इष्टोपदेश - श्लोक 17: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:16, 17 April 2020
आरम्भे तापकान् प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान्।
अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः।।१७।।
भोगके उद्यम में हैरानियां—ये विषयों के साधन प्रारम्भ में, मध्य में, अंत मे सदा दुख के ही कारण होते हैं,फिर भी मोही जीव दुःखों को भोगते जाते हैं और उन भोगसाधनों से ही रति करते रहते हैं। ये भोग आरम्भ में संतोष उत्पन्न करते हैं। भोगों के साधन जुटाने के लिए कितना उद्यम करना पड़ता है? कमाई करे, रक्षा करे, चीजें जोड़े, कितने क्लेश करते हैं,एक बढ़िया भोजन खाने के लिए २४ घंटे पहिले से ही तैयारियाँ करते हैं और फल कितना है, उस भोजन का स्वाद कितनी देर को मिलता है, जितनी देर मुख में कौर है। वह कौर गले के नीचे चला गया, फिर उसका कुछ स्वाद नही। पेट में पड़े हुए भोजन का स्वाद कोई नही ले सकता है। और फिर उनके साधन जुटाने में कितना श्रम करना पड़ता है? आज बडे़-बडे लोग हैरानी का अनुभव कर रहे हैं कि बडे़ विचित्र कानून बन रहे हैं,टैक्स लगा रहे हैं,मुनाफा नही रहा, पर उनकी और दृष्टि नही है जो ४०-४५ रुपया माह पर दिनभर जुटे रहते हैं। कैसे दृष्टि हो, दृष्टि तो विषयसाधनों के भोगने की है। ये भोगों के साधन आरम्भ में संताप उत्पन्न करके शरीर, इन्द्रिय और मन को क्लेश के कारण होते हैं। सेवा, वाणिज्य कितनी ही प्रकार के उद्यम करने पड़ते हैं तब भोगो के साधन मिल पाते हैं।
भोग से अतृप्ति व समय की बरबादी—जब ये भोग प्राप्त हो जाते हैं तब भोगते भी तृप्ति नही होती है। कोई सा भी भोग आज खूब भोग लो, कल से विकल्प न करना, कोई कर सके ऐसा तो खूब भोग भोगों, पर ये भोग ऐसे बुरे है कि ज्यों भोगो त्यों अतृप्ति होती है। तृप्ति नही होती है। भोग भोगने में भोग नही भोगे गये, यह भोगने वाला खुद भुग गया। भोग का क्या बिगड़ा? वह पदार्थ तो जो था सो है। अथवा किसी भी प्रकार का उनमें परिणमन हो वे पुद्गल के विकार है उनका क्या बिगाड़ा? बिगड़ा तो इस भोगने वाले का। जीवन गया, समय गुजरा, मनुष्यभव खोया, जिस मनुष्यभव में ज्ञान की लौ लगायी जाती तो जरा जानने का हिसाब लगावो, दस-दस अक्षर ही रोज सीखते तो साल भर में मान लो। ३।।हजार अक्षर सीख लेते और समझ की उम्र कितनी निकल गयी, मान लो ४० वर्ष निकल गयी तो ४० वर्ष में कितने अक्षर सीखते इसका अंदाज तो लगावो। बड़े-बड़े साधु संत अपनी बड़ी बुद्धि वैभव से जो कुछ उन्होने पाया, सीखा, अनुभव किया उसका निचोड़ लिख गये हैं,पर उनके इस सारभूत उपदेश को सुनने, बांचने देखने तक की भी हिम्मत नही चलती। क्या किया मनुष्य जन्म पाकर?
