सूक्ष्म सांपराय: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
(8 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong> | <strong>1. सूक्ष्म सांपराय चारित्र का लक्षण</strong></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/9 </span><span class="SanskritText">अतिसूक्ष्मकषायत्वात्सूक्ष्मसांपरायचारित्रं ।</span> =<span class="HindiText"> जिस चारित्र में कषाय अति सूक्ष्म हो वह सूक्ष्म सांपराय चारित्र है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/18/9/617/21 )</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,123/371/3 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/714/7 )</span>।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/132 </span><span class="PrakritText">अणुलोहं वेयंतो जीओ उवसामगो व खवगो वा। सो सुहूमसंपराओ जहखाएणूणओ किंचि।132।</span> =<span class="HindiText"> मोहकर्म का उपशमन या क्षपण करते हुए सूक्ष्म लोभ का वेदन करना सूक्ष्मसांपराय संयम है, और उसका धारक सूक्ष्मसांपराय संयत कहलाता है। यह संयम यथाख्यात संयम से कुछ ही कम होता है। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,123/ गाथा 190/373</span>); <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/474/882 )</span>; <span class="GRef">( तत्त्वसार/6/48 )</span></span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> राजवार्तिक/9/18/9/617/21 </span><span class="SanskritText">सूक्ष्मस्थूलसत्त्ववधपरिहाराप्रमत्तत्वात् अनुपहतोत्साहस्य अखंडितक्रियाविशेषस्य ...कषायविषांकुरस्य अपचयाभिमुखालीनस्तोकमोहबीजस्य तत एव परिप्राप्तन्वर्थसूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयतस्य सूक्ष्मसांपरायचारित्रमाख्यायते।</span> =<span class="HindiText"> सूक्ष्म-स्थूल प्राणियों के वध के परिहार में जो पूरी तरह अप्रमत्त है, अत्यंत निर्बाध उत्साहशील, अखंडितचारित्र...जिसने कषाय के विषांकुरों को खोंट दिया है, सूक्ष्म मोहनीय कर्म के बीज को भी जिसने नाश के मुख में ढकेल दिया है, उस परम सूक्ष्म लोभ वाले साधु के सूक्ष्म सांपराय चारित्र होता है। <span class="GRef">( चारित्रसार/84/2 )</span>।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class="PrakritText"> | <span class="PrakritText"><span class="GRef"> योगसार (योगेंदुदेव)/103 </span>सुहुमहें लोहहें जो बिलउ जो सुहुम वि परिणामु। सो सुहुम वि चारित्त मुणि सो सासय-सुह-धामु।</span> =<span class="HindiText"> सूक्ष्म लोभ का नाश होने से जो सूक्ष्मपरिणामों का शेष रह जाना है, वह सूक्ष्म चारित्र है, वह शाश्वत सुख का स्थान है।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/148/4 </span><span class="SanskritText">सूक्ष्मातींद्रियनिजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन सूक्ष्मलोभाभिधानसांपरायस्य कषायस्य यत्र निरवशेषोपशमनं क्षपणं वा तत्सूक्ष्मसांपरायचारित्रमिति।</span> =<span class="HindiText"> सूक्ष्म अतींद्रिय निजशुद्धात्मा के बल से सूक्ष्म लोभ नामक सांपराय कषाय का पूर्ण रूप से उपशमन वा क्षपण सो सूक्ष्म सांपराय चारित्र है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong> | <strong>2. सूक्ष्म सांपराय चारित्र का स्वामित्व</strong></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/ सूत्र 127/376</span> <span class="PrakritText">सुहुम-सांपराइयसुद्धिसंजदा एक्कम्मि चेव सुहुम-सांपराइय सुद्धिसंजदट्ठाणे।127।</span> =<span class="HindiText"> सूक्ष्म सांपराय शुद्धि संयत जीव एक सूक्ष्म-सांपराय-शुद्धि-संयत गुणस्थान में ही होते हैं।127। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/467 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/140/11 )</span>; <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह/35/148 )</span></span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong> | <strong>3. जघन्य उत्कृष्ट स्थानों का स्वामित्व</strong></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> षट्खंडागम 7/2,11/ सूत्र 172-173 व टीका /568 </span><span class="PrakritText">सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमस्स जहण्णिया चरित्तलद्धी...।172। उवसमसेडीदो ओयरमाण चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स। ‘तस्सेव उक्कसिया चरित्तलद्धो...।173। चरिमसमयसुहुमसांपराइयखवगस्स।</span> =<span class="HindiText"> सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धि संयम की जघन्य चरित्र लब्धि...।172। ‘उपशम श्रेणी से उतरने वाले अंतिम समयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिक के होती है। ‘उसी ही सूक्ष्मसांपरायिक शुद्धि संयम की उत्कृष्ट चारित्र लब्धि...।173।’-अंतिम समयवर्ती सूक्ष्म सांपरायिक क्षपक के होती है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong> | <strong>4. सूक्ष्म सांपराय चारित्र व गुप्ति समिति में अंतर</strong></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> राजवार्तिक/9/18/10/617/26 </span><span class="SanskritText">स्यान्मतम्-गुप्तिसमित्योरंयतरत्रांतर्भवतीदं चारित्रं प्रवृत्तिनिरोधात् सम्यगयनाच्चेति; तन्न; किं कारणम् । तद्भावेऽपि गुणविशेषनिमित्ताश्रयणात् । लोभसंज्वलनाख्य: सांपराय: सूक्ष्मो भवतीत्ययं विशेष आश्रित:।</span> =<span class="HindiText"><strong> प्रश्न</strong>-यह चारित्र प्रवृत्ति निरोध या सम्यक् प्रवृत्ति रूप होने से गुप्ति और समिति में अंतर्भूत होता है ? <strong>उत्तर</strong>-ऐसा नहीं है क्योंकि यह उनसे आगे बढ़कर है। यह दसवें गुणस्थान में, जहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ टिमटिमाता है, होता है, अत: यह पृथक् रूप से निर्दिष्ट है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong> | <strong>5. सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान का लक्षण</strong></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/22-23 </span><span class="PrakritText">कोसुंभोजिह राओ अब्भंतरदो य सुहुमरत्तो य। एवं सुहुमसराओ सुहुमकसाओ त्ति णायव्वो।22। पुव्वापुव्वप्फड्डयअणुभागाओ अणंतगुणहीणे। लोहाणुम्मि य ट्ठिअओ हंदि सुहुमसंपराओ य।23।</span> =<span class="HindiText"> जिस प्रकार कुसूमली रंग भीतर से सूक्ष्म रक्त अर्थात् अत्यंत कम लालिमा वाला होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म राग सहित जीव को सूक्ष्मकषाय वा सूक्ष्म सांपराय जानना चाहिए।22। लोभाणु अर्थात् सूक्ष्म लोभ में स्थित सूक्ष्मसांपरायसंयत की कषाय पूर्वस्पर्धक और अपूर्व स्पर्धक के अनुभाग शक्ति से अनंतगुणी हीन होती है।23। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/58-59 )</span>; <span class="GRef">( धवला 2/1,1,18/ गाथा 121/188</span>)।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/21/590/17 </span><span class="SanskritText">सांपराय: कषाय:, स यत्र सूक्ष्मभावेनोपशांतिं क्षयं च आपद्यते तौ सूक्ष्मसांपरायौ वेदितव्यौ।</span> =<span class="HindiText">सांपराय-कषायों को सूक्ष्म रूप से भी उपशम या क्षय करने वाला सूक्ष्मसांपराय उपशमक क्षपक है।