इष्टोपदेश - श्लोक 39: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>निशामयति निःशेषमिंद्रजालोपमं जगत्।</strong></p> | ||
< | <p><strong>स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते।।39।।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>जगत् इंद्रजालोपमता</strong>―योगी जन इस समस्त जगत को इंद्रजालकी तरह समझकर इसे दूर करते हैं और आत्मा की प्राप्ति के लिए स्पृहा रखते तथा आत्मलाभके सिवाय अन्य किसी भाव में उपयोग कुछ चला जाय तो उसका बड़ा पछतावा करते हैं। इस श्लोक में तीन बातों पर प्रकाश डाला है, प्रथम तो इस समस्त जगत को इंद्रजाल की तरह निरखता है, इंद्रजाल का क्या अर्थ है? लोक में तो ऐसी रूढ़ि है कि जैसे बोई तमाशगीर चीज तो कुछ नही है और लोगो को दिखाये, उसको इंद्रजाल मानते हैं,यह भी अर्थ लगा लो तो भी कुछ हानि नही है क्योंकि जो कुछ दिखता है वह परमार्थ में ऐसा है ही नही, और माही जीवको यही परमार्थ और सत्य नजर आता है, इस कारण यह भी अर्थ ले लो पर इसका वास्तविक अर्थ यह है कि जो कुछ यहां दृश्यमान है यह सब इंद्रका जाल है। इंद्र मायने आत्मा। उस आत्मा की विकार अवस्था होने से जो कुछ परिणमन होता है उससे जो कुछ यह सारा जाल बिछा हुआ है यह इंद्रजाल है। अलंकार न लेना कि यह आमूल इंद्रजाल ही है यह सब कुछ। यह आत्मा का जाल है।</p> | ||
<p | <p><strong>इंद्रका जाल</strong>―यह प्रभु जो अनादि अनंत अहेतुक अंतः प्रकाश भाव है, प्रत्येक जीव में विराजमान है। जीवो का जो स्वभाव है वही तो प्रभु है वह प्रभु पर्यायमें जकड़ा है, विकृत होकर जब यह अपना जाल फैलाता है तो इसका जाल भी बड़ा विकट है। यह प्रभु इतना समर्थ है कि सुधार का भी बड़ा विकट चमत्कार दिखाता है और विकार का भी बड़ा विकट चमत्कार दिखाता है। कोई वैज्ञानिक किसी भी प्रकार ऐसा इंद्रजाल बना तो दे। उसमें इतनी सामर्थ्य नही है। भले ही वह अजीव पदार्थों को परस्पर में संबद्ध करके एक निमित्तनैमित्तिक पद्धति में कुछ असर दिखा दे। किंतु इंद्रजाल नही बना सकता है। तो यह योगी सर्वत्र इंद्रजाल देखता हे, इंद्रका स्वरूप नही हे यह, किंतु इंद्रका जाल है, इसी कारण वह किसी भी इंद्रजाल में रमता नही है।</p> | ||
<p | <p><strong>विषयसाधनों की जलबुद्बुदसम असारता</strong>―भैया ! इस लोकमें रमण करने योग्य क्या है? जो कुछ है वह सब जलके बुदबुदेकी तरह चंचल है, विनाशीक है, कुछ ही क्षण बाद मिट जाने वाला है। जैसे जलका बबूला देर तक ठहरे तो उस पर बच्चे लोग बड़े खुश होते हैं,और शान के साथ किसी बबूले को अपना मानकर हर्ष के साथ कहते हैं देखो मेरा बबूला अब तक ठहरा है। बरसात के दिन है, जब ऊपर से मकान का पानी गिरता है तो उसमें बबूले पैदा हो जाते हैं,बच्चे लोग उनमें अपनायत कर लेते हैं कि यह मेरा बबूला है, कोई लड़का कहता है कि मेरा बबूला है, अब जिसका बबूला अधिक देर तक टिक जाय वह बच्चा उठता है, मेरा बबूला अब तक बना हुआ है। ऐसे ही यह पर्याय, यह जाल यह शरीर बबूले की तरह है। इन अज्ञानी बच्चों ने अपना-अपना बबूला पकड़ लिया है, यह मेरा बबूला है, यह बबूला कुछ देर तक टिक जाय तो खुश होते हैं,मेरा बबूला अब तक टिका हुआ है। यो यह योगी पुरुष इंद्रजाल की तरह समस्त जगत को जान रहा है। यहां किससे प्रीति करे, कौन सहाय है, किसका शरण गहे, जो कुछ भी है वह सब अपने लिए परिणमता है।</p> | ||
<p | <p><strong>वस्तुमें अभिन्नषट्कारकता</strong>―भैया ! यह लोक अपना ही स्वार्थ साधता है, इसमें गाली देने की गुंजाइश नही है, किसी को स्वार्थी आदिका कहने की आवश्यकता नही है, वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि वह स्वयं से संप्रदान हो सकता है। प्रत्येक पदार्थ स्वयं कर्ता है। स्वयं कर्म है, स्वयं करण है और स्वयं ही संप्रदान, अपादान और अधिकरण भी है अर्थात् पदार्थ परिणमता है, यही तो करने वाला हुआ, और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही परिणमनके द्वारा परिणमता है इसलिए यही साधन हुआ और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही परिणमनके द्वारा परिणमता है इसलिए यही साधन हुआ और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही परिणमन के द्वारा परिणमता है इसलिए यही साधन हुआ और परिणाम करके फल क्या पायगा, किस लिए परिणम रहा है, वह फल भी स्वयं है। किससे परिणमता है, किसमें परिणमता है, सो वह अपादान व अधिकरण भी स्वयं है।</p> | ||
