श्रीपाल: Difference between revisions
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<li>पंचस्तूप संघ में वीरसेन स्वामी (ई. | <li><span class="GRef"> महापुराण/सर्ग/श्लोक</span> - <br>पूर्व विदेह में पुंडरीकिणी नगरी का राजा था (47/3-4)। पिता गुणपाल के ज्ञानकल्याणक में जाते समय मार्ग में एक विद्याधर घोड़ा बनकर उड़ाकर ले गया, जाकर वन में छोड़ा (47/20) घूमते-घूमते विदेश में अनेकों अवसरों व स्थानों पर कन्याओं से विवाह करने के प्रसंग आये परंतु 'मैं माता आदि गुरुजन के द्वारा प्रदत्त कन्या के अतिरिक्त अन्य कन्या से भोग न करूँगा' इस प्रतिज्ञा के अनुसार सबको अस्वीकार कर दिया (45/28-150)। इसके अनंतर पूर्वभव की माता यक्षी द्वारा प्रदत्त चक्र, दंड, छत्र आदि लेकर, उनके प्रभाव से पिता के समवशरण में पहुँचा (47/160-163)। इसके अनंतर चक्रवर्ती के भोगों का अनुभव किया (47/173)। अंत में दीक्षा ग्रहणकर मोक्ष प्राप्त किया (47/44-49)।</li> | ||
<li>द्रविड़ संघी गोणसेन के शिष्य और देवकीर्ति | <li>चंपापुर नगर के राजा अरिदमन का पुत्र था। मैना सुंदरी से विवाहा गया। कोढ़ी होने पर मैना सुंदरी कृत सिद्धचक्र विधान के गंधोदक से कुष्ठ रोग दूर हुआ। विदेश में एक विद्याधर से जलतरंगिणी व शत्रु निवारिणी विद्या प्राप्त की। धवल सेठ के रुके हुए जहाजों को चोरों से छुड़ाया। इनको रैनमंजूषा नामक कन्या की प्राप्ति होने पर धवल सेठ उस पर मोहित हो गया और इनको समुद्र में गिरा दिया। तब ये लकड़ी के सहारे तिरकर कुंकुमद्वीप में गये। वहाँ पर गुणमाला कन्या से विवाह किया। परंतु धवल सेठ के भाटों द्वारा इनकी जाति भांड बता दी जाने पर इनको सूली की सजा मिली। तब रैनमंजूषा ने इनको छुड़ाया। अंत में दीक्षा ग्रहणकर मोक्ष प्राप्त किया (<span class="GRef">श्रीपाल चरित्र</span>)।</li> | ||
<li>एक राजा जिनके निमित्त | <li>पंचस्तूप संघ में वीरसेन स्वामी (ई.770-827) के शिष्य और जिनसेन (ई.818-878) के सधर्मा। समय - (लगभग ई.800-843) वि.श.9। (<span class="GRef">तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/452</span>) (देखें [[ इतिहास#7.7 | इतिहास - 7.7]])।</li> | ||
<li>द्रविड़ संघी गोणसेन के शिष्य और देवकीर्ति पंडित के गुरु। अनंतवीर्य के सधर्मा। समय - ई.975-1025। <span class="GRef">( <span class="GRef">सिद्धि विनिश्चय/ प्रस्तावना /77/पं.महेंद्र</span>)।</li> | |||
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<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> पूर्वविदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी के राजा गुणपाल का छोटा पुत्र । वसुपाल का यह छोटा भाई था । राजा ने शिशुकाल में ही वसुपाल को राजा और इसे युवराज बनाकर दीक्षा ले ली थी । अपने पिता गुणपाल के ज्ञान-कल्याणक में जाते समय इसे अशनिवेग विद्याधर ने घोड़े का रूप धारणकर और अपनी पीठ पर बैठाकर रत्नावर्त पर्वत पर छोड़ा था । इसने माता-पिता द्वारा स्वीकृत की गयी कन्या को छोड़कर अन्य कन्या को स्वीकार नहीं करने का व्रत ले रखा था । फलस्वरूप विवाह के प्रसंग आने पर यह सभी के प्रस्ताव अस्वीकार करता रहा । लाल कंबल ओढ़कर सोये हुए इसे विद्युद्वेगा के मकान से भेरुंड पक्षी मांस का पिंड समझकर सिद्धकूट चैत्यालय उठा ले गया था । वहाँ इसे हिलते हुए देखकर पक्षी इसे छोड़कर उड़ गया था । यहाँ से कोई विद्याधर इन्हें शिवंकरपुर ले गया था । यहाँ आने से इसे सर्वव्याधिविनाशिनी विद्या प्राप्त हुई थी । इसके दर्शन से शिवकुमार राजकुमार का टेढ़ा मुँह ठीक हो गया था । अग्नि निस्तेज हो गयी थी । इसके यहाँ चक्र, छत्र, दंड, चूडामणि, चर्म, काकिणी रत्न प्रकट हुए । इसने रत्न पाकर चक्रवर्ती के भोगों को भोगा । नगर में पहुँचते ही इनका जयावती आदि चौरासी कन्याओं से विवाह हुआ था । जयावती रानी से उत्पन्न इसके पुत्र का नाम गुणपाल था । पुत्र के उत्पन्न होते ही आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ था । अंत में इसने रानी सुखावती के पुत्र नरपाल को राज्य देकर जयावती आदि रानियों और वसुपाल आदि राजाओं के साथ दीक्षा ले ली थी और तप कर मोक्ष पाया । <span class="GRef"> महापुराण 46.268, 289, 298, 47.3-172, 244-249, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_12#24|हरिवंशपुराण - 12.24]] </span></p> | |||