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,18/187/3 </span><span class="SanskritText">सूक्ष्मश्चासौ सांपरायश्च सूक्ष्मसांपराय:। तं प्रविष्टा शुद्धिर्येषां संयतानां ते सूक्ष्मसांपरायप्रविष्टशुद्धिसंयता।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,27/2/14/3 </span><span class="PrakritText">तदो णंतर-समए सुहुमकिट्ठिसरूवं लोभं वेदंतो णट्ठअणियट्ठि-सण्णो सुहुमसांपराइओ होदि।</span> =<span class="HindiText">सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्म सांपराय कहते हैं उनमें जिन संयतों की शुद्धि ने प्रवेश किया है उन्हें सूक्ष्म-सांपराय-प्रविष्ट-शुद्धि संयत कहते हैं। 2. इसके अनंतर समय में जो सूक्ष्म कृष्टि गत लोभ का अनुभव करता है और जिसने अनिवृत्तिकरण इस संज्ञा को नष्ट कर दिया है, ऐसा जीव सूक्ष्म सांपराय संयम वाला होता है।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/35/5 </span><span class="SanskritText">सूक्ष्मपरमात्मतत्त्वभावनाबलेन सूक्ष्मकृष्टिगतलोभकषायस्योपशमका: क्षपकाश्च दशमगुणस्थानवर्तिनो भवंति।</span> =<span class="HindiText">सूक्ष्म परमात्म तत्त्व भावना के बल से जो सूक्ष्म कृष्टिरूप लोभ कषाय के उपशमक और क्षपक हैं, वे दशम गुणस्थानवर्ती हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>* अन्य | <strong>* अन्य संबंधित विषय</strong></p> | ||
<ol class="HindiText"> | <ol class="HindiText"> | ||
<li>सूक्ष्म | <li>सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान के स्वामित्व संबंधी गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ।-देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li>इस गुणस्थान | <li>इस गुणस्थान संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्प-बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ।-देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li>इस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का | <li>इस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का बंध, उदय, व सत्त्व प्ररूपणाएँ।-देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li>सभी गुणस्थानों व मार्गणास्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।-देखें | <li>सभी गुणस्थानों व मार्गणास्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।-देखें [[ मार्गणा#6 | मार्गणा - 6]]।</li> | ||
<li>इस गुणस्थान में कषाय योग के सद्भाव | <li>इस गुणस्थान में कषाय योग के सद्भाव संबंधी।-देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li>इस गुणस्थान में औपशमिक व क्षायिक भाव | <li>इस गुणस्थान में औपशमिक व क्षायिक भाव संबंधी।-देखें [[ अनिवृत्तिकरण#2 | अनिवृत्तिकरण - 2]]।</li> | ||
<li>सूक्ष्म कृष्टिकरण | <li>सूक्ष्म कृष्टिकरण संबंधी।-देखें [[ कृष्टि#17 | कृष्टि- 17 ]]।</li> | ||
<li>उपशम व क्षपक श्रेणी।-देखें | <li>उपशम व क्षपक श्रेणी।-देखें [[ श्रेणी ]]।</li> | ||
<li>पुन: पुन: यह गुणस्थान पाने की सीमा।- देखें | <li>पुन: पुन: यह गुणस्थान पाने की सीमा।-देखें [[ संयम#2.7 | संयम - 2.7]]।</li> | ||
<li> | <li>सूक्ष्मसांपराय व छेदोपस्थापना में भेदाभेद।-देखें [[ छेदोपस्थापना#4 | छेदोपस्थापना - 4]]।</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<noinclude> | |||
[[सूक्ष्म | [[ सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपत्ति शुक्लध्यान | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
[[Category:स]] | [[ सूक्ष्म स्कंध | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | |||