<p | <p><strong>पदार्थ के परिणमन का संप्रदान</strong>―पदार्थ के परिणमनेका फल क्या है? वह फल है सत्ता रहना। प्रत्येक पदार्थ के परिणमन का प्रायोजन इतना ही मात्र है और फल इतना ही मिलता है कि उसकी सत्ता बनी रहे, इससे आगे उसका कुछ फल नही है। यह समझदार है जीव इसलिए इसने बेईमानी मचा रक्खी है। जो समझदार नही है वे पदार्थ अब भी अपने ईमान पर टिके हुए है, वे परिणमते हैं मात्र अपना सत्व रखने के लिए किंतु ये विकारी, रागी जीव परिणमते ह तो न जाने कितने प्रयोजनों को बताते हैं। मैं संसारमें यश बढ़ा लूँ, संपदा बढ़ा लूँ, अनेक विषय सुखों के साधन छुटा लूँ, कितने ही प्रयोजन बनाते हैं। भले ही ये कल्पना में कितने ही प्रयोजन बनाएँ किंतु एक संत पुरुष की ओर से तो प्रयोजन वही का वही रहता है जो अचेतन को मिलता है, इससे अधिक कुछ नही है। यह जीवज्ञानरूप परिणमता है तो ज्ञानरूप परिणमनेका फल ज्ञान ही रहता है, इससे अतिरिक्त कुछ फल नही है। जो और कुछ फल खोजा जाता है वह सब मोहका माहात्म्य है। वस्तुतः अपनी सत्ता कायम रखने के लिए ही पदार्थ परिणमन करते हैं। जैसे यह चौकी है, इसको कोई जला दे तो क्या हो गया इसका? इसका ही यो परिणमना हो गया। न भी कुछ करे तो भी यह जीर्ण होती जा रही है, परिणमती जा रही है। किसी भी रूप परिणमें, इन परिणमनों का प्रयोजन इतना ही मात्र है कि परमाणुवोंकी सता बनी रहे, अब कोई भी चीज किसी भी प्रकार परिणमें उसका प्रयोजन यह मोही जीव अपनी कल्पना के अनुसार बना लेता है।</p> | ||
<p | <p><strong>योगीकी आत्मस्पृहा</strong>―यह समस्त जगत इंद्रजाल की तरह है। इन सबको यह योगी शांत कर देता है। इस सारे जगत् को यह योगी ओझल कर देता है अपने उपयोग से और होता क्या है कि अंधकार में सर्व पदार्थ ओझल हो जाते हे। रहो, किसी प्रकार रहो। अब योगी के लिए यहाँ कुछ भी नही है, यो इंद्रजाल की तरह इन समस्त पदार्थों को यह ज्ञानी अपने उपयोग से ओझल कर देता है। अब ज्ञानी के केवल आत्मा की ही स्पृहा रहती है और यह अंतस्तत्व ही उसके प्रोग्राममें, लिस्टमें रह जाता है। ये योगी केवल आत्मलाभ की स्पृहा करते हैं। मेरा आत्मा मेरे को मिले, ये भिन्न असार पदार्थ, इनका मिलना जुलना सब खतरेसे भरा हुआ है कोइ रुच गया राग तो क्या वह कुछ बढ़वारीके लिए है? कोई अनिष्ट जंचा, द्वेष किया वह भी बरबादी के लिए है। मेरा शरण, रक्षक यह मेरा आत्मा मेरे को प्रकट हो, और मुझे कुछ न चाहिए।</p> | ||
<p | <p><strong>आत्मलाभकी आकांक्षा</strong>―जैसे कोई जबरदस्त मुसाफिर किसी कमजोर मुसाफिरको दबाकर उसकी हानि कर दे और उसका झगड़ा बढ़ जाय तो वह कमजोर मुसाफिर यही कहता है कि बस मेरी चीज दिला दो, मुझे और कुछ न चाहिए। वह अपनी मांग करता है, यो ही यह बना बनाया गरीब एक बडे़ फंद और विडंबना में पड़ गया है। कहाँ तो यह अमूर्त निर्लेप ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व उत्कृष्ट पदार्थ है और कहाँ यह सुख दुःख पर्याय, कल्पना, शरीर इनमें बँधा फिर रहा है और अपने राग की जिस विषय में ममता की है उस विषय के पीछे-पीछे भटकता फिरता है। जैसे बछड़े वाली गायको हांकना नही पड़ता है यदि उसके बछड़े को कोई गोद में लेकर चलता जाय आगे, वह गाय उस बछड़े के पीछे-पीछे हींडती भागती चली जायगी। अपनी विपदाको भी वह न देखेंगी, ऐसे ही यह मूढ़ात्मा अपने राग का जो विषय बनाता है उस विष के पीछे यह आत्मा दौड़ता भागता फिरता है। न अपनी विपदा को देखता है, न अपनी बरबादी का ख्याल है। ऐसा यह मोही जीव संसार-भ्रमण में गोते लगा रहा है, किंतु यह ज्ञानी पुरुष एक आत्मलाभकी ही स्पृहा करता है।</p> | ||
