलय। महाप्रलय में प्रकृति के तीन गुणों का व महत् आदि तत्त्वों का तथा समस्त देवताओं का विध्वंस, भगवान् के मुख से प्रगटी ज्वाला में हो जाता है। एक वट के पत्र पर शून्य नाम के नारायण शयन करते हैं, जिनके उदर में सब जीव प्रवेश करके रहते हैं। अवांतर प्रलय दो प्रकार है–दैनंदिक तथा मनुप्रलय। दैनंदिक में तीनों लोकों का नाश होता है। पर इंद्रादिक महर्लोक को चले जाते हैं। मनुप्रलय में भू लोक में मनुष्यादि मात्र का नाश होता है, अन्य दोनों लोकों के वासी महर्लोक को चले जाते हैं।
- मोक्ष विचार
- भक्ति, कीर्तन, जप व्रतादि से मोक्ष होता हैं वह चार प्रकार है–कर्मक्षय, उत्कांतिलय, अर्चिरादि मार्ग और भोग। इनमें से नं. 2 व 3 वाला मोक्ष मनुष्यों को ही होता है, देवताओं आदि को नहीं।
- अपरोक्ष ज्ञान उत्पन्न होने पर समस्त नवीन पुण्य व पाप कर्मों का नाश हो जाता है। कल्पों पर्यंत भोग करके प्रारब्ध कर्म का नाश होता है। प्रारब्ध कर्म के नाश के पश्चात् सुषुम्नानाड़ी या ब्रह्मनाड़ी द्वारा देह से निकल कर आत्मा ऊपर उठता है। तब या तो चतुर्मुख (ब्रह्मा) तक और या परमात्मा तक पहुँच जाता है। यही कर्मक्षय मोक्ष है। अत्यंत दीर्घ काल के लिए देव योनि में चले जाना अतिक्रांति मुक्ति है, यह वास्तविक मुक्ति नहीं।
- क्रम मुक्ति–उत्तरोत्तर देहों में क्रमशः लय होते-होते, चतुर्मुख के मुख में जब जीव प्रविष्ट होता है तब ब्रह्मा के साथ-साथ विरजा नदी में स्नान करने से उसके लिंग शरीर का नाश हो जाता है। इसके नाश होने पर जीवत्व का भी नाश समझा जाता है।–(विशेष देखें वेदांत - 6)।
- भोगमोक्ष–अपनी-अपनी उपासना की तारतम्यता के अनुसार सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य और सायुज्य, इन चार प्रकार के मोक्षें में ब्रह्मादिकों के भोगों में भी तारतम्यता रहती है, पर वे संसार में नहीं आते।
- कारण कार्य विचार
कारण दो प्रकार है–उपादान व अपादान या निमित्त। परिणामी कारण को उपादान कहते हैं। कार्य की उत्पत्ति से पूर्व वह सत् है और उत्पत्ति के पश्चात् असत्। उपादान व उपादेय में भेद व अभेद दोनों हैं। गुण क्रिया आदि में अभेद है और द्रव्य के साथ न रहने वालों में भेद व अभेद दोनों।
- ज्ञान व प्रमाण विचार
- आत्मा, मन, इंद्रिय व विषयों के सन्निकर्ष से होने वाला आत्मा का परिणाम ज्ञान है। वह सविकल्प ही होता है। ममता रूप, व अपरोक्ष रूप। ममता रूप संसार का और अपरोक्ष रूप मोक्ष का कारण है। तथा वैराग्य आदि से उत्पन्न होता है। ऋषिलोग अंतर्दृष्टि, मनुष्य बाह्य दृष्टि और देवता लोग सर्वदृष्टि हैं।
- स्व प्रकाशक होने के कारण ज्ञान स्वतः प्रमाण है । वह तीन प्रकार है–प्रत्यक्ष अनुमान व शब्द ।
- प्रत्यक्ष आठ प्रकार है–साक्षी, यथार्थ ज्ञान तथा छः इंद्रियों से साक्षत् उत्पन्न ज्ञान।
- अनुमान तीन प्रकार है–केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी। पाँच अवयवों का नियम नहीं। यथावसर हीनाधिक भी हो सकते हैं।
- शब्द–दो प्रकार है–पौरुषेय व अपौरुषेय। आप्तोक्त पौरुषेय है और वेद वाक्य अपौरुषेय है।
- सामान्य परिचय
- शुद्धाद्वैत (शैव दर्शन)
- सामान्य परिचय
ई. श. 15 में इसकी स्थापना हुई। वल्लभ, श्रीकंठ व भास्कर इसके प्रधान संस्थापक थे। श्रीकंठकृत शिवसूत्र व भास्कर कृत वार्तिक प्रधान ग्रंथ हैं। इनके मत में ब्रह्म के पर अपर दो रूप नहीं माने जाते। पर ब्रह्म ही एक तत्त्व है। ब्रह्म अंशी और जड़ व अजड़ जगत् इसके दो अंश हैं।
