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लब्धिसार / मूल व जीव तत्त्व प्रदीपिका 8/9-16/47-53 केवल भाषार्थ
"प्रथमोपशम सम्यक्त्व को सन्मुख भया मिथ्यादृष्टि जीव सो विशुद्धता की वृद्धिकरि वर्द्धमान होता संता प्रायोग्यलब्धि का प्रथम समयतैं लगाय पूर्व स्थिति बंधकै (?) संख्यातवें भागमात्र अंतःकोटाकोटी सागर प्रमाण आयु बिना सात कर्मनि का स्थितिबंध करै है ॥9॥ तिस अंतःकोटाकोटी सागर स्थितिबंध तैं पल्य का संख्यातवां भागमात्र घटता स्थितिबंध अंतर्मुहूर्त पर्यंत समानता लिये करै। बहुरि तातैं पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता स्थितिबंध अंतर्मुहूर्त पर्यंत करै है। ऐसे क्रमतै संख्यात स्थितिबंधापसरणनि करि पृथक्त्वसौ (800 या 900) सागर घटै पहिला स्थिति बंधापसरण स्थान होइ। 2 बहुरि तिस ही क्रमतैं तिस तैं भी पृथक्त्वसौ घटै दूसरा स्थितिबंधापसरण स्थान ही है। ऐसै इस ही क्रमतैं इतना-इतना स्थिति बंध घटै एक-एक स्थान होइ। ऐसे स्थिति बंधापसरण के चौतीस स्थान होइ। चौंतीस स्थाननिविषैं कैसी प्रकृति का (बंध) व्युच्छेद हो है सो कहिए ॥10॥ 1. पहिला नरकायु का व्युच्छित्ति स्थान है। इहां तै लगाय उपशम सम्यक्त्व पर्यंत नरकायु का बंध न होइ, ऐसे ही आगे जानना। 2. दूसरा तिर्यंचायुका है। (इसी क्रमसे) 3. मनुष्यायु; 4. देवायु; 5. नरकगति व आनुपूर्वी; 6. संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण (संयोग रूप अर्थात् तीनों का युगपत् बंध); 7. संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक; 8. संयोग रूप बादर अपर्याप्त साधारण; 9. संयोग रूप बादर अपर्याप्त प्रत्येक; 10. संयोग रूप बेइंद्रिय अपर्याप्त; 11. संयोग रूप तेइंद्रिय अपर्याप्त; 12. संयोग रूप असंज्ञी पंचेंद्रिय अपर्याप्त; 14. संयोग रूप संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त ॥11॥ 15. संयोग रूप सूक्ष्म पर्याप्त साधारण; 16. संयोग रूप सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येक; 17. संयोग रूप बादर पर्याप्त साधारण; 18. संयोग रूप बादर पर्याप्त प्रत्येक एकेंद्रिय आतप स्थावर; 19. संयोग रूप बेइंद्रिय पर्याप्त; 20. संयोग रूप तेइंद्रिय पर्याप्त; 21. चौइंद्रिय पर्याप्त; 22. असंज्ञी, पंचेंद्रिय, पर्याप्त ॥12॥ 23. संयोग रूप तिर्यंच व आनपूर्वी तथा उद्योत; 24. नीच गोत्र; 25. संयोग रूप अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग-दुःस्वर अनादेय; 26. हुंडकसंस्थान, सृपाटिका संहनन; 27. नपुंसकवेद; 28. वामन संस्थान, कीलित संहनन; ॥13॥ 29. कुब्जक संस्थान, अर्धनाराच संहनन; 30. स्त्रीवेद; 31. स्वाति संस्थान, नाराच संहनन, 32. न्यग्रोध संस्थान, वज्रनाराच संहनन; 33. संयोग रूप मनुष्यगति व आनुपूर्वी औदारिक शरीर व अंगोपांग-वज्र-वृषभनाराच संहनन; 34. संयोगरूप अस्थिर-अशुभ-अयश ॥14॥ अरति-शोक-असाता-। ऐसे ये चौंतीस स्थान भव्य और अभव्य के समान हो हैं ॥15॥ मनुष्य तिर्यंचनिकैं तो सामान्योक्त चौंतीस स्थान पाइये है तिनके 117 बंध योग्यमें-से 46 की व्युच्छित्ति भई, अवशेष 71 बांधिये है ॥16॥
- विस्तार के लिये देखें अपकर्षण - 3।