<p | <p><strong>मेरा और मैं का निर्देश</strong>―मुझे तो मेरा मैं चाहिए अन्य कुछ न चाहिए, इस ही का नाम है योग धारण। योग मायने जोड़। मेरा मैं बिछुड़ा हुआ हूं, इसका जोड़ कर दीजिए। मेरे को मैं मिल जाय यही है योग। जिसको मेरा कहा जा रहा है वह तो है उपायोंके रूप में ओर जिसे मैं कहा जा रहा है यह है परम पारिणामिक भावमय अंतस्तत्त्वके रूपमें। यह उपयोग कह रहा है कि मेरा मैं मिल जाय। मेरा जो आधारभूत है जिस पर मेरी स्पृहा चलती है, जिस पर मैं अपना चमत्कार दिखा पाता हूं, अपना जौहर दिखाया करता हूं ऐसा मेरा नाथ शरण मुझे मिल जाय यही मेरा नाथ है। न अथ। अथ मायने आदि। जिसकी आदि नही है उसे नाथ कहते हैं। यह उपयोग यह परिणमन तो सादि है। जिसकी कुछ आदि हो उसकी क्या वखत करूँ। जिसकी आदि नही है उसकी वखत है। नई फर्म खुली होकिसी के नाम पर तो उसका कुछ असर नही होता और पुरानी फर्म हो तो लोग बदलते नही है। उसे चाहे पोते और संतेमें भी बाँट हो। लोग सोचते हैं कि पुरानी फर्मका नाम न बदले, नही तो फिर ठिकाने की संभावना नही है। जिसका आदि नही है ऐसा मेरा नाथ वही विश्वास के योग्य है। जिसकी आदि है वह मिट जायगा। ऐसे परिणमनों पर इस ज्ञानी का उपयोग नही थमता है। यह तो एक अंतस्तत्वके लाभ के लिए स्पृहा करता है।</p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञानी का परोपयोगमें अनुताप</strong>―यह अज्ञानी योगी अपने आत्म मिलनके लिए उद्यत है फिर भी पूर्व वासना वश उससे डिग जाय और किन्ही बाह्य अर्थों मे लग जाय तो उसे ऐसा पछतावा होता है कि इतने क्षण हमने व्यर्थ में विकल्पों मेंलगाये। ज्ञानी जन कभी उपवास करते हैं तो उस उपवास का उनके लक्ष्य क्या है? उस आहार के प्रसंग में जो पौन घंटे का समय लग जाता है उस समय में जो आत्मतत्त्वसे चिगनेका विकल्प बनता है उसका वे पछतावा करते हैं निराहार रहने में वे खुश है, पर आत्मतत्त्व के उपयोग से चिगनेमें वे खुश नही है, इसलिए उनका आहार छूट जाता है, वे निराहारी हो जाते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong>अज्ञानसे व्यवहारधर्ममें भी कर्तृत्व बुद्धि</strong>―इस आहारत्यागमें धर्म लग जायगा, पुण्य बंध जायगा, मुझे उपवास करना चाहिए ऐसा सोचना विकल्पमूलक उपवास है। एक झंझट से बचे और अपने आत्मलाभमें लगे ऐसी दृष्टि ज्ञानी पुरुष के होती है अज्ञानी तो उपवास में क्षोभ बढ़ाता है, एक दिन पहिले क्षोभ किया, जब उपवास किया तब क्षोभ, अंत में क्षोभ किया। किसीने कई उपवास किया तो शरीर के कमजोर होते हुए भी यह कहता है कि भाई हमें तो कुछ भी नही कठिनाई मालूम पड़ रही है? हम तो बड़े अच्छे है ऐसे मायाचार को बढ़ावे, तृष्णा को बढ़ावे क्रोध को बढ़ावे घमंड को बढ़ावे इसी सभी चीजें बढ़ाने का ही वास्तवमें उसने कार्य किया, कुछ अपने हितका कार्य नही किया।</p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञानी अंतर्दृष्टि</strong>―ज्ञानी पुरुष की दृष्टि को ज्ञानी ही कूत सकता है, अज्ञानी नही कूत सकता है। गृहस्थ ज्ञानी यदि यथार्थदृष्टि है तो गोद में बालकको खिलाकर भी संबर और निर्जरा उसके बराबर चलती रहती है। कैसी है उसकी दृष्टि? बच्चे को खिलाता हुआ भी यह ध्यान बना है कि कहाँ इस झंझट में लग गए है, न जाने अभी कितने वर्ष तक इस झंझट में लगना पड़ेगा, ऐसी भीतरमें धारणा हे उस ज्ञानी के। अज्ञानी तो यो देखेंगे कि यह कैसा बच्चों से मोह रखता है। अरे वह बच्चे को खिलाये नही तो क्या गड्ढे में पटक दे करना तो पड़ेगा ही सब कुछ जैसे कि लोग करते हैं,पर उसकी दृष्टि अंतर में इतनी विशुद्ध है कि उन कामोंमें रहकर भी उसके सम्वर और निर्जरा बराबर चलती रहती है। आत्मलाभकी इतनी विकट स्पृहा ज्ञानी पुरुष में ही होती है।</p> | ||