[[Category: स]] | |||
[[Category: करणानुयोग]] |
Latest revision as of 17:31, 24 February 2024
1. सूक्ष्म सांपराय चारित्र का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/9 अतिसूक्ष्मकषायत्वात्सूक्ष्मसांपरायचारित्रं । = जिस चारित्र में कषाय अति सूक्ष्म हो वह सूक्ष्म सांपराय चारित्र है। ( राजवार्तिक/9/18/9/617/21 ); ( धवला 1/1,1,123/371/3 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/714/7 )।
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/132 अणुलोहं वेयंतो जीओ उवसामगो व खवगो वा। सो सुहूमसंपराओ जहखाएणूणओ किंचि।132। = मोहकर्म का उपशमन या क्षपण करते हुए सूक्ष्म लोभ का वेदन करना सूक्ष्मसांपराय संयम है, और उसका धारक सूक्ष्मसांपराय संयत कहलाता है। यह संयम यथाख्यात संयम से कुछ ही कम होता है। ( धवला 1/1,1,123/ गाथा 190/373); ( गोम्मटसार जीवकांड/474/882 ); ( तत्त्वसार/6/48 )
राजवार्तिक/9/18/9/617/21 सूक्ष्मस्थूलसत्त्ववधपरिहाराप्रमत्तत्वात् अनुपहतोत्साहस्य अखंडितक्रियाविशेषस्य ...कषायविषांकुरस्य अपचयाभिमुखालीनस्तोकमोहबीजस्य तत एव परिप्राप्तन्वर्थसूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयतस्य सूक्ष्मसांपरायचारित्रमाख्यायते। = सूक्ष्म-स्थूल प्राणियों के वध के परिहार में जो पूरी तरह अप्रमत्त है, अत्यंत निर्बाध उत्साहशील, अखंडितचारित्र...जिसने कषाय के विषांकुरों को खोंट दिया है, सूक्ष्म मोहनीय कर्म के बीज को भी जिसने नाश के मुख में ढकेल दिया है, उस परम सूक्ष्म लोभ वाले साधु के सूक्ष्म सांपराय चारित्र होता है। ( चारित्रसार/84/2 )।
योगसार (योगेंदुदेव)/103 सुहुमहें लोहहें जो बिलउ जो सुहुम वि परिणामु। सो सुहुम वि चारित्त मुणि सो सासय-सुह-धामु। = सूक्ष्म लोभ का नाश होने से जो सूक्ष्मपरिणामों का शेष रह जाना है, वह सूक्ष्म चारित्र है, वह शाश्वत सुख का स्थान है।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/148/4 सूक्ष्मातींद्रियनिजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन सूक्ष्मलोभाभिधानसांपरायस्य कषायस्य यत्र निरवशेषोपशमनं क्षपणं वा तत्सूक्ष्मसांपरायचारित्रमिति। = सूक्ष्म अतींद्रिय निजशुद्धात्मा के बल से सूक्ष्म लोभ नामक सांपराय कषाय का पूर्ण रूप से उपशमन वा क्षपण सो सूक्ष्म सांपराय चारित्र है।
2. सूक्ष्म सांपराय चारित्र का स्वामित्व
षट्खंडागम 1/1,1/ सूत्र 127/376 सुहुम-सांपराइयसुद्धिसंजदा एक्कम्मि चेव सुहुम-सांपराइय सुद्धिसंजदट्ठाणे।127। = सूक्ष्म सांपराय शुद्धि संयत जीव एक सूक्ष्म-सांपराय-शुद्धि-संयत गुणस्थान में ही होते हैं।127। ( गोम्मटसार जीवकांड/467 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/140/11 ); ( द्रव्यसंग्रह/35/148 )
3. जघन्य उत्कृष्ट स्थानों का स्वामित्व
षट्खंडागम 7/2,11/ सूत्र 172-173 व टीका /568 सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमस्स जहण्णिया चरित्तलद्धी...।172। उवसमसेडीदो ओयरमाण चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स। ‘तस्सेव उक्कसिया चरित्तलद्धो...।173। चरिमसमयसुहुमसांपराइयखवगस्स। = सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धि संयम की जघन्य चरित्र लब्धि...।172। ‘उपशम श्रेणी से उतरने वाले अंतिम समयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिक के होती है। ‘उसी ही सूक्ष्मसांपरायिक शुद्धि संयम की उत्कृष्ट चारित्र लब्धि...।173।’-अंतिम समयवर्ती सूक्ष्म सांपरायिक क्षपक के होती है।
4. सूक्ष्म सांपराय चारित्र व गुप्ति समिति में अंतर