- तत्त्व विचार
- शिव ही केवल एक सत् है। शंकर वेदांत मान्य माया व प्रकृति सर्वथा कुछ नहीं है। उस शिव की अभिव्यक्ति 16 प्रकार से होती है–परम शिव, शक्ति, सदाशिव, ईश्वर, शुद्धविद्या, माया, माया के पाँच कुंचक या कला, विद्या, राग, काल, नियति, पुरुष, प्रकृति, महान् या बुद्धि, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेंद्रिय, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ और पाँच भूत। उनमें से पुरुष आदि तत्त्व तो सांख्यवत् है। शेष निम्न प्रकार हैं।–
- एक व्यापक, नित्य, चैतन्य, स्वरूप शिव है। जड़ व चेतन सब में यही ओतप्रोत है। आत्मा, परमेश्वर व परासंवित् इसके अपरनाम हैं।
- सृष्टि, स्थिति व संहार (उत्पाद, ध्रौव्य, व्यय) यह तीन उस शिव की शक्तियाँ हैं। सृष्टि शक्ति द्वारा वह स्वयं विश्वाकार होता है। स्थिति शक्ति से विश्व का प्रकाशक, संहार शक्ति से सबको अपने में लय कर लेता है। इसके पाँच भेद हैं–चित्, आनंद, ज्ञान, इच्छा व क्रिया।
- ‘अहं’ प्रत्यय द्वारा सदा अभिव्यक्त रहने वाला सदाशिव है। यहाँ इच्छा शक्ति का प्राधान्य है।
- जगत् की क्रमिक अभिव्यक्ति करता हुआ वही सदाशिव ईश्वर है। यहाँ ‘इदं अहं’ की भावना होने के कारण ज्ञान शक्ति का प्राधान्य है।
- ‘अहं इदं’ यह भावना शुद्धविद्या है।
- ‘अहं’ पुरुष रूप में और ‘इदं’ प्रकृति रूप में अभिव्यक्त होकर द्वैत को स्पष्ट करते हैं यही शिव की माया है।
- इस माया के कारण वह शिव पाँच कंचुकों में अभिव्यक्त होता है। सर्व कर्ता से असर्व कर्ता होने के कारण कलावान् है, सर्वज्ञ से असर्वज्ञ होने के कारण विद्यावान्, अपूर्णता के बोध के कारण रागी, अनित्यत्व के बोध के कारण काल सापेक्ष तथा संकुचित ज्ञान शक्ति के कारण नियतिवान् हो जाता है।
- इन पाँच कंचुकों से आवेष्टित पुरुष संसारी हो जाता है।
- सृष्टि व मुक्ति विचार
- जैसे वट बीज में वट वृक्ष की शक्ति रहती है वैसे ही शिव में 35 तत्त्व सदा शक्तिरूप से विद्यमान हैं। उपर्युक्त क्रम से वह शिव ही संसारी होता हुआ सृष्टि की रचना करता है।
- पाँच कंचुकों से आवृत पुरुष की शक्ति संकुचित रहती है। सूक्ष्म तत्त्व में प्रवेश करने पर वह अपने को प्रकृति के सूक्ष्म रूप के बराबर समझता हुआ। ‘यह मैं हूँ’ ऐसे द्वैत की प्रतीति करता है। इस प्रतीति में ‘यह’ और ‘मैं’ समान महत्त्व वाले होते हैं। तत्पश्चात् ‘यह मैं हूँ’ की प्रतीति होती है। यहाँ ‘यह’ प्रधान है और ‘मैं’ गौण। आगे चलकर ‘यह’ ‘मैं’ में अंतर्लीन हो जाता है। तब ‘मैं हूँ’ ऐसी प्रतीति होती है। यहाँ भी ‘मैं’ और ‘हूँ’ का द्वैत है। यही सदाशिव तत्त्व है। पश्चात् इससे भी सूक्ष्म भूमि में प्रवेश करने पर केवल ‘अहं’ की प्रतीति होती है यही शक्ति तत्त्व है। यह परम शिव की उन्मीलनावस्था है। यहाँ आनंद का प्रथम अनुभव होता है। यह प्रतीति भी पीछे परम शिव में लीन होने पर शून्य प्रतीति रह जाती है। यहाँ वास्तव में सर्व चिन्मय दिखने लगता है। यही वास्तविक अद्वैत है।
- जब तक शरीर में रहता है तब तक जीवनमुक्त कहाता है। शरीर पतन होने पर शिव में प्रविष्ट हो जाता है। यहाँ आकर ‘एकमेवाद्वितीयं नेह नानास्ति किंचन’ तथा ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ का वास्तविक अनुभव होता है।
- सामान्य परिचय