<p | <p><strong>सजग वैराग्य</strong>―जिसको वैराग्य ज्ञानसहित मिल गया है उसका वैराग्य आजीवन ठहराता है। ज्ञान के बिना वैराग्य मुद्रा बनाना, यह तो लोकप्रतिष्ठा, बढ़ावा आदि के लिए है। वैराग्य टिक सकेगा या नही―यह तो ज्ञान और अज्ञान पर निर्भर है। ज्ञान बिना वैराग्य में विडंबनाएँ बढ़ जाती है और वह वैराग्य को नही निभा पाता है और लोग भक्त भी ऊब जाते हैं,यह सब उसके एक अज्ञानका फल है। ज्ञानी पुरुष तो आत्मलाभके लिए स्पृहा रखता है अन्यत्र कही उपयोग जाय तो पछतावा करता है, ओह इतना समय मेरा व्यर्थ गया? ज्ञानी का साहस एक विलक्षण साहस है, और साहस भी क्या है? जो चीज छूट जायगी उसको अभी से छूटा हुआ मान लेना है, और छूटा हुआ मानने के कारण उपेक्षा बन जाय और कभी थोड़ी हानि हो जाय, तो उसका खेद न आए तो इसमें कौनसे साहस की बात है? इतना ही फेर रहा कि जो 10 वर्षके वाद छूटना था उसको अभी से छुटा हुआ देख रहे हैं। इतना ही किया इस ज्ञानीने, और क्या किया, पर मोही पुरुषों की दृष्टि में यह बड़े साहस भरी बात है।</p> | ||
<p | <p><strong>अज्ञानी और ज्ञानीकी दृष्टि में साहसका रूप</strong>―भैया ! साहस तो अनात्मीय चीज को पाने में करना पड़ता है। जो चीज अपनी नही है उसे कल्पना में अपनी बनाना और उसे जोड़ना धरना, रक्षा करना इसमें साहस करना पड़ता है। अपने आपकी वस्तु को अपने आपमें उतारना इसमें कौनसे साहसकी बात है? लेकिन अज्ञानियों को ज्ञानियो की करतूत में बड़ा साहस मालूम होता है। ज्ञानी सोचता है कि ये संसारी सुभट बड़े साहसी है। जिन परिजन, मित्रों और जड़ संपदावों से इन्हें कष्ट मिलता है उनको सहकर उन्ही के प्रति इच्छा, वांछा और यत्न बनाए रहते हैं,इतनी हिम्मत तो हमसे नही हो सकती, ऐसे ही अज्ञानियोंको ज्ञानियों की क्रियावों में बड़ा साहस मालूम होता है। ओह! ये योगी जन कैसा इस समस्त जगत को इंद्रजाल की तरह निरखते हैं,कितनी इन्हें आत्मस्वरूप के प्रति अभिलाषा है।</p> | ||
<p | <p><strong>जालमें विविधरूपता</strong>―जाल में विविधता होती है, और जो जाल नही, एकत्व है उसमें विविधता नही होती है। जैसे मकड़ी जाल बनाया करती हे तो वह जाल एक लाइन से नही बनता है। गोल मटोल, लंबा चौड़ा, संकरा, नाना दशावोंरूप होता है―व्यंजन पर्याय और एक व्यंजन पर्याय में भी भिन्न-भिन्न क्षेत्र में विभिन्न परिणमन पर्याय। यह शरीर एक है, पर पैरमें जो परिणमन है वह सिर में नही है, किंतु जो जाल नही है, एकत्व है वहां यह बात न होगी कि जो एक जगह परिणमन है वह दूसरी जगह नही होता। एकत्व में वही परिणमन सर्वत्र है पर जाल में परिणमनकी एकता नही है, विविधता है, इसी तरह गुण पर्याय का भी जाल देखो―ज्ञान गुण कही पैर पसार रहें है, तो श्रद्धा गुण कही मुख कर रहा है। ये समस्त गुण अपनी-अपनी ढफली बजा रहे हैं,यह इंद्रजाल का दृश्य, किंतु एकत्व परिणमन हो तो वहां यह कुछ भी विविधता नही रहती है। जहां रत्नत्रयका एकत्व है वहां तो यह भी पहिचान नही हो पाती कि यह ज्ञानका परिणमन है और यह श्रद्धा का परिणमन है या चारित्र है, वहां तो एक एकत्व का ही अनुभवन है।</p> | ||
<p | <p><strong>इंद्रजालका अवबोध</strong>―यदि किसी कारणवश इंद्रजाल की और रंच भी निगाह आती है। तो ज्ञानियोको संताप हुआ करता है जब तक आत्मा को अपने असली स्वरूप का परिचय नही है तब तक ये बाह्य पदार्थ भले प्रतीत होते हैं। जब तक कौवा को यक कोयल का बच्चा है यह पता नही रहता है तब तक जान लगाकर उसकी सेवा करता है। परिचय पड़ जाय तो उससे हट जाता है। भले ही इस अज्ञानी जीवको ये विषय अच्छे लगते हैं। पर जब स्वपर भेदविज्ञान करके ज्ञानी बने तो ये विषय इंद्रजालके खेलकी तरह असार मालूम होते हैं। मिस्मरेजम वाले लोगों की टोपी उठाकर जब झाड़ते हैं तो रुपये खनखनाते हुए गिरते नजर आते हैं। यदि रूपये यो खनखनाकर गिराते हैं तो वे सबसे क्यों एक-एक आना मांगते है? वह तो एक इंद्रजाल का खेल है। है कुछ नही।</p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञानियों की उपेक्षा व उद्यम</strong>―ज्ञानी पुरुषों को ये इंद्रियविषय निःसार विनश्वर मालूम होते हैं। अब आत्मस्वरूपको त्यागकर अन्य पदार्थों की और उसकी दृष्टि नही जाती है। वह तो आत्मलाभ ही करना चाहता है। जो ज्ञान में रत पुरुष है वे इन सब इंद्रजालों को यो निरख रहे हैं। यह लक्ष्मी कुछ दिनों तक ही ठहरेगी, यह यौवन कुछ दिनों तक ही रहने वाला है, ये भोग बिजली के समान चंचल है, यह शरीर रोगोंका मंदिर है, ऐसा निरखकर ज्ञानी जीव परपदार्थों से उपेक्षा करते हैं और ज्ञानानंदमय अपने आत्मतत्त्वमें निरत होनेका उद्यम रखते हैं।</p> | ||
