इष्टोपदेश - श्लोक 40: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>इच्छत्येकांतसंवासं निर्जनं जनितादरः।</strong></p> | ||
< | <p><strong>निजकार्यवशात्किंचिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतम्।।40।।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञानीकी एकांतसंवास मेंवांछा</strong>―जब इस आत्माको अपने झुकाव से और परकी उपेक्षा के साधन से शुद्ध ज्ञानप्रकाशका अनुभवन हो जाता है उस समय में जो अद्भुत आनंद प्रकट होता है उस आनंद के फल में उस आनंद के लिए यह योगी बडे़ आदर के साथ एकांत में रहना चाहता है, इच्छा करता है और अपने प्रयोजनवश, धर्मसाधनाके प्रयोजन से कदाचित् कुछ कहना पड़े तो कह कर शीघ्र ही भूल जाता है। यह स्वानुभव प्राप्त योगियों की कहानी बतायी जा रही है। धर्ममय यह आत्मा स्वयं है। जो कुछ यह मैं हूं उसकी ही बात कही जा रही है।</p> | ||
<p | <p><strong>धर्मका आधार</strong>―भैया ! धर्म मिलेगा तो स्वयं में ही मिलेगा। बाह्य में जो भी आदर्श है, पूज्य है वे इस आत्मानुभवके मार्ग के निर्देशक है, इस कारण उनकी भक्ति से एक शुद्ध आनंद मिलता है और अपने आपमें जो स्थिति उत्पन्न करना चाहते हैं,यह योग जिन्हें प्रकट हुआ है उनमें अपूर्व बहुमान, स्तवन, उपासना का अपूर्व भाव होता है। जिसे जो आनंद मिल गया है वह जैसे मिलता है उस ही उपाय में लगता है। जहाँ आनंद नही है ऐसे साधनों से हटता है। सब ज्ञानका माहात्म्य है। जब तक इस जीवको अपने आत्मा का और परपदार्थों के यथार्थ स्वरूप का बोध नही होता है तब तक यह अपनी ओर आये कैसे और परसे हटे कैसे?</p> | ||
<p | <p><strong>वस्तुस्वरूपके प्रतिपादनकी विशेषता</strong>―जैन शासन में सबसे बड़ी विशेषता एक वस्तुस्वरूपके प्रतिपादन की है। जीवको मोहही दुःख उत्पन्न करता हे। वह मोह कैसे मिटे, इसका उपाय वस्तुस्वरूपका यथार्थ परिज्ञान कर लेना है। जगत में अनंतानंतें तो आत्मा है, अनंतानंत पुद्गल परमाणु है―एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य एक आकाशद्रव्य और असंख्यात काल द्रव्य हे। इनका जो परिणमन है वह कही सूक्ष्म परिणमन है और कही स्थूल परिणमन है पर इन परिणमनों में सर्वत्र एक रूप रहने वाले जो मूल पदार्थ है, जो अनेक दशावों में पहुंच कर भी एक स्वभावरूप रहें वही समस्त परिणमनों का मूल कारण है। जैसे कि जो चिदात्मक गुणपर्यायें है उन सृष्टियों का कारण यह चित्स्वरूप है और जितने जो कुछ ये दृश्यमान है इन दृश्यमान समस्त पदार्थों का मूल कारण अणु है। उस परमाणु में भी परमाणु अकेला रह जाय तब भी परिणमन चलता है। उस परिणमनसे परिणत अणु को कार्य अणु कहते हैं और यह वह परिणमन जिस आधार में होता है उसे कारण अणु कहते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong>मूल पदार्थका मोहियों को अपरिचय</strong>―इन जीवों ने इन द्रश्यमान पदार्थों का मूल कारण नही जान पाया और न यह समझ पाया कि ये प्रत्येक पदार्थ अपने में ही अपने को अपने लिए अपने द्वारा रचतेरहते हैं।किसी के विभाव परिणमनमें अन्य द्रव्य निमित्त होते हैं,किंतु कोई भी निमित्तभूत परपदार्थ उपादान में किसी परिणति को उत्पन्न नही करते हैं। ऐसी वस्तुस्वरूपकी स्वतंत्रता एक सूत्रमें ही कह दी गई है―उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्। जो भी है वह निरंतर नवीन पर्याय से परिणमता है, पुरातन पर्याय को विलीन करता है और वह स्वयं कारण रूप में ध्रौव्य बना रहता है। यो जब आत्मा के स्वरूप का भान होता है तो यह निर्णय होता है कि किसी भी पदार्थ का कोई पदार्थ कुछ नही लगता है। सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वतंत्र स्वरूप को लिए हुए है, ऐसा भान होने पर जो परपदार्थ से सहज उपेक्षा होती है और उस उपेक्षा से जो अपने आपके स्वभाव में झुकाव दृढ़ हुआ और एकत्व की दृष्टि बनी उसमें जो आनंद प्रकट होता है। वह अलौकिक आनंद है। उसका अनुभव कर चुकने वाले योगी को अब किसी भी समागम में रहने की चाह नही रहती है, वह तो एकांत वास का अनुरागी है।</p> | ||