भोग से अतृप्ति की वृद्धि—ये भोग जब भोगे जा रहे हो तो ये असंतोष को ही उत्पन्न करते हैं। उनके भोगने की फिर बार-बार इच्छा हो जाती है। किसी देहाती पर आपको यदि क्रोध आ रहा हो उसके किसी असद्व्यवहार के कारण, तो उसको बरबाद करने की मन में आती है ना, तो उसको बिल्कुल बरबाद आप कर दे, उसका उपाय तो यह है कि कुछ मिलने लगे तो बस वह अपने जीवन को बरबाद कर डालेगा। उसे बरबाद ही करना है तो यह है उपाय। उसे चखा दो कोई भोग तो वह विषयसाधनों में बरबाद हो जायेगा। लोग विषय भोगकर अपनी बड़ी चतुराई मानते हैं,मैने ऐसा भोगा, ऐसा खाया बहुत रसीली चीजें खाने वाले व्यक्ति अंत में बहुत बुरी तरह से रोगी हो सकते हैं। और रूखा सूखा संतोष भर खाने वाले पुरुष कहो चंगे रह सकते हैं।
भोग में व्यग्रता—भैया ! काहे का भोग भोगा, कौन सी चतुराई पा ली ? ये भोग असन्तोष को ही उत्पन्न करते हैं। भोग भोगते समय शान्ति नही रहती है। कोई सा भी भोग हो, वह शान्ति के साथ नही भोगा जाता है। चाहे खाने का भोग हो, चाहे सूंघने का भोग हो, चाहे किसी रमणीक वस्तु को देखने को भोग हो, चाहे कोई राग रागिनी भरे शब्दों के सुनने का भोग हो, चाहे कामवासना का भोग हो, कोर्इ भी भोग शान्ति के साथ नही भोगा जा सकता है। भोगते समय व्यग्रता और आकुलता नियम से होती है। भोगने का संकल्प बने तब व्यग्रता, भोग भोगों तब व्यग्रता और भोग भोगने के बाद भी व्यग्रता। आदि से अंत तक उन भोगो के प्रसंग में क्लेश ही क्लेश होते हैं।
भोग से अतृप्ति का दृष्टान्तपूर्वक समर्थन—भोग भोगने से तृप्ति नही होती है। जैसे अग्नि कभी ईधन को खा-खाकर तृप्त नही हो सकती है, जितना ईधन बढ़े उतना ही आग की ज्वाला बढ़ेगी, ऐसे ही इन इन्द्रिय के विषयो के भोगो से भी कभी तृप्ति नही होती ज्यों-ज्यों विषय मिले त्यों-त्यों अतृप्ति होती है। संसार में सब जीव एक से दुःखी है, गरीब और अमीर दोनों एक से दुःखी है। उनके दुःख की जाति में थोड़ा अन्तर है, पर दुःख का काम क्या है? विह्लल बना देना। सो यह बात गरीब और अमीर दोनों में एक समान होती है। गरीब भूख के माने तड़फ पर विह्लल होता है तो अमीर लोग मानसिक वेदनावों में, ईर्ष्या तृष्णा की ज्वालावों में जलकर दुःखी रहते हैं। बल्कि गरीब के दुःख से अमीर के दुःख बढ़े है। गरीब हार्ट फेल होने से मर जायें ऐसे कम उदाहरण मिलते हैं और हार्ट फेल होकर मर जाने वाले धनिकों के उदाहरण अधिक मिलते हैं।
देवों के भी भोग से तृप्ति का अभाव—कहाँ है सुख, सब एक तरह के दुःख है। मनुष्यों की बात तो दूर जाने दो, देवता लोग जिनको भूख प्यास का संकट नही, जिन्हें खेती दुकान आदि का आरम्भ नही करना पड़ता है, मनमाने श्रृंगार, वस्त्र, आभूषण उन्हें मिले हुए है। जो चाहें वह वस्तु उनको तुरन्त हाजिर है, फिर भी वे दूसरों की ऋद्धियाँ देखकर, सम्पदा देखकर, वैभव देखकर दुःखी होते हैं। कोई हुकुम देकर दुःखी होता है तो कोई हुकुम मानकर दुःखी होता हे। दुःखी दोनों समान है। उन देवो में जो देव हुकुम दिया करते हैं वे हुकुम देकर दुःखी रहते हैं और हुकुम मानने वाला भी अपनी कल्पना से दुःखी रहा करता है। ये भोग भोगते समय अतृप्ति उत्पन्न करते हैं।