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
निशामयति निःशेषमिंद्रजालोपमं जगत्।
स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते।।39।।
जगत् इंद्रजालोपमता―योगी जन इस समस्त जगत को इंद्रजालकी तरह समझकर इसे दूर करते हैं और आत्मा की प्राप्ति के लिए स्पृहा रखते तथा आत्मलाभके सिवाय अन्य किसी भाव में उपयोग कुछ चला जाय तो उसका बड़ा पछतावा करते हैं। इस श्लोक में तीन बातों पर प्रकाश डाला है, प्रथम तो इस समस्त जगत को इंद्रजाल की तरह निरखता है, इंद्रजाल का क्या अर्थ है? लोक में तो ऐसी रूढ़ि है कि जैसे बोई तमाशगीर चीज तो कुछ नही है और लोगो को दिखाये, उसको इंद्रजाल मानते हैं,यह भी अर्थ लगा लो तो भी कुछ हानि नही है क्योंकि जो कुछ दिखता है वह परमार्थ में ऐसा है ही नही, और माही जीवको यही परमार्थ और सत्य नजर आता है, इस कारण यह भी अर्थ ले लो पर इसका वास्तविक अर्थ यह है कि जो कुछ यहां दृश्यमान है यह सब इंद्रका जाल है। इंद्र मायने आत्मा। उस आत्मा की विकार अवस्था होने से जो कुछ परिणमन होता है उससे जो कुछ यह सारा जाल बिछा हुआ है यह इंद्रजाल है। अलंकार न लेना कि यह आमूल इंद्रजाल ही है यह सब कुछ। यह आत्मा का जाल है।
इंद्रका जाल―यह प्रभु जो अनादि अनंत अहेतुक अंतः प्रकाश भाव है, प्रत्येक जीव में विराजमान है। जीवो का जो स्वभाव है वही तो प्रभु है वह प्रभु पर्यायमें जकड़ा है, विकृत होकर जब यह अपना जाल फैलाता है तो इसका जाल भी बड़ा विकट है। यह प्रभु इतना समर्थ है कि सुधार का भी बड़ा विकट चमत्कार दिखाता है और विकार का भी बड़ा विकट चमत्कार दिखाता है। कोई वैज्ञानिक किसी भी प्रकार ऐसा इंद्रजाल बना तो दे। उसमें इतनी सामर्थ्य नही है। भले ही वह अजीव पदार्थों को परस्पर में संबद्ध करके एक निमित्तनैमित्तिक पद्धति में कुछ असर दिखा दे। किंतु इंद्रजाल नही बना सकता है। तो यह योगी सर्वत्र इंद्रजाल देखता हे, इंद्रका स्वरूप नही हे यह, किंतु इंद्रका जाल है, इसी कारण वह किसी भी इंद्रजाल में रमता नही है।
विषयसाधनों की जलबुद्बुदसम असारता―भैया ! इस लोकमें रमण करने योग्य क्या है? जो कुछ है वह सब जलके बुदबुदेकी तरह चंचल है, विनाशीक है, कुछ ही क्षण बाद मिट जाने वाला है। जैसे जलका बबूला देर तक ठहरे तो उस पर बच्चे लोग बड़े खुश होते हैं,और शान के साथ किसी बबूले को अपना मानकर हर्ष के साथ कहते हैं देखो मेरा बबूला अब तक ठहरा है। बरसात के दिन है, जब ऊपर से मकान का पानी गिरता है तो उसमें बबूले पैदा हो जाते हैं,बच्चे लोग उनमें अपनायत कर लेते हैं कि यह मेरा बबूला है, कोई लड़का कहता है कि मेरा बबूला है, अब जिसका बबूला अधिक देर तक टिक जाय वह बच्चा उठता है, मेरा बबूला अब तक बना हुआ है। ऐसे ही यह पर्याय, यह जाल यह शरीर बबूले की तरह है। इन अज्ञानी बच्चों ने अपना-अपना बबूला पकड़ लिया है, यह मेरा बबूला है, यह बबूला कुछ देर तक टिक जाय तो खुश होते हैं,मेरा बबूला अब तक टिका हुआ है। यो यह योगी पुरुष इंद्रजाल की तरह समस्त जगत को जान रहा है। यहां किससे प्रीति करे, कौन सहाय है, किसका शरण गहे, जो कुछ भी है वह सब अपने लिए परिणमता है।
