वैनयिक: Difference between revisions
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<span class="GRef"> दर्शनसार/ </span>मू./18-19 <span class="PrakritGatha">सव्वेसु य तित्थेसु य वेणइयाणं समुब्भवो अत्थि। सजडा मुंडियसीसा सिहिणो णंगा य केइ य।18। दुट्ठे गुणवंते वि य समया भत्ती य सव्वदेवाणं। णमणं दंडुव्व जणे परिकलियं तेहि मूढेहिं।19।</span> =<span class="HindiText"> सभी तीर्थंकरों के तीर्थों में वैनयिकों का उद्भव होता रहा है। उनमें कोई जटाधारी, कोई मुंडे, कोई शिखाधारी और कोई नग्न रहे हैं।18। चाहे दुष्ट हो चाहे गुणवान् दोनों में समानता से भक्ति करना और सारे ही देवों को दंडवत् नमस्कार करना, इस प्रकार के सिद्धांतों को उन मूर्खों ने लोगों में चलाया।19। </span><br /> | |||
भावसंग्रह/ | भावसंग्रह/88, 89 <span class="PrakritGatha">वेणइयमिच्छादिट्ठी हवइ फुडं तावसो हु अण्णाणी। णिगुणजणं पि विणओ पउज्जमाणो हु गयविवेओ।88। विणयादो इह मोक्खं किज्जइ पुणु तेण गद्दहाईणं। अमुणिय गुणागुणेण य विणयं मिच्छत्तनडिएण।89। </span>=<span class="HindiText"> वैनयिक मिथ्यादृष्टि अविवेकी तापस होते हैं। निर्गुण जनों की यहाँ तक कि गधे की भी विनय करने अथवा उन्हें नमस्कार आदि करने से मोक्ष होता है, ऐसा मानते हैं। गुण और अवगुण से उन्हें कोई मतलब नहीं। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/888/1070 </span><span class="PrakritGatha"> मणवयणकायदाणगविणवो सुरणिवइणाणि जदिवुड्ढे। बाले पिदुम्मि च कायव्वो चेदि अट्ठचऊ।88। </span>= <span class="HindiText">देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता, पिता इन आठों की मन, वचन, काय व दान, इन चारों प्रकारों से विनय करनी चाहिए।88। <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/10/59 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/2/6/123 </span><span class="SanskritGatha">शिवपूजादिमात्रेण मुक्तिमभ्युपगच्छताम्। निःशंकं भूतघातोऽयं नियोगः कोऽपि दुर्विघेः।6।</span> = <span class="HindiText">शिव या गुरु की पूजादि मात्र से मुक्ति प्राप्त हो जाती है, जो ऐसा मानने वाले हैं, उनका दुर्दैव निःशंक होकर प्राणिवध में प्रवृत्त हो सकता है। अथवा उनका सिद्धांत जीवों को प्राणिवध की प्रेरणा करता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका 135/283/21 </span><span class="SanskritText"> मातृपितृनृपलोकादिविनयेन मोक्षक्षेपिणां तापसानुसारिणां द्वात्रिंशन्मतानि भवंति।</span> = <span class="HindiText">माता, पिता, राजा व लोक आदि के विनय से मोक्ष मानने वाले तापसानुसारी मत 32 होते हैं। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> विनयवादियों के 32 भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/1/12/562/10 </span><span class="SanskritText">वशिष्ठपाराशरजतुकर्णवाल्मीकिरोमहर्षिणिसत्यदत्तव्यासैलापुत्रौपमंयवेंद्रदत्तायस्थूला-दिमार्गभेदात् वैनयिकाः द्वात्रिंशद्गणना भवंति। </span>= <span class="HindiText">वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिणि, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यु, ऐंद्रदत्त, अयस्थूल आदिकों के मार्गभेद से वैनयिक 32 होते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/20/12/74/7 )</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1, 1, 2/108/3 )</span>; <span class="GRef">( धवला/9/4, 1, 45/203/7 )</span>। </span><br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> द्वादशांग श्रुतज्ञान का पाँचवाँ अंग।–देखें [[ श्रुतज्ञान#III | श्रुतज्ञान - III]]। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> वैनयिक मिथ्यात्व व मिश्रगुणस्थान में अंतर।–देखें [[ मिश्र_गुणस्थान#2.4 | मिश्र गुणस्थान 2.4]]। </span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) अंगबाह्यश्रुत का पाँचवाँ भेद । इसमें दर्शन-विनय, ज्ञान-विनय, चारित्र-विनय, तपो-विनय और उपचार विनय के भेद से पाँच प्रकार के विनयों का कथन किया गया है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_2#103|हरिवंशपुराण - 2.103]], 10.132 </span></p> | |||
<p id="2" class="HindiText">(2) एकांत, विपरीत, विनय, अज्ञान और संशय के भेद से पाँच प्रकार के मिथ्यात्वों में इस नाम का एक मिथ्यात्व । माता, पिता, देव, राजा, ज्ञानी, बालक, वृद्ध और तपस्वी इन आठों को मन, वचन, काम और दान द्वारा विनय की जाने से इसके बत्तीस भेद होते हैं । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_10#59|हरिवंशपुराण - 10.59-60]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#19|हरिवंशपुराण - 58.19]4-195 </span></p> | |||
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Latest revision as of 15:25, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- वैनयिक मिथ्यात्व का स्वरूप
सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/8 सर्वदेवतानां सर्वसमयानां च सम्यग्दर्शनं वैनयिकम्। = सब देवता और सब मतों को एक समान मानना वैनयिक मिथ्यादर्शन है। ( राजवार्तिक/8/1/28/564/21 ); ( तत्त्वसार/5/8 )।
धवला 8/3, 6/20/7 अइहिय-पारत्तियसुहाइं सव्वाइं पि विणयादो चेव, ण णाण-दंसण-तवोववासकिलेसेहिंतो त्ति अहिणिवेसो वेणेइयमिच्छत्तं। = ऐहिक एवं पारलौकिक सुख सभी विनय से ही प्राप्त होते हैं, न कि ज्ञान, दर्शन, तप और उपवास जनित क्लेशों से, ऐसे अभिनिवेश का नाम वैनयिक मिथ्यात्व है।
दर्शनसार/ मू./18-19 सव्वेसु य तित्थेसु य वेणइयाणं समुब्भवो अत्थि। सजडा मुंडियसीसा सिहिणो णंगा य केइ य।18। दुट्ठे गुणवंते वि य समया भत्ती य सव्वदेवाणं। णमणं दंडुव्व जणे परिकलियं तेहि मूढेहिं।19। = सभी तीर्थंकरों के तीर्थों में वैनयिकों का उद्भव होता रहा है। उनमें कोई जटाधारी, कोई मुंडे, कोई शिखाधारी और कोई नग्न रहे हैं।18। चाहे दुष्ट हो चाहे गुणवान् दोनों में समानता से भक्ति करना और सारे ही देवों को दंडवत् नमस्कार करना, इस प्रकार के सिद्धांतों को उन मूर्खों ने लोगों में चलाया।19।