<p | <p><strong>अज्ञानावस्था की वांछायें</strong>―अज्ञान अवस्था में यश और कीर्ति की चाह हुआ करती है कि मेरा लोक में बड़प्पन रहे, इस अज्ञानी को यह विदित नही है कि जिन लोगो में मैं बड़ा कहलाना चाहता हूँ वे लोग स्वयं दुःखी है, अशरण है, मायास्वरूप है- यह भान नही रहा, इसी कारण इन मायामयी पुरुषों में ये मायामयी पुरुष यश के लिए होड़ लगा रहे हैं। दुःख ओर किस बात का है धन मे लोग बढ़ना चाहते हैं वह भी यश के लिए । यश की चाह अंतर में पड़ी है तो नियम से जानना चाहिए कि उसके अज्ञानभाव है। जो कारण समयसार है, जो निज मूल शुद्ध चिदात्मक तत्त्व है उसका परिचय नही हुआ है इस कारण दर-दर पर इसे परपदार्थों से भीख मांगनी पड़ती है।</p> | ||
<p | <p><strong>योगीश्वरों का आदर्श</strong>―यह ज्ञानी पुरुष निर्जन स्थानों में एकांत का संवास चाहता है। उसे प्रयोजन नही रहा किसी समागम मे रमने का और आदरपूर्वक एकांत चाहता है। ऐसा नही है कि संन्यासी हो गया है इस कारण अलग रहना ही पडे़गा। घर बसाकर तो न रहा जायगा ऐसी व्यवस्था नही है किंतु आस्थापूर्वक वह एकांत स्थान चाहता है। यह उन्नति के पद में पहुंचने वाले योगियों की कथा है। उन्होने निकट पूर्व काल में जो मार्ग अपनाया था, ज्ञान किया था वह ज्ञान हम आप सब श्रावकजनों के करने योग्य है, जिस मार्ग से चलकर योगी संत महान् आत्मा हुए है, वे चलकर बताते हैं,कि इस रास्ते से हम यहां आ पाये हैं,इसी उत्कृष्ट पथ से चलकर तुम अपने आपके उत्कृष्ट पद को पा लो।</p> | ||
<p | <p><strong>अज्ञान और उद्दंडता</strong>―बेवकूफी और धूर्तता―इन दो ने जगत के जीवो को परेशान कर दिया है। बेवकूफी तो यह है कि पदार्थ का यथार्थ स्वरूप न विदित हुआ और एक का दूसरे पर अधिकार संबंध दिखने लगा। यह तो है इसका अज्ञान और इतने पर भी अपने को महानमान लेना। कोई छोटी बिरादरी का हो तो वह भी अपने को छोटा स्वीकार नही कर सकता है, कोई निर्धन हो वह भी अपनी दृष्टि में अपने को हल्का नही मान सकता है। एक तो अज्ञान रहा और अज्ञान होने पर भी अपने में बड़प्पन की बुद्धि रहे, जिससे अभिमान बने और भी प्रतिक्रियायें करने का यत्न होना यह है इस मोही जीव की धूर्तता । अज्ञान ही होता, सरल रहता तोभी अधिक बिगाड़ न था, किंतु अज्ञान होने पर भी अपने आप में बड़प्पन स्वीकार करना यह और कठिन चोट है, इससे परेशान होकर यह जीव चौरासी लाख योनियों में भटक रहा है।</p> | ||
<p | <p><strong>जीव का सर्वत्र एकाकीपना</strong>―यह जीव अकेला ही जन्ममरण करता है, सुख दुःख भोगता है, रोग शोक आदि वेदनाएँ पाता है, स्त्री पुत्रादि को लक्ष्य में लेकर यह अपने रागद्वेष और मोह का विस्तार बनाया करता है, यहां कोई भी इस जीव का साथी नही है। वे सब केवल व्यवहार में स्वार्थ बुद्धि से रंगे हुए इस जन्म में ही साथी हो सकते हैं। कोई भी कभी मेरी विपदा में रंच साथ नही दे सकता है। ऐसी समझ द्वेष के लिए नही करना कि ये कोई साथी नही है, क्यों द्वेष करना? क्या तुम हो किसी के साथी? जब तुम किसी के साथी नही हो तो कोई दूसरा तुम्हारा साथी कैसे हो सकता है? यह तो वस्तुस्वरूप ही है। यह द्वेष के लिए समझ नही बनाना, किंतु उपेक्षा परिणाम करने के लिए ध्यान बनाना है।</p> | ||
<p | <p><strong>व्यामोहवृत्ति</strong>―यह मोही आत्मा अपनी भूल से ही इन परजीवों को अपनी रक्षा का कारण समझता है। ये मेरी रक्षा करेंगे। कहो समय आने पर जिसका विश्वास है वही विपदा का कारण बन जाए। लेकिन मोह में जो दिमाग मे आया, क्योंकि शुद्ध मार्ग का तो परिचय नही है सो अपनी कुमति के अनुसार दूसरों का रक्षक मानता है और उन्हें त्यागने में भय मानता है मैं इस रक्षक का त्याग कर दूँ तो कही मेरा गुजारा न खत्म हो जाय ऐसा भय मानता हे और कभी वियोग हो जाय, होता ही है, जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग नियम से होता है। तब यह अज्ञानी बड़ा क्लेश मानता है।</p> | ||