भोगवियोग में विक्षोभ—भोग भोग भी लियेजाये, पर जब इनका अंत होता है तो उस समय यह छोड़ना नही चाहता भोगों को और भोग छूटे जा ही रहे हैं। यह खुद मरता है तो सारा का सारा एकदम छूट रहा है। यह छोड़ना नही चाहता कोई क्या एक दमड़ी भी साथ ले जा सकता है, कहाँ ले जाता है? मनुष्य कमीज पहिने मर गया तो कमीज यही रह गयी जीव चला जाता है। कोई गद्दा तक्की पर पड़ा हुआ मर गया तो सब गद्दा तक्की यही धरे रह जाते हैं,जीव यो ही चला गया। सब चीजें यो ही छूट जाती है। देखने में सब आता है, पर इस मोही जीव को इन भोगो के छोड़ने को साहस नही होता है। ज्ञानी पुरुष ही यह साहस कर सकता है कि सब कुछ जाता है तो जावो, ये मुझसे गये हुए तो पहिले ही थे। पहिले मैं इनमें मिला ही कहाँ था? आदि, मध्य अंत तीनों ही अवस्थावों से किसी एक अवस्था में ही अगर भोगो से सुख मिलता होता तो चलो तब भी भोगों को अच्छा मान लिया जाय पर यहाँ तो सर्वत्र क्लेश ही क्लेश है सुख का तो नाम ही नही है। आरम्भ मे क्लेश, खेती करना, दुकान करना, शरीर का श्रम करना, इन्द्रिय और मन का कष्ट सहना वहाँ भी क्लेश ही है।
भोग से तृष्णा का प्रसार—जब भोग भोगे जाते हैं,इष्ट भोगो की प्राप्ति होती है तो यह तृष्णा सर्पिणी की तरह चंचल होकर भोक्ता को अशान्त बनाए रहती है। जैसे-जैसे भोग भोगे जाते हैं यह तृष्णा शान्त हो जायगी, बढ़ती जाती है तृप्ति नही होती है। कदाचित् कोई सोचे कि इस इष्ट के भोगने से तृष्णा शान्त हो जायगी, तृष्णा शान्त होने से मैं संतुष्ट हो जाऊंगा सो यह सम्भव नही है। कोई पुरुष ऐसा सोचे कि इस समय विषयो को भोगा, वेदना, पीड़ा, कषाय,शान्त हो जायगी, फिर आगे उपद्रव न रहेगा उसका सोचना झूठ है। अरे इसी समय भोगो से विरक्त हो तो शान्ति का मार्ग निकालोगे अन्यथा नही। ये भोग आखिर छूट ही तो जाते हैं,फिर भी इन भोगो से तृप्ति नही मानी जा पाती, संतोष नही हो पाता। आग में कितना ही काठ डालो तृण डालो, पर वह तृप्त नही हो सकती। कदाचित् अग्नि तृप्त हो जाय, पर यह मोही प्राणी भोगों से कभी तृप्त नही हो सकता। सैकड़ो नदियां मिल जाये तो भी समुद्र तृप्त नही होता , बल्कि वह बड़ा होता जायगा। समुद्र नदियों से तृप्त नही होता है। कदाचित् समुद्र भी तृप्त हो जाय लेकिन यह मनुष्य भोगों से तो कभी भी तृप्त नही हो सकता।
विवेकी जनों की भोगों से उपेक्षा—जो मनुष्य मूढ़ है,हित अहित का जिनके विवेक नही है वे भोगों के भोगने के समय भोगों को सुखकारी मानते हैं और भोगो में ही प्रीति बढ़ाते हैं लेकिन जो निर्मल चित्त है, विवेकी है, परीक्षक है वे इन क्लेशकारी विनाशीक भोगो की और नही भागते किन्तु आत्महितकारी रत्नत्रय मार्ग की ओर ही प्रगति करते हैं कोई यहाँ प्रश्न करने लगे कि बड़े-बड़े विद्वान बुद्धिमान भी तो विषयों को भोगते हुए देखे जाते हैं । यहाँ विषय शब्द से सभी इन्द्रियों का विषय होना है। भोजन भी आ गया, सुगंधित चीजें भी आ गयी, राग रागिनी सुनना, सभी विषयों की बात है। कोई जिज्ञासा करे कि बड़े-बड़े विद्वान लोग भी भोगो को भोगते रहे। पुराणों में भी भोगों के भोगने की कथा सुनी जाती है, फिर तुम्हारा यह उपदेश कैसे संगत होगा? ठीक है लिखा है पुराणों में। तो भी भोगों का तजना शूरों का काम है, आखिर उन महापुरुषों में भी अनेकों ने आखिर भोगों को तज भी तो दिया है। और जब भोग भी रहे थे तो वे विवेकी सम्यग्दृष्टि संत पुरुष उस काल में यद्यपि गृहस्थावस्था में चारित्र मोहनीय के उदयवश भोगो को छोड़ने में असमर्थ रहे लेकिन तब भी उनके अंतरंग से राग न था। जिनके सम्यग्ज्ञान हो गया है, भ्रम नष्ट हो गया है उनको फिर भ्रान्ति नही होती।