वस्तुमें अभिन्नषट्कारकता―भैया ! यह लोक अपना ही स्वार्थ साधता है, इसमें गाली देने की गुंजाइश नही है, किसी को स्वार्थी आदिका कहने की आवश्यकता नही है, वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि वह स्वयं से संप्रदान हो सकता है। प्रत्येक पदार्थ स्वयं कर्ता है। स्वयं कर्म है, स्वयं करण है और स्वयं ही संप्रदान, अपादान और अधिकरण भी है अर्थात् पदार्थ परिणमता है, यही तो करने वाला हुआ, और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही परिणमनके द्वारा परिणमता है इसलिए यही साधन हुआ और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही परिणमनके द्वारा परिणमता है इसलिए यही साधन हुआ और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही परिणमन के द्वारा परिणमता है इसलिए यही साधन हुआ और परिणाम करके फल क्या पायगा, किस लिए परिणम रहा है, वह फल भी स्वयं है। किससे परिणमता है, किसमें परिणमता है, सो वह अपादान व अधिकरण भी स्वयं है।
पदार्थ के परिणमन का संप्रदान―पदार्थ के परिणमनेका फल क्या है? वह फल है सत्ता रहना। प्रत्येक पदार्थ के परिणमन का प्रायोजन इतना ही मात्र है और फल इतना ही मिलता है कि उसकी सत्ता बनी रहे, इससे आगे उसका कुछ फल नही है। यह समझदार है जीव इसलिए इसने बेईमानी मचा रक्खी है। जो समझदार नही है वे पदार्थ अब भी अपने ईमान पर टिके हुए है, वे परिणमते हैं मात्र अपना सत्व रखने के लिए किंतु ये विकारी, रागी जीव परिणमते ह तो न जाने कितने प्रयोजनों को बताते हैं। मैं संसारमें यश बढ़ा लूँ, संपदा बढ़ा लूँ, अनेक विषय सुखों के साधन छुटा लूँ, कितने ही प्रयोजन बनाते हैं। भले ही ये कल्पना में कितने ही प्रयोजन बनाएँ किंतु एक संत पुरुष की ओर से तो प्रयोजन वही का वही रहता है जो अचेतन को मिलता है, इससे अधिक कुछ नही है। यह जीवज्ञानरूप परिणमता है तो ज्ञानरूप परिणमनेका फल ज्ञान ही रहता है, इससे अतिरिक्त कुछ फल नही है। जो और कुछ फल खोजा जाता है वह सब मोहका माहात्म्य है। वस्तुतः अपनी सत्ता कायम रखने के लिए ही पदार्थ परिणमन करते हैं। जैसे यह चौकी है, इसको कोई जला दे तो क्या हो गया इसका? इसका ही यो परिणमना हो गया। न भी कुछ करे तो भी यह जीर्ण होती जा रही है, परिणमती जा रही है। किसी भी रूप परिणमें, इन परिणमनों का प्रयोजन इतना ही मात्र है कि परमाणुवोंकी सता बनी रहे, अब कोई भी चीज किसी भी प्रकार परिणमें उसका प्रयोजन यह मोही जीव अपनी कल्पना के अनुसार बना लेता है।
योगीकी आत्मस्पृहा―यह समस्त जगत इंद्रजाल की तरह है। इन सबको यह योगी शांत कर देता है। इस सारे जगत् को यह योगी ओझल कर देता है अपने उपयोग से और होता क्या है कि अंधकार में सर्व पदार्थ ओझल हो जाते हे। रहो, किसी प्रकार रहो। अब योगी के लिए यहाँ कुछ भी नही है, यो इंद्रजाल की तरह इन समस्त पदार्थों को यह ज्ञानी अपने उपयोग से ओझल कर देता है। अब ज्ञानी के केवल आत्मा की ही स्पृहा रहती है और यह अंतस्तत्व ही उसके प्रोग्राममें, लिस्टमें रह जाता है। ये योगी केवल आत्मलाभ की स्पृहा करते हैं। मेरा आत्मा मेरे को मिले, ये भिन्न असार पदार्थ, इनका मिलना जुलना सब खतरेसे भरा हुआ है कोइ रुच गया राग तो क्या वह कुछ बढ़वारीके लिए है? कोई अनिष्ट जंचा, द्वेष किया वह भी बरबादी के लिए है। मेरा शरण, रक्षक यह मेरा आत्मा मेरे को प्रकट हो, और मुझे कुछ न चाहिए।
आत्मलाभकी आकांक्षा―जैसे कोई जबरदस्त मुसाफिर किसी कमजोर मुसाफिरको दबाकर उसकी हानि कर दे और उसका झगड़ा बढ़ जाय तो वह कमजोर मुसाफिर यही कहता है कि बस मेरी चीज दिला दो, मुझे और कुछ न चाहिए। वह अपनी मांग करता है, यो ही यह बना बनाया गरीब एक बडे़ फंद और विडंबना में पड़ गया है। कहाँ तो यह अमूर्त निर्लेप ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व उत्कृष्ट पदार्थ है और कहाँ यह सुख दुःख पर्याय, कल्पना, शरीर इनमें बँधा फिर रहा है और अपने राग की जिस विषय में ममता की है उस विषय के पीछे-पीछे भटकता फिरता है। जैसे बछड़े वाली गायको हांकना नही पड़ता है यदि उसके बछड़े को कोई गोद में लेकर चलता जाय आगे, वह गाय उस बछड़े के पीछे-पीछे हींडती भागती चली जायगी। अपनी विपदाको भी वह न देखेंगी, ऐसे ही यह मूढ़ात्मा अपने राग का जो विषय बनाता है उस विष के पीछे यह आत्मा दौड़ता भागता फिरता है। न अपनी विपदा को देखता है, न अपनी बरबादी का ख्याल है। ऐसा यह मोही जीव संसार-भ्रमण में गोते लगा रहा है, किंतु यह ज्ञानी पुरुष एक आत्मलाभकी ही स्पृहा करता है।