<p | <p><strong>अज्ञान की कष्टरूपता</strong>―जो संयोग में हर्ष मानते हैं उनको वियोग में कष्ट मानना ही पड़ेगा। जो संयोग के समय भी वियोग की बात का ख्याल रखते हैं कि जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग अवश्य होगा, तो उनके संयोग के समय भी आकुलता नही रहती और वियोग के समय भी आकुलता नही रहती। यह मोही जीव जब अपने अभीष्ट का वियोग देखता है तो यह व्याकुल होने लगता है। अज्ञान दशा में कही जाय तो इसे कष्ट है, क्रोध में रहे तो भी अज्ञान से कष्ट है। गृहस्थी त्यागकर साधु संन्यासी का भी भेष रख ले तो वहां भी कष्ट है कष्ट किसी परिस्थिति से नही होता है किंतु अपने अज्ञान भाव के कारण कष्ट होता है, और शुद्ध ज्ञान होने पर कष्ट मिट जाता है, यह अपने में विवेक जागृत करता है। विवेक क्या है? विवेचन करने का नाम विवेक है, अलग कर लेने का नाम विवेक है। विवेक शब्द का अर्थ ही अलग कर लेना है। अपने आपको समस्त परपदार्थों से विविक्त देखना, अपने एकत्वस्वरूप को आँकना यही वास्तविक विवेक है।</p> | ||
<p | <p><strong>विवेक वृत्ति</strong>―जब यह जीव विवेक उत्पन्न करता है, मैं अकेला ही हूं, मेरा कोई दूसरा साथी नही है, मैं मेरे द्रव्यत्व और अगुरूलघुत्व स्वरूप के कारण अपने आप में ही निरंतर परिणमा करता हूं। जो भी परिणति मुझमें होती है, सुख हो अथवा दुःख हो, इन सबका मैं अकेला ही कर्ता और भोक्ता हूं। दूसरे जन मेरी ही भांति अपना मतलब चाहते हैं इन समागमों में रहना कष्टदायी मालूम होने लगता है। अपने आत्मस्वरूप से चिगकर किसी बाह्य की और विकल्प करना पडे़ इसे यह कष्ट मानता है। क्यों विकल्प किया जा रहा है? कुछ हित की सिद्धि है क्या इसमें? वे सब विकल्प मेरे प्राणघात के लिए है अर्थात् शुद्ध जो चिदानंदस्वरूप है उसका आवरण करने के लिए है। उन विकल्पों से यह दूर रहना चाहता है।</p> | ||
<p | <p><strong>अंतस्तत्त्व के रुचिया का अंत आश्रय</strong>―विकल्पों से निवृत्ति के अर्थ ही वह निर्जन स्थान में रहने की अभिलाषा करता है, क्योंकि साधन सामने रहे तो वे विकल्पो के निमित्त बन सकते हैं इसलिए उन समागमों को ही छोड़कर किसी निर्जन स्थान में यह रहने की चेष्टा करने लगता है, करता है, परंतु सदा एकांत मे रह जाना बड़ा कठिन है। क्षुधा, तृषा की वेदना का कारणभूत शरीर साथ लगा है उसकी वेदना को शांत करने के लिए कुछ समागम होना ही पड़ता है। ये योगी क्षुधा की शांति के लिए नगर में भिक्षावृत्ति करते हैं,अथवा कभी किसी से वचनालाप का प्रसंग होता है तो अवसर पर बोल देते हैं। बोलने के बाद फिर उन सबका यह विस्मरण कर देता है। क्या-क्या चीजें स्मरण में रक्खे, किन्ही परपदार्थों को अपने उपयोग में बसाये रहने का क्या प्रयोजन है? कौन सा कर्ज चुकाना है, कौन सी आफत हे जिससे वह बाह्य पदार्थों को अपने उपयोग में रक्खे, नही रखना चाहता है।</p> | ||
<p | <p><strong>वृत्ति की प्रयोजनानुसारिता</strong>―लाख बात की बात तो याद रहती है और सब प्रयोजनों की बात याद नही रहती है। जैसे गृहस्थजनों को, व्यापारियों को गृहस्थी और व्यापार की बात बहुत याद रहती है, कैसा थान है, कहां धरा है, कैसा रंग है, कैसी क्वालिटी का है, सारा नक्शा अब भी खिंच सकता है, सब चीजों को भाव ताव याद रहता है। देखने की भी जरूरत नही है, शक्ल देखकर बता देते कि यह इस भाव का है। तो उस बाह्यरुचिक गृहस्थों को व्यापारियों को ये सब बातें तो याद रहती है पर धर्म की बातें या ज्ञान सीखते हैं तो याद नही रहती है, ठीक है, अंत में यह ज्ञान ही प्रयोजन हो जायगा। अभी तो गृहस्थी के जंजाल का प्रयोजन है, उसकी सुध बहुत रहती है, धर्म और ज्ञान की सुध नही रहती है। जब विवेक जगेगा, जब यह उपयोग कुछ मोड़ खायगा, तब इस जीव को ज्ञान की सुध बनेगी, अन्य सब बातें भूल जायेगी।</p> | ||