ज्ञानी के भोग से विरक्ति—अज्ञानी पुरुष ही इन भोगो को हितकारी समझते हैं और आसक्ति से सेवते हैं। ज्ञानी पुरुष भोगो को विपदा मानते हैं,भोगना पड़ता है भोग, फिर भी अन्तर में यह चाह रहती है कि कब इनसे निपट जाये, छुट्टी मिले। जैसे कैदी जेलखाने में चक्की पीसता है, किन्तु उसको चक्की पीसने में अनुराग है क्या ? रंच भी अनुराग नही है। जैसे घर में महिलाएँ चक्की पीसने के लिए जगती है और गाकर चक्की पीसती है तो उनको चक्की पीसने में अनुराग है पर कैदी को रंच भी अनुराग नही है। उसे तो चक्की पीसनी पड़ती है। वह तो जानता है कि यह एक आपदा है, इससे मुझे कब छुट्टी मिले। इसी प्रकार ये भोग विषय चक्की पीसने की तरह है। यह जीव इस समय कैदी हुआ है, शरीर और कर्म के बन्धन में पड़ा है। वह जानता है कि ये आपदामय भोग मुझे भोगने पड़ रहे हैं किन्तु इनसे छुटकारा कब मिले, कैसे मिले, इस यत्न में भी वह बना रहता है।
विवेकी और अविवेकी की दृष्टि का सुख—भैया ! विवेकी और अविवेकी में बड़ा अन्तर है। दाल में कभी नमक ज्यादा पड़ जाय तो लोग क्या कहते हैं कि दाल खारी है। अरे यह तो बतलावो कि दाल खारी है कि नमक खारा है। जरा सी दृष्टि के फेर में कितने अर्थ का अन्तर हो गया है। समझदार जानते हैं कि इसमें जो खारापन है वह नमक का है । कही मूंग, उड़द आदि नमकीन नही होते हैं। ऐसे ही यह ज्ञानी जानता है कि ये जितने रागद्वेष विषय है ये सब कल्पना के सुख है, ये मेरे रस नही है, मेरे स्वाद नही है। ये कर्मोंदयजन्य विभाव है। इनमें वह शक्ति नही होती है।
भोग के त्याग की भावना का परिणाम—भैया ! पुराणों में जो चरित्र आए है भोग भोगने के, उनमें अंत में त्याग की भी तो कहानी है। उससे यह शिक्षा लेनी चाहिए कि ऐसे बडे़ भोग भोगने वाले भी इन भोगों को छोड़कर शान्त हो सके हैं। जो विशिष्ट विवेकी पुरुष होते हैं वे आरम्भ से ही विषयों को बिना भोगे ही जीर्ण त्रण के समान असार जानकर छोड़ देते हैं। जैसे कपड़े में कोई जीर्ण तृण लगा आया हो, त्यागियों के पास आप बैठे हो और आपके कोट में कोई तिनका आ गया हो, चलते हुए रास्ते में आपको अपने कोट पर पड़ा हुआ तिनका दिख जाय तो आप उसे कैसा बेरहमी से बेकार जानकर फेंक देते हैं। तो जैसे जीर्ण तृण को इस तरह लोग फेंक दिया करते हैं ऐसे ही अनेक विवेकियों ने इस वैभव को भी जीर्ण तृण के समान जानकर शीघ्र ही अलग किया है। जो भोग तज देते हैं और आनन्दमय अपने आत्मस्वरूप में अपने को निरखते हैं उनका ही जीवन सफल है। भोग भोगने वाले का जीवन तो निष्फल गया समझना चाहिए।
तीन प्रकार के त्याग में जघन्य त्याग—इन भोगों को कोई पुरुष भोगकर अंत में लाचार होकर त्यागते हैं और कोई पुरुष वर्तमान भोगों को भी त्याग देते हैं और कोई ऐसे उत्कृष्ट होते हैं जो भोगने से पहिले ही उन्हें त्याग देते हैं। एक ऐसा कथानक चला आया है कि तीन मित्र थे। वे एक साथ स्वाध्याय करते थे, उनमें एक बूढा था, एक जवान था ओैर एक बालक किशोर अवस्था का था। तीनों में यह सलाह हुई कि अपने में से जो कोई विरक्त हो वह दूसरे को आग्रह करता हुआ जाये और उन्हें भी सम्बोधे। उनमें से जो वृद्ध महाराज थे उनके मन मे आया कि थोड़ा सा ही जीवन रहा है, अब विषय कषायों का त्याग कर धर्म सेवना चाहिए। तो उस वृद्ध ने एक साल तक इस बात का यत्न किया, जो सम्पदा थी, बहिन को, बुवा को, धर्म काज में, भाइयों में, लड़कों को जो कुछ बाँटना था उस बंटवारे मे ६-७ महीना समय लगाया। बाद में फिर उनकी व्यवस्था देखी कि हाँ सब लोग ठीक काम करने लगें, तब वह विरक्त होकर चलता है।