मेरा और मैं का निर्देश―मुझे तो मेरा मैं चाहिए अन्य कुछ न चाहिए, इस ही का नाम है योग धारण। योग मायने जोड़। मेरा मैं बिछुड़ा हुआ हूं, इसका जोड़ कर दीजिए। मेरे को मैं मिल जाय यही है योग। जिसको मेरा कहा जा रहा है वह तो है उपायोंके रूप में ओर जिसे मैं कहा जा रहा है यह है परम पारिणामिक भावमय अंतस्तत्त्वके रूपमें। यह उपयोग कह रहा है कि मेरा मैं मिल जाय। मेरा जो आधारभूत है जिस पर मेरी स्पृहा चलती है, जिस पर मैं अपना चमत्कार दिखा पाता हूं, अपना जौहर दिखाया करता हूं ऐसा मेरा नाथ शरण मुझे मिल जाय यही मेरा नाथ है। न अथ। अथ मायने आदि। जिसकी आदि नही है उसे नाथ कहते हैं। यह उपयोग यह परिणमन तो सादि है। जिसकी कुछ आदि हो उसकी क्या वखत करूँ। जिसकी आदि नही है उसकी वखत है। नई फर्म खुली होकिसी के नाम पर तो उसका कुछ असर नही होता और पुरानी फर्म हो तो लोग बदलते नही है। उसे चाहे पोते और संतेमें भी बाँट हो। लोग सोचते हैं कि पुरानी फर्मका नाम न बदले, नही तो फिर ठिकाने की संभावना नही है। जिसका आदि नही है ऐसा मेरा नाथ वही विश्वास के योग्य है। जिसकी आदि है वह मिट जायगा। ऐसे परिणमनों पर इस ज्ञानी का उपयोग नही थमता है। यह तो एक अंतस्तत्वके लाभ के लिए स्पृहा करता है।
ज्ञानी का परोपयोगमें अनुताप―यह अज्ञानी योगी अपने आत्म मिलनके लिए उद्यत है फिर भी पूर्व वासना वश उससे डिग जाय और किन्ही बाह्य अर्थों मे लग जाय तो उसे ऐसा पछतावा होता है कि इतने क्षण हमने व्यर्थ में विकल्पों मेंलगाये। ज्ञानी जन कभी उपवास करते हैं तो उस उपवास का उनके लक्ष्य क्या है? उस आहार के प्रसंग में जो पौन घंटे का समय लग जाता है उस समय में जो आत्मतत्त्वसे चिगनेका विकल्प बनता है उसका वे पछतावा करते हैं निराहार रहने में वे खुश है, पर आत्मतत्त्व के उपयोग से चिगनेमें वे खुश नही है, इसलिए उनका आहार छूट जाता है, वे निराहारी हो जाते हैं।
अज्ञानसे व्यवहारधर्ममें भी कर्तृत्व बुद्धि―इस आहारत्यागमें धर्म लग जायगा, पुण्य बंध जायगा, मुझे उपवास करना चाहिए ऐसा सोचना विकल्पमूलक उपवास है। एक झंझट से बचे और अपने आत्मलाभमें लगे ऐसी दृष्टि ज्ञानी पुरुष के होती है अज्ञानी तो उपवास में क्षोभ बढ़ाता है, एक दिन पहिले क्षोभ किया, जब उपवास किया तब क्षोभ, अंत में क्षोभ किया। किसीने कई उपवास किया तो शरीर के कमजोर होते हुए भी यह कहता है कि भाई हमें तो कुछ भी नही कठिनाई मालूम पड़ रही है? हम तो बड़े अच्छे है ऐसे मायाचार को बढ़ावे, तृष्णा को बढ़ावे क्रोध को बढ़ावे घमंड को बढ़ावे इसी सभी चीजें बढ़ाने का ही वास्तवमें उसने कार्य किया, कुछ अपने हितका कार्य नही किया।
ज्ञानी अंतर्दृष्टि―ज्ञानी पुरुष की दृष्टि को ज्ञानी ही कूत सकता है, अज्ञानी नही कूत सकता है। गृहस्थ ज्ञानी यदि यथार्थदृष्टि है तो गोद में बालकको खिलाकर भी संबर और निर्जरा उसके बराबर चलती रहती है। कैसी है उसकी दृष्टि? बच्चे को खिलाता हुआ भी यह ध्यान बना है कि कहाँ इस झंझट में लग गए है, न जाने अभी कितने वर्ष तक इस झंझट में लगना पड़ेगा, ऐसी भीतरमें धारणा हे उस ज्ञानी के। अज्ञानी तो यो देखेंगे कि यह कैसा बच्चों से मोह रखता है। अरे वह बच्चे को खिलाये नही तो क्या गड्ढे में पटक दे करना तो पड़ेगा ही सब कुछ जैसे कि लोग करते हैं,पर उसकी दृष्टि अंतर में इतनी विशुद्ध है कि उन कामोंमें रहकर भी उसके सम्वर और निर्जरा बराबर चलती रहती है। आत्मलाभकी इतनी विकट स्पृहा ज्ञानी पुरुष में ही होती है।