<p | <p><strong>अप्रायोजनिक विषय का विस्मरण</strong>―खाने के लाल सावंतों को कितना याद रहता है कि कल क्या खाना है? जो कल खाना है उसका साधन अभी से ही जुटाते हैं,ज्ञानीसंत पुरुष भोजन करते हैं,पर उन्हें भोजन की कुछ याद नही रहती है। भोजन के समय तो चूँकि उनके पास विवेक है सो उसकी बात समझने के लिए याद रखना पड़ता है, पर प्रयोजन एक ज्ञान का साधुओं का ही है, इस वजह से भोजन करते हुए में भी भोजन के स्वाद में वे मौज नही मानते हैं क्योंकि उनका उपयोग ज्ञान की और लगा हुआ है। भोजन करते जा रहे हैं पर वे उसके ज्ञाता द्रष्टा रहते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong>लोकदृष्टि की प्राकृतिकता</strong>―जो मन लगाकर खाये उसको भक्ति पूर्वक खिलाने का भाव नही होता है, जो मन न लगाकर खाये उसको सभक्ति खिलाने को भाव होता है। यह सब विशेषता है । जो मन लगाकर नही खाते हैं उनको ही साधु कहते हैं। उनको आहार दान देने में उत्सुकता गृहस्थ जनों को रहती है, यदि कोई मौज मानकर खाये तो गृहस्थ का परिणाम खिलाने में बढ़ नही सकता है, मन हट जायगा, यह प्राकृतिक बात है। जैसे गृहस्थजन भी भोजन के लिए मना करते जाएँ तो खिलाने वाले मनाकर खिलाते हैं,और लाओ-लाओ कहें तो परोसने वाले के उमंग नही रहती है। ऐसे ही जो जगत से उपेक्षा करके अपने स्वरूप की और मोड़ करते हैं उनकी सेवा में जगत दौड़ता है और जो जगत की और मुख किए हुए है उनकी और से यह जगत मुड़ता है।</p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञानी का तात्त्विक उद्यम</strong>―यहाँ यह कहा जा रहा है कि यह योगी ज्ञानी पुरुष चूँकि एक अलौकिक आनंद का अनुभव ले चुका है। अपने आपके स्वरूप में, इस कारण उसकी प्राप्ति के लिए ही इसका उद्यम होता है और यह निर्जन स्थान में पहुंचना चाहता है। इस आत्मध्यान के प्रताप से मोह दूर हो जाता है, और जहाँ सबको मन में बसाये रहें तो यह मोह कष्ट देता रहता है, छुट्टी नही देता है। विविक्त निःशंक शुद्ध ज्ञानप्रकाश जो है वह सर्व संकटो से मुक्त है, उसके ध्यान से ये मोह राग द्वेष बिल्कुल ध्वस्त हो जाते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong>आत्मनिधि के रक्षण का पुरुषार्थ</strong>―भैया! सब कुछ न्यौछावर करके भी ज्ञानानुभव का आनंद आ जाय तो उसने सब कुछ पाया है। सब कुछ जोड़कर भी एक ज्ञानस्वरूप का परिचय नही हो पाया तो उसने कुछ नही पाया है। लाखों और करोड़ों की संपत्ति भी जोड़ ले तो भी एक साथ सब कुछ छोड़कर जाना ही पड़ता है, और ज्ञानसंस्कार, ज्ञानदृष्टि शुद्ध आनंद की प्राप्ति कर लेना ये सब शरीर छोड़ने पर भी साथ जाते हैं। जो ज्ञान और आनंद की निधि है वह कभी छूटती नही है। जो आत्म की निधि नही है वह कभी आत्मा के साथ रहती नही है। गुरू परंपरा में बतायी हुई पद्धति के अनुसार जो आत्मस्वरूप का अभ्यास करता है वह योगी ध्यान के जो भी साधन और स्वरूप है उनका साक्षात्कार करता है अर्थात् जिस समय आत्मस्वरूप के चिंतन में यह योगी लीन हो जाता है उस समय उसे संसार का कोई भी पदार्थ, अपने प्रयोजन का कोई भी तत्त्व समझिये इसे अदृश्य हो जाता है।</p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञानस्वरूप के आश्रय का प्रसाद</strong>―जो अपने ज्ञान को बाह्य पदार्थों की ओर जानने के लिए लगाए उसके ज्ञान का विकास नही होता है और जो बाह्य पदार्थों से हटकर केवल अपने केंद्र को ही जानने का यत्न करे तो स्वयं ही ज्ञान का एक ऐसा विकास होता है कि यह लोकालोक समस्त एक साथ स्पष्ट विज्ञान होने लगता है। आनंद में बाधा देने वाली दो बातें है―एक तो ज्ञान न होना, दूसरी इच्छा बनाना। जब किसी वस्तु का ज्ञान नही है और इच्छा बनी हुई है तो आकुलता होती है। किसी वस्तु का ज्ञान नही है तो न रहने दो, तुम उसके ज्ञान की इच्छा और मत करो, फिर आकुलता कुछ नही है। इच्छा न हो ऐसी स्थिति तब बनती है जब कि ज्ञान स्पष्ट हो, इस कारण पदार्थ के स्वरूप का परिज्ञान करके केवल ज्ञाताद्रष्टा रहने का अभ्यास करे और इच्छा न करे तो वह परमात्म स्थिति इसके निकट ही है। स्वयं ही तो परमात्मस्वरूप है, इसकी और आये तो क्लेश दूर हो। इस प्रकार यह योगी परमार्थ एकांत निज आत्मतत्त्व की ही चाह करता है।</p> | ||