मध्यम त्याग—वृद्ध विरक्त जा रहा है, रास्ते में उस जवान की दुकान मिलती थी। वह दुकान पर बैठा हुआ था, खुली दुकान चल रही थी। दुकान में जब वह वृद्ध पहुँचा तो बोला कि हम तो विरक्त हो गए है इसलिए अब नगर छोड़कर जा रहे हैं। तो वह युवक बोला कि हम भी साथ चलते हैं। सो दुकान छोड़कर साथ चलने लगा तो वह वृद्ध कहता है कि अरे लड़कों को बुला तो, इस दुकान का हिसाब किताब समझा दो, क्या लेना है, क्या देना है तब चलो, तो युवक बोला कि जिस चीज को छोड़ना ही है तो उसे फिर क्या संभलवाये? वह वृद्ध बोला कि हम सब संभलवाकर आये हैं। जवान बिना संभलवाएं दुकान से उठकर चल दिया।
उत्कृष्ट त्याग—वृद्ध और युवक दोनों विरक्त होकर जा रहे हैं। वह २० वर्ष का बालक कही बड़े खेल में शामिल हो रहा था। उस खेलते हुए बालक से ये दोनों कहते हैं कि अब तो हम विरक्त हो गए है, जा रहे हैं। तो वह हांकी डंडा जो कुछ था वही फेंककर बोला कि हम भी चलते हैं।दोनों बोले कि अभी तुम्हारी कल परसों सगाई हुई है और १०-१५ दिन तुम्हारी शादी के रह गए है, तुम अभी रहो, फिर सोच समझकर आना। तो लड़का बोलता है कि जो चीज छोड़ने लायक है उस चीज में पहिले हम फँसे और फिर छोड़े, तो इससे क्या लाभ है? वह वही से चल दिया। तो ये तीन प्रकार के लोग है। सबसे बढ़िया कौन रहा? बालक उसके बाद जवान और तीसरा विरक्त तो हुआ मगर उन दोनों में सबसे हल्का कौन रहा? बुड्ढा।
उत्तरोत्तर त्याग की महत्ता—जो भी त्यागी जन हुए है उनमें से किसी ने तो इन विषयभोगों की तृण के समान तजकर अपनी लक्ष्मी अर्थी जनों को दे दी, जो चाहने वाले थे या जहाँ लगाना चाहिए वहाँ लगाकर, देकर चल दिया। और कुछ पुरुष ऐसे हुए कि इस धन सम्पदा को पापरूप तथा दूसरों को भी न देने के योग्य समझकर किसी को न दिया, यो ही छोड़ छोड़कर चल दिया, अब जिसके बंटवारे में जो होता है हो जायगा। कोई पुरुष घर में रहता हुआ अचानक ही मर जाय, कुछ समझा भी न पाये तो उसकी गृहस्थी का क्या होता है? जो होना है वह हो जाता है। कोई पुरुष ऐसे होते हैं कि उस वैभव को दुःखदायी जानकर पहिले से ही ग्रहण नही करते हैं। इन तीनों प्रकार के त्यागी पुरुषों में उत्तरोत्तर के त्यागी श्रेष्ठ है।
वज्रदन्त चक्री के वैराग्य का निमित्त—एक कथानक प्रसिद्ध है—एक बार वज्रदन्त चक्रवर्ती सभा में बैठे हुए थे, एक माली एक कमल का फूल लाया। उस फूल के अन्दर मरा हुआ भंवरा पड़ा हुआ था। ये कमल के फूल दिन में तो फूले रहा करते हैं और फूले हुए वे कमल रात्रि को बंद हो जाते हैं,फिर जब दिन होता है तो फिर वे फूल जाते हैं। कोई कमल बहुत दिनों का फूला हुआ हो, बूढ़ा हो गया हो वह तो फिर बंद नही होता, मगर जो दो एक दिन के ही फूले कमल हो वे रात्रि के समय बंद हो जाते हैं कोई भंवरा शाम से पहिले उस कमल में बैठ गया, उसकी सुगंध में आसक्त होकर वह उड़ न सका, कमल बंद हो गया। वही कमल माली तोड़कर सुबह लाया और राजा को भेट किया। राजा ने, चक्रवर्ती ने उस कमल को थोड़ा हाथ से खोलकर देखा तो मरे हुए उस भंवरे को देखा। उस भंवरे को देखकर वज्रदंत को वैराग्य जगा।