राजवार्तिक/9/18/10/617/26 स्यान्मतम्-गुप्तिसमित्योरंयतरत्रांतर्भवतीदं चारित्रं प्रवृत्तिनिरोधात् सम्यगयनाच्चेति; तन्न; किं कारणम् । तद्भावेऽपि गुणविशेषनिमित्ताश्रयणात् । लोभसंज्वलनाख्य: सांपराय: सूक्ष्मो भवतीत्ययं विशेष आश्रित:। = प्रश्न-यह चारित्र प्रवृत्ति निरोध या सम्यक् प्रवृत्ति रूप होने से गुप्ति और समिति में अंतर्भूत होता है ? उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि यह उनसे आगे बढ़कर है। यह दसवें गुणस्थान में, जहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ टिमटिमाता है, होता है, अत: यह पृथक् रूप से निर्दिष्ट है।
5. सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान का लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/22-23 कोसुंभोजिह राओ अब्भंतरदो य सुहुमरत्तो य। एवं सुहुमसराओ सुहुमकसाओ त्ति णायव्वो।22। पुव्वापुव्वप्फड्डयअणुभागाओ अणंतगुणहीणे। लोहाणुम्मि य ट्ठिअओ हंदि सुहुमसंपराओ य।23। = जिस प्रकार कुसूमली रंग भीतर से सूक्ष्म रक्त अर्थात् अत्यंत कम लालिमा वाला होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म राग सहित जीव को सूक्ष्मकषाय वा सूक्ष्म सांपराय जानना चाहिए।22। लोभाणु अर्थात् सूक्ष्म लोभ में स्थित सूक्ष्मसांपरायसंयत की कषाय पूर्वस्पर्धक और अपूर्व स्पर्धक के अनुभाग शक्ति से अनंतगुणी हीन होती है।23। ( गोम्मटसार जीवकांड/58-59 ); ( धवला 2/1,1,18/ गाथा 121/188)।
राजवार्तिक/9/1/21/590/17 सांपराय: कषाय:, स यत्र सूक्ष्मभावेनोपशांतिं क्षयं च आपद्यते तौ सूक्ष्मसांपरायौ वेदितव्यौ। =सांपराय-कषायों को सूक्ष्म रूप से भी उपशम या क्षय करने वाला सूक्ष्मसांपराय उपशमक क्षपक है।
धवला 1/1,1,18/187/3 सूक्ष्मश्चासौ सांपरायश्च सूक्ष्मसांपराय:। तं प्रविष्टा शुद्धिर्येषां संयतानां ते सूक्ष्मसांपरायप्रविष्टशुद्धिसंयता।
धवला 1/1,1,27/2/14/3 तदो णंतर-समए सुहुमकिट्ठिसरूवं लोभं वेदंतो णट्ठअणियट्ठि-सण्णो सुहुमसांपराइओ होदि। =सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्म सांपराय कहते हैं उनमें जिन संयतों की शुद्धि ने प्रवेश किया है उन्हें सूक्ष्म-सांपराय-प्रविष्ट-शुद्धि संयत कहते हैं। 2. इसके अनंतर समय में जो सूक्ष्म कृष्टि गत लोभ का अनुभव करता है और जिसने अनिवृत्तिकरण इस संज्ञा को नष्ट कर दिया है, ऐसा जीव सूक्ष्म सांपराय संयम वाला होता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/13/35/5 सूक्ष्मपरमात्मतत्त्वभावनाबलेन सूक्ष्मकृष्टिगतलोभकषायस्योपशमका: क्षपकाश्च दशमगुणस्थानवर्तिनो भवंति। =सूक्ष्म परमात्म तत्त्व भावना के बल से जो सूक्ष्म कृष्टिरूप लोभ कषाय के उपशमक और क्षपक हैं, वे दशम गुणस्थानवर्ती हैं।
* अन्य संबंधित विषय
- सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान के स्वामित्व संबंधी गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ।-देखें वह वह नाम ।
- इस गुणस्थान संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्प-बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ।-देखें वह वह नाम ।
- इस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का बंध, उदय, व सत्त्व प्ररूपणाएँ।-देखें वह वह नाम ।
- सभी गुणस्थानों व मार्गणास्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।-देखें मार्गणा - 6।
- इस गुणस्थान में कषाय योग के सद्भाव संबंधी।-देखें वह वह नाम ।
- इस गुणस्थान में औपशमिक व क्षायिक भाव संबंधी।-देखें अनिवृत्तिकरण - 2।
- सूक्ष्म कृष्टिकरण संबंधी।-देखें कृष्टि- 17 ।
- उपशम व क्षपक श्रेणी।-देखें श्रेणी ।
- पुन: पुन: यह गुणस्थान पाने की सीमा।-देखें संयम - 2.7।
- सूक्ष्मसांपराय व छेदोपस्थापना में भेदाभेद।-देखें छेदोपस्थापना - 4।