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
इच्छत्येकांतसंवासं निर्जनं जनितादरः।
निजकार्यवशात्किंचिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतम्।।40।।
ज्ञानीकी एकांतसंवास मेंवांछा―जब इस आत्माको अपने झुकाव से और परकी उपेक्षा के साधन से शुद्ध ज्ञानप्रकाशका अनुभवन हो जाता है उस समय में जो अद्भुत आनंद प्रकट होता है उस आनंद के फल में उस आनंद के लिए यह योगी बडे़ आदर के साथ एकांत में रहना चाहता है, इच्छा करता है और अपने प्रयोजनवश, धर्मसाधनाके प्रयोजन से कदाचित् कुछ कहना पड़े तो कह कर शीघ्र ही भूल जाता है। यह स्वानुभव प्राप्त योगियों की कहानी बतायी जा रही है। धर्ममय यह आत्मा स्वयं है। जो कुछ यह मैं हूं उसकी ही बात कही जा रही है।
धर्मका आधार―भैया ! धर्म मिलेगा तो स्वयं में ही मिलेगा। बाह्य में जो भी आदर्श है, पूज्य है वे इस आत्मानुभवके मार्ग के निर्देशक है, इस कारण उनकी भक्ति से एक शुद्ध आनंद मिलता है और अपने आपमें जो स्थिति उत्पन्न करना चाहते हैं,यह योग जिन्हें प्रकट हुआ है उनमें अपूर्व बहुमान, स्तवन, उपासना का अपूर्व भाव होता है। जिसे जो आनंद मिल गया है वह जैसे मिलता है उस ही उपाय में लगता है। जहाँ आनंद नही है ऐसे साधनों से हटता है। सब ज्ञानका माहात्म्य है। जब तक इस जीवको अपने आत्मा का और परपदार्थों के यथार्थ स्वरूप का बोध नही होता है तब तक यह अपनी ओर आये कैसे और परसे हटे कैसे?
वस्तुस्वरूपके प्रतिपादनकी विशेषता―जैन शासन में सबसे बड़ी विशेषता एक वस्तुस्वरूपके प्रतिपादन की है। जीवको मोहही दुःख उत्पन्न करता हे। वह मोह कैसे मिटे, इसका उपाय वस्तुस्वरूपका यथार्थ परिज्ञान कर लेना है। जगत में अनंतानंतें तो आत्मा है, अनंतानंत पुद्गल परमाणु है―एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य एक आकाशद्रव्य और असंख्यात काल द्रव्य हे। इनका जो परिणमन है वह कही सूक्ष्म परिणमन है और कही स्थूल परिणमन है पर इन परिणमनों में सर्वत्र एक रूप रहने वाले जो मूल पदार्थ है, जो अनेक दशावों में पहुंच कर भी एक स्वभावरूप रहें वही समस्त परिणमनों का मूल कारण है। जैसे कि जो चिदात्मक गुणपर्यायें है उन सृष्टियों का कारण यह चित्स्वरूप है और जितने जो कुछ ये दृश्यमान है इन दृश्यमान समस्त पदार्थों का मूल कारण अणु है। उस परमाणु में भी परमाणु अकेला रह जाय तब भी परिणमन चलता है। उस परिणमनसे परिणत अणु को कार्य अणु कहते हैं और यह वह परिणमन जिस आधार में होता है उसे कारण अणु कहते हैं।
मूल पदार्थका मोहियों को अपरिचय―इन जीवों ने इन द्रश्यमान पदार्थों का मूल कारण नही जान पाया और न यह समझ पाया कि ये प्रत्येक पदार्थ अपने में ही अपने को अपने लिए अपने द्वारा रचतेरहते हैं।किसी के विभाव परिणमनमें अन्य द्रव्य निमित्त होते हैं,किंतु कोई भी निमित्तभूत परपदार्थ उपादान में किसी परिणति को उत्पन्न नही करते हैं। ऐसी वस्तुस्वरूपकी स्वतंत्रता एक सूत्रमें ही कह दी गई है―उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्। जो भी है वह निरंतर नवीन पर्याय से परिणमता है, पुरातन पर्याय को विलीन करता है और वह स्वयं कारण रूप में ध्रौव्य बना रहता है। यो जब आत्मा के स्वरूप का भान होता है तो यह निर्णय होता है कि किसी भी पदार्थ का कोई पदार्थ कुछ नही लगता है। सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वतंत्र स्वरूप को लिए हुए है, ऐसा भान होने पर जो परपदार्थ से सहज उपेक्षा होती है और उस उपेक्षा से जो अपने आपके स्वभाव में झुकाव दृढ़ हुआ और एकत्व की दृष्टि बनी उसमें जो आनंद प्रकट होता है। वह अलौकिक आनंद है। उसका अनुभव कर चुकने वाले योगी को अब किसी भी समागम में रहने की चाह नही रहती है, वह तो एकांत वास का अनुरागी है।