वज्रदन्त चक्री का वैराग्य—अहो यह भंवरा घ्राण इन्द्रिय के विषय में क्षुब्ध होकर अपने प्राण गवां चुका है और-और भी चिंतन किया। मछली रसना इन्द्रिय के विषय में लोभ में आकर प्राण गवां देती है, हाथी स्पर्शन इन्द्रिय के लोभ में आकर प्राण गवां देता है, ये पतंगे नेत्र इन्द्रिय के विषय में लुब्ध होकर अपने प्राण गवां देते हैं। हिरन, सांप आदि संगीत प्रिय पशु कर्ण इन्द्रिय के लोभ में आकर जान गवां देते हैं। ये जीव केवल एक-एक विषय के लोभी है, एक-एक विषय में अपने प्राण नष्ट कर देते हैं,किन्तु यह मनुष्य पंचेन्द्रिय के विषयों का लोभी है। इसकी सभी इन्द्रियाँ प्रबल है। राग सुनने, रूप देखने, इत्र सुगंध सूंघने, स्वादिष्ट भोजन करने आदि का बड़ा इच्छुक है, कामवासना के साधन भी यह चाहता है, और इन इन्द्रियों के अतिरिक्त मन का विषय तो इसके बहुत प्रबल लगा हुआ है। मन और पंचेन्द्रियां के विषयो का लोभी यह मनुष्य है, इसका क्या ठिकाना है? यो विचारते हुए वज्रदन्त चक्रवती विरक्त हो गए।
वज्रदन्त चक्री के पुत्रों का वैराग्य—वज्रदंत चक्रवर्ती के हजार पुत्र थे। बड़े पुत्र से कहा कि तुम इस राज्य को संभालो, हम तुम्हें तिलक करेंगे। बड़ा पुत्र बोला कि पिताजी आप मुझे क्यों राज्य सम्पदा दे रहे है? आप बड़े है आप ही इसे संभाले, हम तो आपके सेवक है। वज्रदन्त बोले कि नही मुझे राज्य सम्पदा से मोह नही रहा। मैं आत्म कल्याण के लिए वन में जाऊंगा, यह राज्य सम्पदा अब मुझे रूचिकर नही हो रही है, यह अनर्थ करने वाली है। तो पुत्र बोला कि जो सम्पदा अनर्थ करने वाली है फिर उसे आप मुझे क्यों दे रहे हे ? आप छोड़कर जायेंगे तो हम भी आप के साथ जायेंगे। मुझे इस राज्य सम्पदा से प्रयोजन नही है। दूसरे तीसरे सभी लड़कों से कहा। उन लड़कों में से किसी ने भी स्वीकार न किया और वे सबके सब वज्रदन्त के ही साथ दिगम्बरी दीक्षा लेने के लिए उत्सुक हुए। वज्रदन्त ने बहुत समझाया देखो तुम्हारी छोटी उमर है, अभी तुमने भोगों को नही भोगा है, कुछ दिन को रह जाओ जंगल में बहुत कठिन दुःख होगे, ठंडी, गर्मी, क्षुधा, तृषा आदि की अनेक वेदनाएं तुम कैसे सहोगे, तो पुत्र बोलते हैं कि पिता जी तुम तो साधारण राजा के लड़के हो और हम चक्रवती के पुत्र है, आपसे भी अधिक साहस हम रख सकते हैं। चक्रवर्ती जो होता है वह चक्रवर्ती का लड़का नही होता। सामान्य राजा का पुत्र हुआ करता है फिर वह अपने पौरूष से चक्रवर्ती होता है। तो चक्रवर्ती का लड़का लड़के यो कहते हैं और अपने पिता जी के साथ जंगल को चल देते हैं। उस समय बालक पौत्र को तिलक करके चल दिये थे।
परिग्रहण की कलुषता—भैया ! खूब भोग-भागकर बाद में उनके विभाग बनाकर त्यागे, वह भी ठीक है। अनेक लोग तो ऐसे होते हैं कि मरते-मरते भी नही त्याग सकते हैं। जुलाहा कपड़े बुनता है तो वह भी पूरा नही बुन सकता है, अंत में दो चार अंगुल छारी उसे छोड़ना पड़ता है किन्तु यह मोही मनुष्य अपने जीवन के पूरे क्षण पूरता ही रहता है। मरते जा रहा है और कहता जाता है कि मेरे लल्ला को दिखा दो। और कदाचित् मर न रहा हो, कुछ रोग ऐसा आ गया हो कि दम न निकल रही हो, भीतर ही भीतर भिंचा जा रहा है, बोल नही सकता । ऐसी स्थिति में कदाचित् बाहर से बेटा बेटी आ जाये और उसी