मधुपिंगल: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
(Imported from text file) |
||
(8 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
< | | ||
== सिद्धांतकोष से == | |||
<span class="GRef"> महापुराण/67/223-255, 366-458 </span>–सगर चक्रवर्ती विश्वभू के षड्यंत्र के कारण स्वयम्वर में ‘सुलसा’ से वंचित रह जाने के कारण दीक्षा धर, निदानपूर्वक देह त्याग यह महाकाल नामक व्यंतर हो गया और सगर से पूर्व वैर का बदला चुकाने के लिए ‘पर्वत’ को हिंसात्मक यज्ञों के प्रचार में सहयोग देने लगा। | |||
<noinclude> | |||
[[ | [[ मधुक्रीड़ | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
[[Category:म]] | [[ मधुमान् | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | |||
[[Category: म]] | |||
== पुराणकोष से == | |||
<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> सुरम्य देश में पोदनपुर नगर के राजा तृणपिंगल और उसकी रानी सर्वयशा का पुत्र । भरतक्षेत्र में चारण-युगल नामक नगर के राजा सुयोधन और रानी अतिथि की पुत्री सुलसा चक्रवर्ती सगर में आसक्त थी । सुलसा की माता अतिथि मधुपिंगल के साथ सुलसा को विवाहना चाहती थी । उसने मधुपिंगल से सुलसा का वरण करने के लिए कहा और सुलसा ने भी माँ के आग्रहवश इसे स्वीकार कर लिया । यह सब देखकर सगर के मंत्री ने शास्त्रानुकूल वर के गुणों का शास्त्र निर्माण कराया और सभा में उनकी वाचना करायी । अपने में शास्त्रोक्त सब गुण विद्यमान न देखकर मधुपिंगल लज्जावश वहाँ से चला गया और गुरु हरिषेण से उसने तप धारण कर लिया । आहार के लिए जाते हुए किसी निमित्तज्ञानी से मधुपिंगल ने अपने संबंध में सुना था कि स गर के मंत्री ने झूठ-मूठ कृत्रिम शास्त्र दिखलाकर मधुपिंगल को दूषित ठहराया है ऐसा ज्ञातकर मधुपिंगल ने निदान किया और मरकर वह असुरेंद्र की महिष-जातीय सेना की पहली कक्षा में चौसठ हजार असुरों का नायक महाकाल असुर हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 67.223-236, 245-252, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_23#47|हरिवंशपुराण - 23.47-123]] </span></p> | |||
</div> | |||
<noinclude> | |||
[[ मधुक्रीड़ | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[ मधुमान् | अगला पृष्ठ ]] | |||
</noinclude> | |||
[[Category: पुराण-कोष]] | |||
[[Category: म]] | |||
[[Category: प्रथमानुयोग]] |
Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
महापुराण/67/223-255, 366-458 –सगर चक्रवर्ती विश्वभू के षड्यंत्र के कारण स्वयम्वर में ‘सुलसा’ से वंचित रह जाने के कारण दीक्षा धर, निदानपूर्वक देह त्याग यह महाकाल नामक व्यंतर हो गया और सगर से पूर्व वैर का बदला चुकाने के लिए ‘पर्वत’ को हिंसात्मक यज्ञों के प्रचार में सहयोग देने लगा।
पुराणकोष से
सुरम्य देश में पोदनपुर नगर के राजा तृणपिंगल और उसकी रानी सर्वयशा का पुत्र । भरतक्षेत्र में चारण-युगल नामक नगर के राजा सुयोधन और रानी अतिथि की पुत्री सुलसा चक्रवर्ती सगर में आसक्त थी । सुलसा की माता अतिथि मधुपिंगल के साथ सुलसा को विवाहना चाहती थी । उसने मधुपिंगल से सुलसा का वरण करने के लिए कहा और सुलसा ने भी माँ के आग्रहवश इसे स्वीकार कर लिया । यह सब देखकर सगर के मंत्री ने शास्त्रानुकूल वर के गुणों का शास्त्र निर्माण कराया और सभा में उनकी वाचना करायी । अपने में शास्त्रोक्त सब गुण विद्यमान न देखकर मधुपिंगल लज्जावश वहाँ से चला गया और गुरु हरिषेण से उसने तप धारण कर लिया । आहार के लिए जाते हुए किसी निमित्तज्ञानी से मधुपिंगल ने अपने संबंध में सुना था कि स गर के मंत्री ने झूठ-मूठ कृत्रिम शास्त्र दिखलाकर मधुपिंगल को दूषित ठहराया है ऐसा ज्ञातकर मधुपिंगल ने निदान किया और मरकर वह असुरेंद्र की महिष-जातीय सेना की पहली कक्षा में चौसठ हजार असुरों का नायक महाकाल असुर हुआ । महापुराण 67.223-236, 245-252, हरिवंशपुराण - 23.47-123