इष्टोपदेश - श्लोक 15: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:16, 17 April 2020
आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं कालस्य निर्गमम्।
वाञ्छतां धनिनामिष्टं जीवितात्सुतरां धनम्।।१५।।
लोभीके जीवनसे भी अधिक धन से प्रेम—जिस वैभव के कारण मनुष्य पर संकट आते हैं उस वैभव के प्रति इस मनुष्य का प्रेम इतना अधिक है कि उसके सामने जीवन का भी उतना प्रेम नही करता हे। इसके प्रमाणरूपमें एक बात यह रखी जा रही है जिससे यह प्रमाणित हो कि धनी पुरुषों को जीवन से भी प्यारा धन है। बैंकर्स लोग ऐसा करते हैं ना कि बहुत रकम होने पर ब्याज से रकम दे दिया करते हैं। व्याज कब आयगा, जब महीना ६ महीना, वर्षभर व्यतीत होगा। किसी को २ हजार रुपयाब्याज पर दे दिया और उसका १० रुपया महीना ब्याज आता है तो एक वर्ष व्यतीत हो तो १२० रुपया आयगा। तो ब्याज से आजीविका करने वाले पुरुष इसकी प्रतीक्षा करते हैं कि जल्दी १२ महीने व्यतीत हो जावें। समय के व्यतीत होने की ही बाट जोहते हैं तभी तो धन मिलेगा। अब देखो कि एक वर्ष व्यतीत हो जायगा तो क्या मिलेगा? ब्याज धन और यहाँ क्या हो जायगा एक सालका मरण। जिसको ५० साल ही जीवित रहना है तो एक वर्ष व्यतीत हो जायगा तो अब ४९ वर्ष ही जीयेगा।
जीवनसे भी अधिक धन से प्रेम होनेका विवरण—भैया! समयका व्यतीत होना दो बातों का कारण है—एक तो आयु के विनाशका कारण है और दूसरे धनप्राप्तिका कारण है। वर्ष भर व्यतीत हो गया इसके मायने यह है कि एक वर्ष की आयुका क्षय हो गया और तब ब्याजकी प्राप्ति हुई । यो कालका व्यतीत होना, समयका गुजर जाना दो बातों का कारण है—एक तो आयुके क्षयका कारण है और दूसरे धनकी वृद्धि का कारण है। जैसे ही काल गुजरता है तैसे ही तैसे जीव की आयु कम होती जाती है और वैसे ही व्यापार आदि के साधनों से धनकी बरबादी होती है। तो धनी लोग अथवा जो धनी अधिक बनना चाहते हैं वे लोग काल के व्यतीत होने को अच्छा समझते हैं,तो इससे यह सिद्ध हुआ कि इन धनिक पुरुषों को धन जीवन से भी अधिक प्यारा है। वर्ष भरका समय गुजरने पर धन तो जरूर मिल जायगा पर यहाँ उसकी आयु भी कम हो जायेगी। ऐसे धनका जो लोभी पुरुष है अथवा धन जिसको प्यारा है और समय गुजरने की बाट जोहता है उसका अर्थ यह है कि उसे धन तो प्यारा हुआ, पर जीवन प्यारा नही हुआ।
लोभसंस्कार—अनादिकाल से इस जीव पर लोभ का संस्कार छाया हुआ है। किया क्या इस जीवने? जिस पर्याय में गया उस पर्याय के शरीर से इसने प्रीति की, लोभ किया, उसे ही आत्मसर्वस्व माना। अनादिकालसे लोभ कषायके ही संस्कार लगे है इसके कारण यह जीव धन को अपने जीवन से भी अधिक प्यारा समझता है। देखो ना समय के गुजरने से आयु का तो विनाश होता है और धन की बढ़वारी होती है। ऐसी स्थिति में जो पुरुष धन को चाहते हैं,काल के गुजरने को चाहते हैं इसका अर्थ यह है कि उन्हें जीवन की तो परवाह नहीं है और धनवृद्धि की इच्छा से काल के गुजरने को हितकारी मानते हैं। ऐसे ही अन्य कारण भी समझ लो जिससे यह सिद्ध है कि धन सम्पदा के इच्छुक पुरुष धन आदि से उत्पन्न हुए विपदा का कुछ भी विचार नहींकरते। लोभकषायमें यह ही होता है। लोभ में विचार होता है तो केवल धनसंचयका और धनसंरक्षणका । मैं आत्मा कैसे सुखी रहूं शुद्ध आनन्द कैसे प्रकट हो, मेरा परमार्थ हित किस कर्तव्य में है, ऐसी कुछ भी अपने ज्ञान विवेकी बात इसे नही रूचती है। कितनी ही विपदाएँ भोगता जाय पर जिसकी धुन लगी हुई है। उसकी सिद्धि होनी चाहिए, इस टेक पर अड़ा है यह मोही। यह सब मोहका ही एक प्रसाद है।
धनविषयक जिज्ञासा व समाधान—यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि धन को इतना बुरा क्यों कहा गया है? धन के बिना पुण्य नही किया जा सकता, पात्रदान, देवपूजा, वैयावृत्य, गरीबों का उपकार ये सब धन के बिना कैसे सम्भव है? तब धन पुण्योदयका कारण हुआ ना। इसे निंद्य कैसे कहा? वह धन तो प्रशंसा के योग्य है जिस धन के कारण परोपकार किया जा सकता है। तब यह करना चाहिए कि खूब धन कमावो और अच्छे कार्य में लगावो, पुण्य पैदा करो। धन सम्पदा वैभव को क्यों विपदा कहा जा रहा है, क्यों इतनी निन्दा की जा रही है? इसके उत्तर में संक्षेपतः इतनी बात समझ लो कि ये दान पूजा जो किए जाते हैं वह धन कमाने के कारण जो पाप होता है, अन्याय होता है अथवा पाप होते हे उनका दोष कम करने के लिए प्रायश्चित स्वरूप ये सब दान आदिक किए जाते हैं,और फिर कोई मैं त्याग करूँगा, दान करूँगा इस ख्याल से यदि धनका संचय करता है। तो उसका केवल बकवाद मात्र है। जिसके त्याग की बुद्धि है। वह संचय क्यों करना चाहता है? संचय हो जाता है तो विवेक में उस संचित धन को अच्छी जगह लगाने के लिए प्रेरणा करता है, पर कोई पुरुष जान जानकर धन उपार्जित करे और यह ख्याल बनाये कि मैं अच्छी जगह लगाने के लिए धन कमा रहा हूं तो यह धर्म की परिपाटी नही है। ऐसा परिणाम निर्मल गृहस्थ का नही होता है कि मैं दान करने के लिए ही धन कमाऊँ। यदि ऐसा कोई सोचता भी है तो उसमें यश नामकी भी लिप्सा साथ में लगी होती है, फिर उसका त्याग नाम नही रहता है, इस ही बात को अब इस श्लोक में कह रहे हैं