समय संयोगवश उसका दम निकल लाय क्योंकि बहुत दिनों से ऐसा दम घुटी हुई तो हो ही रही थी उसी समय बेटा बेटी आ जाये तो लोग कहते हैं कि इसका बेटा बेटी में दिल था इसीलिए अभी तक नही मर रहा था। अगर ऐसी बात हो तो बेटा बेटी को कभी न आना चाहिए ताकि उसकी जान न निकले, कभी न मरे। ठंडी आत्मा हो गयी तब यह मरा ऐसा अनेक लोग कहते हैं। चलो, वे भी अच्छे है जो भोगो को भोगकर, भोगो की असारता समझकर एक ज्ञाननिधि आत्मतत्त्व की और लौ लगाते हैं।
वैराग्य का तात्कालिक प्रभाव—भोग चुकने के बाद छोड़ने वालो से भी बढ़कर वे त्यागी है जो पाये हुए समागम में भी राग नही रखते हैं और त्याग देते हैं। वे बाल ब्रह्मचारी तो विशेष के पात्र है जो भोगों में फंसते ही नही है। पहिले से ही त्याग देते हैं। वे जानते हैं कि ये भोग साधन आरम्भ में दुःख दे, प्राप्त होने पर दुःख दे और अंत समय में दुःख दे।
ज्ञानदृष्टि बिना कल्याण अंसभावना—कोई भी जीव अपनी ज्ञानदृष्टि किए बिना शान्त सुखी नही हो सकता। ईट पत्थर सोना चांदी इनमें कहाँ आनन्द भरा हुआ है जो वहाँ से आनन्द झरा करे। धन्य है वे पुरुष जिनका चित्त निर्मल है, जिन्होंने अपने सहज ज्ञानस्वरूप का परिचय पाया है और ज्ञानानुभव का आनन्द ले करके बैठे है। गृहस्थ जनों में भी अनेक महापुरुष ऐसे हुआ करते हैं जिन्हें कर्मोदय से बरजोरी भोग भोगना पड़ रहा है। परन्तु अंतरंग मे अत्यन्त उदासीन रहते हैं ऐसे भी महापुरुष होते हैं। वे अपने गृहस्थ में भी आन्तरिक योग्य तपस्या बनाये हुए है। जीव, कर्म और कर्म फल—इन तीन तत्त्वों का जिनको यथार्थ विश्वास नही है वे भोगों का परित्याग कर ही नही सकते हैं। वे पूजा करें तो धन भोग बढ़ाने के खातिर करेंगे, वे धर्म साधन करे तो इसी लक्ष्य से करेंगे कि मेरे सम्पदा बढे़, परिजन सुखी रहे, मौज बनी रहे, मौज बनी रहे, किन्तु यह समस्त मौज भी विपदा है।
समागम की विपदा—भैया! यह सम्पदा का समागम भी क्लेश हे। यह जीव तो सबसे न्यारा स्वतंत्र एक शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप है, यह जब जन्मा तब क्या लाया और जब मरेगा तब क्या ले जायगा? इस जन्म मरण के बीच के कुछ दिन क्या मूल्य रखते हैं ? जैसे ५०-६० वर्ष की उम्र में किसी दिन कोई स्वप्न आ जाय तो वह जो स्वप्न एक मिनट का है। उस सारी जिन्दगी में एक मिनट का दृश्य क्या मूल्य रखता है काल्पनिक है। उस एक मिनट का तो हिसाब बन सकता है किन्तु अनन्तकाल के सामने यह ५०-६० वर्ष का जीवन कुछ भी हिसाब में नही आता है। यह कर्मों का फल है, यह करतूत है इस करतूत का यह फल होता है। वर्तमान में उसकी यह दशा है, उसका जो अशुद्ध परिणाम है, अन्याय का भाव है यही मुझ पर विपदा है।
प्रत्येक परिस्थिति स्वयं की करनी का परिणाम—सब न्याय इस अंतरंग प्रभु के द्वारा हो रहा है। खोटा परिणाम किया तो तुरन्त संक्लेश हुआ, कर्मबंध हुआ और उसके फल में नियम से दुर्गति भोगनी पडे़गी। शुद्ध परिणाम यदि है तो चाहे कितनी भी विपदा आये, विपदा का सत्कार करे, क्या विपदा है? बाह्य पदार्थों का परिणमन है। मुझमें बिगाड़ तब होगा जब मैं उन परिणमनों के कारण अपने आप ही अपने सिर मोल ले लिया करते हैं।विपदा किस वस्तु का नाम है? किसी भी वस्तु का नाम विपदा नही है, कल्पना बनायी, लो विपदा बन गयी। आज ५० हजार का कोई धनी है और कदाचित् ५००रु. की ही पूंजी होती तो क्या ऐसा हो नही सकता था। अनेक पुरुष ऐसे गरीब पडे़ हुए है, क्या ऐसी स्थिति हो नही सकती थी।