सजग वैराग्य―जिसको वैराग्य ज्ञानसहित मिल गया है उसका वैराग्य आजीवन ठहराता है। ज्ञान के बिना वैराग्य मुद्रा बनाना, यह तो लोकप्रतिष्ठा, बढ़ावा आदि के लिए है। वैराग्य टिक सकेगा या नही―यह तो ज्ञान और अज्ञान पर निर्भर है। ज्ञान बिना वैराग्य में विडंबनाएँ बढ़ जाती है और वह वैराग्य को नही निभा पाता है और लोग भक्त भी ऊब जाते हैं,यह सब उसके एक अज्ञानका फल है। ज्ञानी पुरुष तो आत्मलाभके लिए स्पृहा रखता है अन्यत्र कही उपयोग जाय तो पछतावा करता है, ओह इतना समय मेरा व्यर्थ गया? ज्ञानी का साहस एक विलक्षण साहस है, और साहस भी क्या है? जो चीज छूट जायगी उसको अभी से छूटा हुआ मान लेना है, और छूटा हुआ मानने के कारण उपेक्षा बन जाय और कभी थोड़ी हानि हो जाय, तो उसका खेद न आए तो इसमें कौनसे साहस की बात है? इतना ही फेर रहा कि जो 10 वर्षके वाद छूटना था उसको अभी से छुटा हुआ देख रहे हैं। इतना ही किया इस ज्ञानीने, और क्या किया, पर मोही पुरुषों की दृष्टि में यह बड़े साहस भरी बात है।
अज्ञानी और ज्ञानीकी दृष्टि में साहसका रूप―भैया ! साहस तो अनात्मीय चीज को पाने में करना पड़ता है। जो चीज अपनी नही है उसे कल्पना में अपनी बनाना और उसे जोड़ना धरना, रक्षा करना इसमें साहस करना पड़ता है। अपने आपकी वस्तु को अपने आपमें उतारना इसमें कौनसे साहसकी बात है? लेकिन अज्ञानियों को ज्ञानियो की करतूत में बड़ा साहस मालूम होता है। ज्ञानी सोचता है कि ये संसारी सुभट बड़े साहसी है। जिन परिजन, मित्रों और जड़ संपदावों से इन्हें कष्ट मिलता है उनको सहकर उन्ही के प्रति इच्छा, वांछा और यत्न बनाए रहते हैं,इतनी हिम्मत तो हमसे नही हो सकती, ऐसे ही अज्ञानियोंको ज्ञानियों की क्रियावों में बड़ा साहस मालूम होता है। ओह! ये योगी जन कैसा इस समस्त जगत को इंद्रजाल की तरह निरखते हैं,कितनी इन्हें आत्मस्वरूप के प्रति अभिलाषा है।
जालमें विविधरूपता―जाल में विविधता होती है, और जो जाल नही, एकत्व है उसमें विविधता नही होती है। जैसे मकड़ी जाल बनाया करती हे तो वह जाल एक लाइन से नही बनता है। गोल मटोल, लंबा चौड़ा, संकरा, नाना दशावोंरूप होता है―व्यंजन पर्याय और एक व्यंजन पर्याय में भी भिन्न-भिन्न क्षेत्र में विभिन्न परिणमन पर्याय। यह शरीर एक है, पर पैरमें जो परिणमन है वह सिर में नही है, किंतु जो जाल नही है, एकत्व है वहां यह बात न होगी कि जो एक जगह परिणमन है वह दूसरी जगह नही होता। एकत्व में वही परिणमन सर्वत्र है पर जाल में परिणमनकी एकता नही है, विविधता है, इसी तरह गुण पर्याय का भी जाल देखो―ज्ञान गुण कही पैर पसार रहें है, तो श्रद्धा गुण कही मुख कर रहा है। ये समस्त गुण अपनी-अपनी ढफली बजा रहे हैं,यह इंद्रजाल का दृश्य, किंतु एकत्व परिणमन हो तो वहां यह कुछ भी विविधता नही रहती है। जहां रत्नत्रयका एकत्व है वहां तो यह भी पहिचान नही हो पाती कि यह ज्ञानका परिणमन है और यह श्रद्धा का परिणमन है या चारित्र है, वहां तो एक एकत्व का ही अनुभवन है।
इंद्रजालका अवबोध―यदि किसी कारणवश इंद्रजाल की और रंच भी निगाह आती है। तो ज्ञानियोको संताप हुआ करता है जब तक आत्मा को अपने असली स्वरूप का परिचय नही है तब तक ये बाह्य पदार्थ भले प्रतीत होते हैं। जब तक कौवा को यक कोयल का बच्चा है यह पता नही रहता है तब तक जान लगाकर उसकी सेवा करता है। परिचय पड़ जाय तो उससे हट जाता है। भले ही इस अज्ञानी जीवको ये विषय अच्छे लगते हैं। पर जब स्वपर भेदविज्ञान करके ज्ञानी बने तो ये विषय इंद्रजालके खेलकी तरह असार मालूम होते हैं। मिस्मरेजम वाले लोगों की टोपी उठाकर जब झाड़ते हैं तो रुपये खनखनाते हुए गिरते नजर आते हैं। यदि रूपये यो खनखनाकर गिराते हैं तो वे सबसे क्यों एक-एक आना मांगते है? वह तो एक इंद्रजाल का खेल है। है कुछ नही।
ज्ञानियों की उपेक्षा व उद्यम―ज्ञानी पुरुषों को ये इंद्रियविषय निःसार विनश्वर मालूम होते हैं। अब आत्मस्वरूपको त्यागकर अन्य पदार्थों की और उसकी दृष्टि नही जाती है। वह तो आत्मलाभ ही करना चाहता है। जो ज्ञान में रत पुरुष है वे इन सब इंद्रजालों को यो निरख रहे हैं। यह लक्ष्मी कुछ दिनों तक ही ठहरेगी, यह यौवन कुछ दिनों तक ही रहने वाला है, ये भोग बिजली के समान चंचल है, यह शरीर रोगोंका मंदिर है, ऐसा निरखकर ज्ञानी जीव परपदार्थों से उपेक्षा करते हैं और ज्ञानानंदमय अपने आत्मतत्त्वमें निरत होनेका उद्यम रखते हैं।