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Latest revision as of 16:23, 3 March 2024
सिद्धांतकोष से
- महापुराण/सर्ग/श्लोक -
पूर्व विदेह में पुंडरीकिणी नगरी का राजा था (47/3-4)। पिता गुणपाल के ज्ञानकल्याणक में जाते समय मार्ग में एक विद्याधर घोड़ा बनकर उड़ाकर ले गया, जाकर वन में छोड़ा (47/20) घूमते-घूमते विदेश में अनेकों अवसरों व स्थानों पर कन्याओं से विवाह करने के प्रसंग आये परंतु 'मैं माता आदि गुरुजन के द्वारा प्रदत्त कन्या के अतिरिक्त अन्य कन्या से भोग न करूँगा' इस प्रतिज्ञा के अनुसार सबको अस्वीकार कर दिया (45/28-150)। इसके अनंतर पूर्वभव की माता यक्षी द्वारा प्रदत्त चक्र, दंड, छत्र आदि लेकर, उनके प्रभाव से पिता के समवशरण में पहुँचा (47/160-163)। इसके अनंतर चक्रवर्ती के भोगों का अनुभव किया (47/173)। अंत में दीक्षा ग्रहणकर मोक्ष प्राप्त किया (47/44-49)। - चंपापुर नगर के राजा अरिदमन का पुत्र था। मैना सुंदरी से विवाहा गया। कोढ़ी होने पर मैना सुंदरी कृत सिद्धचक्र विधान के गंधोदक से कुष्ठ रोग दूर हुआ। विदेश में एक विद्याधर से जलतरंगिणी व शत्रु निवारिणी विद्या प्राप्त की। धवल सेठ के रुके हुए जहाजों को चोरों से छुड़ाया। इनको रैनमंजूषा नामक कन्या की प्राप्ति होने पर धवल सेठ उस पर मोहित हो गया और इनको समुद्र में गिरा दिया। तब ये लकड़ी के सहारे तिरकर कुंकुमद्वीप में गये। वहाँ पर गुणमाला कन्या से विवाह किया। परंतु धवल सेठ के भाटों द्वारा इनकी जाति भांड बता दी जाने पर इनको सूली की सजा मिली। तब रैनमंजूषा ने इनको छुड़ाया। अंत में दीक्षा ग्रहणकर मोक्ष प्राप्त किया (श्रीपाल चरित्र)।
- पंचस्तूप संघ में वीरसेन स्वामी (ई.770-827) के शिष्य और जिनसेन (ई.818-878) के सधर्मा। समय - (लगभग ई.800-843) वि.श.9। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/452) (देखें इतिहास - 7.7)।
- द्रविड़ संघी गोणसेन के शिष्य और देवकीर्ति पंडित के गुरु। अनंतवीर्य के सधर्मा। समय - ई.975-1025। ( सिद्धि विनिश्चय/ प्रस्तावना /77/पं.महेंद्र)।
- एक राजा जिनके निमित्त नेमिचंद्र सिद्धांतिकदेव ने द्रव्य संग्रह की रचना की थी। समय - वि.1100-1140 (ई.1043-1083) ( ज्ञानार्णव/ प्रस्तावना 2/पं.पन्नालाल)।
पुराणकोष से
पूर्वविदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी के राजा गुणपाल का छोटा पुत्र । वसुपाल का यह छोटा भाई था । राजा ने शिशुकाल में ही वसुपाल को राजा और इसे युवराज बनाकर दीक्षा ले ली थी । अपने पिता गुणपाल के ज्ञान-कल्याणक में जाते समय इसे अशनिवेग विद्याधर ने घोड़े का रूप धारणकर और अपनी पीठ पर बैठाकर रत्नावर्त पर्वत पर छोड़ा था । इसने माता-पिता द्वारा स्वीकृत की गयी कन्या को छोड़कर अन्य कन्या को स्वीकार नहीं करने का व्रत ले रखा था । फलस्वरूप विवाह के प्रसंग आने पर यह सभी के प्रस्ताव अस्वीकार करता रहा । लाल कंबल ओढ़कर सोये हुए इसे विद्युद्वेगा के मकान से भेरुंड पक्षी मांस का पिंड समझकर सिद्धकूट चैत्यालय उठा ले गया था । वहाँ इसे हिलते हुए देखकर पक्षी इसे छोड़कर उड़ गया था । यहाँ से कोई विद्याधर इन्हें शिवंकरपुर ले गया था । यहाँ आने से इसे सर्वव्याधिविनाशिनी विद्या प्राप्त हुई थी । इसके दर्शन से शिवकुमार राजकुमार का टेढ़ा मुँह ठीक हो गया था । अग्नि निस्तेज हो गयी थी । इसके यहाँ चक्र, छत्र, दंड, चूडामणि, चर्म, काकिणी रत्न प्रकट हुए । इसने रत्न पाकर चक्रवर्ती के भोगों को भोगा । नगर में पहुँचते ही इनका जयावती आदि चौरासी कन्याओं से विवाह हुआ था । जयावती रानी से उत्पन्न इसके पुत्र का नाम गुणपाल था । पुत्र के उत्पन्न होते ही आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ था । अंत में इसने रानी सुखावती के पुत्र नरपाल को राज्य देकर जयावती आदि रानियों और वसुपाल आदि राजाओं के साथ दीक्षा ले ली थी और तप कर मोक्ष पाया । महापुराण 46.268, 289, 298, 47.3-172, 244-249, हरिवंशपुराण - 12.24