समागमका उपकार में उपयोग करनेका अनुरोध—भैया ! ऐसा निर्णय करे कि जो मिला है वह मेरे मौज के लिए नही मिला है। उसका यो सदुपयोग करे कि अपनी भूख प्यास ठंड गर्मी मिटाने के लिए साधारण व्यय करके यह समझे कि जो कुछ आया है यह परोपकार के लिए आया है। दसलक्षणीमें बोलते हैं ना—खाया खोया बह गया, कल्पना के विषयो में जितना धन लगाया है वह खाया खोया बह गया की तरह है और जिन उपायों से लोकमें ज्ञान बढ़े, धर्म बढ़े, शान्ति मिले, मोक्षमार्गका प्रकाश मिले उन उपायों में धन का व्यय किया तो उसको कहा करते हैं,निज हाथ दीजे साथ लीजे। ये भोग शुरू में भी, मध्य में भी और अन्त में भी केवल क्लेश को ही उत्पन्न करने वाले हे। यह जानकर ज्ञानी पुरुष भोगों को हेय समझकर भोगते हुए भी नही भोगते हुए के समान रहते हैं।
विषयविषमें अनास्था—जब चारित्र मोहनीय कर्मका उदय निर्बल हो जाता है जिनके अर्थात् कर्मों की शक्तिक्षीण हो जाती है तो वे भोगों का सर्वथा परित्याग कर सकते हैं। जो पहिले से यह भावना भाये कि ये भोग पराधीन है, दुःखकारी भरे हुए है, पाप के कारण है ऐसे भोगों का क्या आदर करना ? भोगते हुए भी भोगो का अनादर रहे तो वह भोगों से मुक्त हो सकता है, परन्तु अज्ञानी जीव ऐसा नही कर सकते हैं,उनके तो व्यामोह लगा है। उन्होने तो अपने आनन्दस्वरूपका परिचय ही नही पाया है। ये विषय सुख वास्तव में विष ही है, यह अनुभव अज्ञानियों को नही होता है। विषयभोग सम्बन्धी यह विष अत्यन्त भंयकर है। जो प्राणी विषयविषका पान करते हैं वे इस विष के द्वारा भव-भवमें विषय सुखकी कल्पनामें रहते हुए विषयों से उत्पन्न हुए दुःखको सहते रहते हैं। दुःख सहते रहते हैं अज्ञानी, फिर भी कुछ चेत नही लाते हैं।
अन्तर्बाह्य सात्त्विक रहन—भैया ! मोह को महत्व न दे, अपने आपका यह निर्णय रखे कि धन वैभव प्रशस्त नही होता क्योंकि धन होगा तो बिरले ही पुरुष के भले ही वहाँ भोग उपभोग की आसक्ति न हो सके पर प्रायः करके अज्ञानियों से ही भरा हुआ यह जगत है। इस कारण वे भोग और उपभोगों में आसक्त हो जाते हैं। भोग उपभोग की लीनता अशुभ कार्य का कारण है और भोग उपभोग को उत्पन्न करने वाला धन है, तो इस धन को कैसे प्रशस्त कहा जा सकता है? हाँ कोई बिरले गृहस्थ जो बडे़ विवेकी है अपने आडम्बरको, रहन सहन को सात्विक वृत्ति से करते हैं,जिनका लक्ष्य यह है कि मेरे प्रयोजन में इतना व्यय होगा, शेष सब परोपकार के लिए है।
महापुरूषों के जीवनका लक्ष्य—भैया ! हुए भी है कुछ ऐसे राजा जो स्वयं खेती करके जो पायें उसमें अपना और रानी का गुजारा करते थे, और राज्य से जो कर मिला, सम्पदा आयी उसका उपयोग केवल प्रजा जनों के लिए किया करते थे। उनका यह विश्वास था कि जो कुछ प्रजा से आया है वह मेरे भोगनेके लिए नही है वह प्रजा के लिए है। कुछ बिरले संत ऐसे, पर प्रायः करके मोही प्राणी है जगत के सो वे धनका दुरूपयोग ही करते हैं। अपने विषय साधनों में, मौज में, संग्रह में धनसंचय के कारण मैं बड़ा कहलाऊँगा, लोगों में मेरी इज्जत रहेगी। इन सब कल्पनावों के आधीन होकर आसक्त रहा करते हैं। ऐसे इन विपत्ति जनक भोगों से कौन पुरुष सन्तोष प्राप्त कर सकेगा ? ज्ञानी पुरुष इन भोगों की चाह में नही फंसता है।