भावसंग्रह/88, 89 वेणइयमिच्छादिट्ठी हवइ फुडं तावसो हु अण्णाणी। णिगुणजणं पि विणओ पउज्जमाणो हु गयविवेओ।88। विणयादो इह मोक्खं किज्जइ पुणु तेण गद्दहाईणं। अमुणिय गुणागुणेण य विणयं मिच्छत्तनडिएण।89। = वैनयिक मिथ्यादृष्टि अविवेकी तापस होते हैं। निर्गुण जनों की यहाँ तक कि गधे की भी विनय करने अथवा उन्हें नमस्कार आदि करने से मोक्ष होता है, ऐसा मानते हैं। गुण और अवगुण से उन्हें कोई मतलब नहीं।
गोम्मटसार कर्मकांड/888/1070 मणवयणकायदाणगविणवो सुरणिवइणाणि जदिवुड्ढे। बाले पिदुम्मि च कायव्वो चेदि अट्ठचऊ।88। = देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता, पिता इन आठों की मन, वचन, काय व दान, इन चारों प्रकारों से विनय करनी चाहिए।88। ( हरिवंशपुराण/10/59 )।
अनगारधर्मामृत/2/6/123 शिवपूजादिमात्रेण मुक्तिमभ्युपगच्छताम्। निःशंकं भूतघातोऽयं नियोगः कोऽपि दुर्विघेः।6। = शिव या गुरु की पूजादि मात्र से मुक्ति प्राप्त हो जाती है, जो ऐसा मानने वाले हैं, उनका दुर्दैव निःशंक होकर प्राणिवध में प्रवृत्त हो सकता है। अथवा उनका सिद्धांत जीवों को प्राणिवध की प्रेरणा करता है।
भावपाहुड़ टीका 135/283/21 मातृपितृनृपलोकादिविनयेन मोक्षक्षेपिणां तापसानुसारिणां द्वात्रिंशन्मतानि भवंति। = माता, पिता, राजा व लोक आदि के विनय से मोक्ष मानने वाले तापसानुसारी मत 32 होते हैं।
- विनयवादियों के 32 भेद
राजवार्तिक/8/1/12/562/10 वशिष्ठपाराशरजतुकर्णवाल्मीकिरोमहर्षिणिसत्यदत्तव्यासैलापुत्रौपमंयवेंद्रदत्तायस्थूला-दिमार्गभेदात् वैनयिकाः द्वात्रिंशद्गणना भवंति। = वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिणि, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यु, ऐंद्रदत्त, अयस्थूल आदिकों के मार्गभेद से वैनयिक 32 होते हैं। ( राजवार्तिक/1/20/12/74/7 ); ( धवला 1/1, 1, 2/108/3 ); ( धवला/9/4, 1, 45/203/7 )।
हरिवंशपुराण/10/60 मनोवाक्कायदानानां मात्राद्यष्टकयोगतः। द्वात्रिंशत्परिसंख्याता वैनयिक्यो हि दृष्टयः।60। = [देव, राजा आदि आठ की मन, वचन, काय व दान इन चार प्रकारों से विनय करनी चाहिए–देखें पहले शीर्षक में गोम्मटसार कर्मकांड/888 ] । इसलिए मन, वचन, काय और दान इन चार का देव आदि आठ के साथ संयोग करने पर वैनयिक मिथ्यादृष्टियों के 32 भेद हो जाते हैं।
- अन्य संबंधित विषय
- सम्यक् विनयवाद।–देखें विनय - 1.5।
- द्वादशांग श्रुतज्ञान का पाँचवाँ अंग।–देखें श्रुतज्ञान - III।
- वैनयिक मिथ्यात्व व मिश्रगुणस्थान में अंतर।–देखें मिश्र गुणस्थान 2.4।
- सम्यक् विनयवाद।–देखें विनय - 1.5।
पुराणकोष से
(1) अंगबाह्यश्रुत का पाँचवाँ भेद । इसमें दर्शन-विनय, ज्ञान-विनय, चारित्र-विनय, तपो-विनय और उपचार विनय के भेद से पाँच प्रकार के विनयों का कथन किया गया है । हरिवंशपुराण - 2.103, 10.132
(2) एकांत, विपरीत, विनय, अज्ञान और संशय के भेद से पाँच प्रकार के मिथ्यात्वों में इस नाम का एक मिथ्यात्व । माता, पिता, देव, राजा, ज्ञानी, बालक, वृद्ध और तपस्वी इन आठों को मन, वचन, काम और दान द्वारा विनय की जाने से इसके बत्तीस भेद होते हैं । हरिवंशपुराण - 10.59-60,[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#19|हरिवंशपुराण - 58.19]4-195