अज्ञानावस्था की वांछायें―अज्ञान अवस्था में यश और कीर्ति की चाह हुआ करती है कि मेरा लोक में बड़प्पन रहे, इस अज्ञानी को यह विदित नही है कि जिन लोगो में मैं बड़ा कहलाना चाहता हूँ वे लोग स्वयं दुःखी है, अशरण है, मायास्वरूप है- यह भान नही रहा, इसी कारण इन मायामयी पुरुषों में ये मायामयी पुरुष यश के लिए होड़ लगा रहे हैं। दुःख ओर किस बात का है धन मे लोग बढ़ना चाहते हैं वह भी यश के लिए । यश की चाह अंतर में पड़ी है तो नियम से जानना चाहिए कि उसके अज्ञानभाव है। जो कारण समयसार है, जो निज मूल शुद्ध चिदात्मक तत्त्व है उसका परिचय नही हुआ है इस कारण दर-दर पर इसे परपदार्थों से भीख मांगनी पड़ती है।
योगीश्वरों का आदर्श―यह ज्ञानी पुरुष निर्जन स्थानों में एकांत का संवास चाहता है। उसे प्रयोजन नही रहा किसी समागम मे रमने का और आदरपूर्वक एकांत चाहता है। ऐसा नही है कि संन्यासी हो गया है इस कारण अलग रहना ही पडे़गा। घर बसाकर तो न रहा जायगा ऐसी व्यवस्था नही है किंतु आस्थापूर्वक वह एकांत स्थान चाहता है। यह उन्नति के पद में पहुंचने वाले योगियों की कथा है। उन्होने निकट पूर्व काल में जो मार्ग अपनाया था, ज्ञान किया था वह ज्ञान हम आप सब श्रावकजनों के करने योग्य है, जिस मार्ग से चलकर योगी संत महान् आत्मा हुए है, वे चलकर बताते हैं,कि इस रास्ते से हम यहां आ पाये हैं,इसी उत्कृष्ट पथ से चलकर तुम अपने आपके उत्कृष्ट पद को पा लो।
अज्ञान और उद्दंडता―बेवकूफी और धूर्तता―इन दो ने जगत के जीवो को परेशान कर दिया है। बेवकूफी तो यह है कि पदार्थ का यथार्थ स्वरूप न विदित हुआ और एक का दूसरे पर अधिकार संबंध दिखने लगा। यह तो है इसका अज्ञान और इतने पर भी अपने को महानमान लेना। कोई छोटी बिरादरी का हो तो वह भी अपने को छोटा स्वीकार नही कर सकता है, कोई निर्धन हो वह भी अपनी दृष्टि में अपने को हल्का नही मान सकता है। एक तो अज्ञान रहा और अज्ञान होने पर भी अपने में बड़प्पन की बुद्धि रहे, जिससे अभिमान बने और भी प्रतिक्रियायें करने का यत्न होना यह है इस मोही जीव की धूर्तता । अज्ञान ही होता, सरल रहता तोभी अधिक बिगाड़ न था, किंतु अज्ञान होने पर भी अपने आप में बड़प्पन स्वीकार करना यह और कठिन चोट है, इससे परेशान होकर यह जीव चौरासी लाख योनियों में भटक रहा है।
जीव का सर्वत्र एकाकीपना―यह जीव अकेला ही जन्ममरण करता है, सुख दुःख भोगता है, रोग शोक आदि वेदनाएँ पाता है, स्त्री पुत्रादि को लक्ष्य में लेकर यह अपने रागद्वेष और मोह का विस्तार बनाया करता है, यहां कोई भी इस जीव का साथी नही है। वे सब केवल व्यवहार में स्वार्थ बुद्धि से रंगे हुए इस जन्म में ही साथी हो सकते हैं। कोई भी कभी मेरी विपदा में रंच साथ नही दे सकता है। ऐसी समझ द्वेष के लिए नही करना कि ये कोई साथी नही है, क्यों द्वेष करना? क्या तुम हो किसी के साथी? जब तुम किसी के साथी नही हो तो कोई दूसरा तुम्हारा साथी कैसे हो सकता है? यह तो वस्तुस्वरूप ही है। यह द्वेष के लिए समझ नही बनाना, किंतु उपेक्षा परिणाम करने के लिए ध्यान बनाना है।
व्यामोहवृत्ति―यह मोही आत्मा अपनी भूल से ही इन परजीवों को अपनी रक्षा का कारण समझता है। ये मेरी रक्षा करेंगे। कहो समय आने पर जिसका विश्वास है वही विपदा का कारण बन जाए। लेकिन मोह में जो दिमाग मे आया, क्योंकि शुद्ध मार्ग का तो परिचय नही है सो अपनी कुमति के अनुसार दूसरों का रक्षक मानता है और उन्हें त्यागने में भय मानता है मैं इस रक्षक का त्याग कर दूँ तो कही मेरा गुजारा न खत्म हो जाय ऐसा भय मानता हे और कभी वियोग हो जाय, होता ही है, जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग नियम से होता है। तब यह अज्ञानी बड़ा क्लेश मानता है।
अज्ञान की कष्टरूपता―जो संयोग में हर्ष मानते हैं उनको वियोग में कष्ट मानना ही पड़ेगा। जो संयोग के समय भी वियोग की बात का ख्याल रखते हैं कि जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग अवश्य होगा, तो उनके संयोग के समय भी आकुलता नही रहती और वियोग के समय भी आकुलता नही रहती। यह मोही जीव जब अपने अभीष्ट का वियोग देखता है तो यह व्याकुल होने लगता है। अज्ञान दशा में कही जाय तो इसे कष्ट है, क्रोध में रहे तो भी अज्ञान से कष्ट है। गृहस्थी त्यागकर साधु संन्यासी का भी भेष रख ले तो वहां भी कष्ट है कष्ट किसी परिस्थिति से नही होता है किंतु अपने अज्ञान भाव के कारण कष्ट होता है, और शुद्ध ज्ञान होने पर कष्ट मिट जाता है, यह अपने में विवेक जागृत करता है। विवेक क्या है? विवेचन करने का नाम विवेक है, अलग कर लेने का नाम विवेक है। विवेक शब्द का अर्थ ही अलग कर लेना है। अपने आपको समस्त परपदार्थों से विविक्त देखना, अपने एकत्वस्वरूप को आँकना यही वास्तविक विवेक है।
विवेक वृत्ति―जब यह जीव विवेक उत्पन्न करता है, मैं अकेला ही हूं, मेरा कोई दूसरा साथी नही है, मैं मेरे द्रव्यत्व और अगुरूलघुत्व स्वरूप के कारण अपने आप में ही निरंतर परिणमा करता हूं। जो भी परिणति मुझमें होती है, सुख हो अथवा दुःख हो, इन सबका मैं अकेला ही कर्ता और भोक्ता हूं। दूसरे जन मेरी ही भांति अपना मतलब चाहते हैं इन समागमों में रहना कष्टदायी मालूम होने लगता है। अपने आत्मस्वरूप से चिगकर किसी बाह्य की और विकल्प करना पडे़ इसे यह कष्ट मानता है। क्यों विकल्प किया जा रहा है? कुछ हित की सिद्धि है क्या इसमें? वे सब विकल्प मेरे प्राणघात के लिए है अर्थात् शुद्ध जो चिदानंदस्वरूप है उसका आवरण करने के लिए है। उन विकल्पों से यह दूर रहना चाहता है।
अंतस्तत्त्व के रुचिया का अंत आश्रय―विकल्पों से निवृत्ति के अर्थ ही वह निर्जन स्थान में रहने की अभिलाषा करता है, क्योंकि साधन सामने रहे तो वे विकल्पो के निमित्त बन सकते हैं इसलिए उन समागमों को ही छोड़कर किसी निर्जन स्थान में यह रहने की चेष्टा करने लगता है, करता है, परंतु सदा एकांत मे रह जाना बड़ा कठिन है। क्षुधा, तृषा की वेदना का कारणभूत शरीर साथ लगा है उसकी वेदना को शांत करने के लिए कुछ समागम होना ही पड़ता है। ये योगी क्षुधा की शांति के लिए नगर में भिक्षावृत्ति करते हैं,अथवा कभी किसी से वचनालाप का प्रसंग होता है तो अवसर पर बोल देते हैं। बोलने के बाद फिर उन सबका यह विस्मरण कर देता है। क्या-क्या चीजें स्मरण में रक्खे, किन्ही परपदार्थों को अपने उपयोग में बसाये रहने का क्या प्रयोजन है? कौन सा कर्ज चुकाना है, कौन सी आफत हे जिससे वह बाह्य पदार्थों को अपने उपयोग में रक्खे, नही रखना चाहता है।
वृत्ति की प्रयोजनानुसारिता―लाख बात की बात तो याद रहती है और सब प्रयोजनों की बात याद नही रहती है। जैसे गृहस्थजनों को, व्यापारियों को गृहस्थी और व्यापार की बात बहुत याद रहती है, कैसा थान है, कहां धरा है, कैसा रंग है, कैसी क्वालिटी का है, सारा नक्शा अब भी खिंच सकता है, सब चीजों को भाव ताव याद रहता है। देखने की भी जरूरत नही है, शक्ल देखकर बता देते कि यह इस भाव का है। तो उस बाह्यरुचिक गृहस्थों को व्यापारियों को ये सब बातें तो याद रहती है पर धर्म की बातें या ज्ञान सीखते हैं तो याद नही रहती है, ठीक है, अंत में यह ज्ञान ही प्रयोजन हो जायगा। अभी तो गृहस्थी के जंजाल का प्रयोजन है, उसकी सुध बहुत रहती है, धर्म और ज्ञान की सुध नही रहती है। जब विवेक जगेगा, जब यह उपयोग कुछ मोड़ खायगा, तब इस जीव को ज्ञान की सुध बनेगी, अन्य सब बातें भूल जायेगी।
अप्रायोजनिक विषय का विस्मरण―खाने के लाल सावंतों को कितना याद रहता है कि कल क्या खाना है? जो कल खाना है उसका साधन अभी से ही जुटाते हैं,ज्ञानीसंत पुरुष भोजन करते हैं,पर उन्हें भोजन की कुछ याद नही रहती है। भोजन के समय तो चूँकि उनके पास विवेक है सो उसकी बात समझने के लिए याद रखना पड़ता है, पर प्रयोजन एक ज्ञान का साधुओं का ही है, इस वजह से भोजन करते हुए में भी भोजन के स्वाद में वे मौज नही मानते हैं क्योंकि उनका उपयोग ज्ञान की और लगा हुआ है। भोजन करते जा रहे हैं पर वे उसके ज्ञाता द्रष्टा रहते हैं।
लोकदृष्टि की प्राकृतिकता―जो मन लगाकर खाये उसको भक्ति पूर्वक खिलाने का भाव नही होता है, जो मन न लगाकर खाये उसको सभक्ति खिलाने को भाव होता है। यह सब विशेषता है । जो मन लगाकर नही खाते हैं उनको ही साधु कहते हैं। उनको आहार दान देने में उत्सुकता गृहस्थ जनों को रहती है, यदि कोई मौज मानकर खाये तो गृहस्थ का परिणाम खिलाने में बढ़ नही सकता है, मन हट जायगा, यह प्राकृतिक बात है। जैसे गृहस्थजन भी भोजन के लिए मना करते जाएँ तो खिलाने वाले मनाकर खिलाते हैं,और लाओ-लाओ कहें तो परोसने वाले के उमंग नही रहती है। ऐसे ही जो जगत से उपेक्षा करके अपने स्वरूप की और मोड़ करते हैं उनकी सेवा में जगत दौड़ता है और जो जगत की और मुख किए हुए है उनकी और से यह जगत मुड़ता है।
ज्ञानी का तात्त्विक उद्यम―यहाँ यह कहा जा रहा है कि यह योगी ज्ञानी पुरुष चूँकि एक अलौकिक आनंद का अनुभव ले चुका है। अपने आपके स्वरूप में, इस कारण उसकी प्राप्ति के लिए ही इसका उद्यम होता है और यह निर्जन स्थान में पहुंचना चाहता है। इस आत्मध्यान के प्रताप से मोह दूर हो जाता है, और जहाँ सबको मन में बसाये रहें तो यह मोह कष्ट देता रहता है, छुट्टी नही देता है। विविक्त निःशंक शुद्ध ज्ञानप्रकाश जो है वह सर्व संकटो से मुक्त है, उसके ध्यान से ये मोह राग द्वेष बिल्कुल ध्वस्त हो जाते हैं।
आत्मनिधि के रक्षण का पुरुषार्थ―भैया! सब कुछ न्यौछावर करके भी ज्ञानानुभव का आनंद आ जाय तो उसने सब कुछ पाया है। सब कुछ जोड़कर भी एक ज्ञानस्वरूप का परिचय नही हो पाया तो उसने कुछ नही पाया है। लाखों और करोड़ों की संपत्ति भी जोड़ ले तो भी एक साथ सब कुछ छोड़कर जाना ही पड़ता है, और ज्ञानसंस्कार, ज्ञानदृष्टि शुद्ध आनंद की प्राप्ति कर लेना ये सब शरीर छोड़ने पर भी साथ जाते हैं। जो ज्ञान और आनंद की निधि है वह कभी छूटती नही है। जो आत्म की निधि नही है वह कभी आत्मा के साथ रहती नही है। गुरू परंपरा में बतायी हुई पद्धति के अनुसार जो आत्मस्वरूप का अभ्यास करता है वह योगी ध्यान के जो भी साधन और स्वरूप है उनका साक्षात्कार करता है अर्थात् जिस समय आत्मस्वरूप के चिंतन में यह योगी लीन हो जाता है उस समय उसे संसार का कोई भी पदार्थ, अपने प्रयोजन का कोई भी तत्त्व समझिये इसे अदृश्य हो जाता है।
ज्ञानस्वरूप के आश्रय का प्रसाद―जो अपने ज्ञान को बाह्य पदार्थों की ओर जानने के लिए लगाए उसके ज्ञान का विकास नही होता है और जो बाह्य पदार्थों से हटकर केवल अपने केंद्र को ही जानने का यत्न करे तो स्वयं ही ज्ञान का एक ऐसा विकास होता है कि यह लोकालोक समस्त एक साथ स्पष्ट विज्ञान होने लगता है। आनंद में बाधा देने वाली दो बातें है―एक तो ज्ञान न होना, दूसरी इच्छा बनाना। जब किसी वस्तु का ज्ञान नही है और इच्छा बनी हुई है तो आकुलता होती है। किसी वस्तु का ज्ञान नही है तो न रहने दो, तुम उसके ज्ञान की इच्छा और मत करो, फिर आकुलता कुछ नही है। इच्छा न हो ऐसी स्थिति तब बनती है जब कि ज्ञान स्पष्ट हो, इस कारण पदार्थ के स्वरूप का परिज्ञान करके केवल ज्ञाताद्रष्टा रहने का अभ्यास करे और इच्छा न करे तो वह परमात्म स्थिति इसके निकट ही है। स्वयं ही तो परमात्मस्वरूप है, इसकी और आये तो क्लेश दूर हो। इस प्रकार यह योगी परमार्थ एकांत निज आत्मतत्त्व की ही चाह करता है।