इष्टोपदेश - श्लोक 1: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:16, 17 April 2020
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः।
तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने।।१।।
स्वभावप्राप्ति—समस्त कर्मों का अभाव होने पर जिसको स्वयं स्वभाव की प्राप्ति हो जाती है उस सम्यग्ज्ञानस्वरूप परमात्मा के लिए मेरा नमस्कार हो। इस मंगलाचरण में पूज्यपाद स्वामी ने अपने आशय के अनुकूल प्रयोजन से नमस्कार किया है। वे थे सम्यग्ज्ञान के पूर्ण विकास के इच्छुक, अतः नमस्कार करने के प्रसंग में सम्यग्ज्ञानस्वरूप परमात्मा पर दृष्टि गयी है। यह सम्यग्ज्ञानस्वरूपपना अन्य और कुछ बात नही है। जैसा स्वभाव है उस स्वभाव की प्राप्तिरूप है। जीव को ज्ञान कहीं कमाना नही पड़ता है कि ज्ञान कोई परतत्त्व हो और उस ज्ञान का यह उपार्जन करे, किन्तु ज्ञानमय ही स्वयं है इसके विकास का बाधक कर्मों का आवरण है। कर्मों का आवरण दूर होने पर स्वयं ही स्वभाव की प्राप्ति होती है।
प्रभु की स्वयंभुता—प्रभु के जो परमात्मत्व का विकास है वह स्वयं हुआ है, इसीलिए वेस्वयंभू कहलाते हैं। जो स्वयं हो उसे स्वयंभू कहते हैं।स्वयं की परिणति से ही यह विकास हुआ है, किसी दूसरे पदार्थ के परिणमन को लेकर यह आत्मविकास नही हुआ है और न किसी परद्रव्य कानिमित्त पाकर यह विकास हुआ है। यह विकास सहज सत्त्व के कारण बाधक कारणों के अभाव होने पर स्वयं प्रकट हुआ है। इस ग्रन्थ के रचयिता पूज्य पाद स्वामी है। भक्तियों के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि जितनी भक्तियाँ प्राकृत भाषा में है उन भक्तियों के रचयिता तो पूज्य कुन्दकुन्द स्वामी है और जितनी भक्तियाँ संस्कृत में है उनके रचयिता पूज्यपाद स्वामी है। ये सर्व विषयो में निपुण आचार्य थे। इनके रचे गए वैद्यक ग्रन्थ, ज्योतिष ग्रन्थ, व्याकरण ग्रन्थ आदि भी अनूठे रहस्य को प्रकट करने वाले हैं। इस ग्रन्थ का नाम इष्टोपदेश कहा गया है। इस ग्रन्थ के अंत मेंस्वयं ही आचार्य देव ने ‘‘इष्टोपदेश इति’’ ऐसा कहकर इस ग्रन्थ का नाम स्वयं इष्टोपदेश माना है।
इष्ट का उपदेश—इस ग्रन्थ में इष्ट तत्त्व का उपदेश है। समस्त जीवों को इष्ट क्या है? आनन्द। उस आनन्द की प्राप्ति यथार्थ में कहाँ होती है और उस आनन्द का स्वरूप क्या है? इन सब इष्टों के सम्बन्ध में ये समस्त उपदेश है। आनन्द का सम्बंध ज्ञान के साथ है, धन वैभव आदि के साथ नही है। ज्ञान का भला बना रहना, ज्ञान में कोई दोष और विकार न आ सके, ऐसी स्थिति होना इससे बढ़कर कुछ भी वैभव नही है, जड़ विभूति तो एक अंधकार है। उस इष्ट आनन्द की प्राप्ति ज्ञान की प्राप्ति में निहित है और इस ज्ञान की प्राप्ति का उद्देश्य लेकर यहाँ ज्ञानमय परमात्मा को नमस्कार किया है। स्वभाव ही ज्ञान है। आत्मा का जो शुद्ध चैतन्यरूप निश्चल परिणाम है, जो स्वतंत्र है, निष्काम है, रागद्वेष रहित है, उस स्वभाव की प्राप्ति स्वयं ही होती है, ऐसा कहा है।
उपयोग से स्वभाव की प्राप्ति—भैया ! स्वभाव तो शाश्वत है किन्तु स्वभाव की दृष्टि न थी पहिले और अब हुई है, इस कारण स्वभाव की प्रसिद्धि को स्वभाव की प्राप्ति कहते हैं। स्वभाव की प्राप्ति में कारण कुछ नही है, एक कर्मों का अभाव ही कारण है, विधिरूप कारण कुछ नही है किन्तु स्वभाव की दृष्टि न हो सकने में कारण था कर्मों का उदय इस कारण कर्मों के अभाव को स्वभाव की प्राप्ति का कारण कहा है। स्वभाव की प्राप्ति होने के बाद अनन्तकाल तक स्वभाव बना रहता है, विकसित रहता है, प्राप्त रहता है। वहाँ कौन सा कारण है, न कोई विधिरूप और न कोई निषेधरूप। वहाँ तो धर्म आदि द्रव्य जैसे स्वभाव से अपने गुणो में परिणते रहते हैं। ऐसे ही ये सिद्ध संत भगवंत अपने ही गुणों में स्वभावतः अपने सत्त्व के कारण शुद्धरूप से परिणमते रहते हैं पर प्रथम बार की प्राप्ति कर्मों के अभाव को निमित पाकर हुई है। जिस समय तपश्चरण आदि योग्य स्थितियों के धारणा से ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मों का क्षय हो जाता है और रागद्वेषादिक भाव कर्मों का क्षय हो जाता है तब यह आत्मा सम्यग्ज्ञानस्वरूप इस चिदानन्द ज्ञानघन निश्चल टंकोत्कीर्ण ज्ञायकस्वभाव को प्राप्त कर लेता है।
स्वभाव की सहजसिद्धता का एक दृष्टान्त—स्वभाव कही से लाकर नही पाना है वह तो टंकोत्कीर्णवत् निश्चल है। जैसे पाषाण की प्रतिमा पहिले एक मोटा पाषाण ही था। किसी धर्मात्मा को कारीगर से उस पाषाण में से प्रतिमा निकलवानी है। कारीगर बड़ी गौर से उस पाषाण को देखकर ज्ञानबल से उस पाषाण में प्रतिबिम्ब का दर्शन कर लिया है, उसने आँखों से नही उस प्रतिमा के दर्शन कर लिया, किन्तु ज्ञान से। अब उस प्रतिमा को अनुरागवश प्रकट करने के लिए कारीगर अलग करता है, जिन पत्थरों के टुकड़ों के कारण वह प्रतिमा किसी को नजर नही आ रही है उन टुकड़ों को यह कारीगर अलग करता हे, कारीगर को सब विदित है।
आवरकों के अभाव में अन्तःस्वरूप के विकास का दृष्टान्तमर्म—यह कारीगर उन खण्डों को पहिले साधारण सावधानी के साथ अलग करता है। सावधानी तो उसके अन्दर में बहुत बड़ी है, किन्तु वहाँ इतनी आवश्यक नही समझी सो बड़ीहथौड़ा से उन खण्ड को जुदा करता है। मोटे-मोटे खण्ड जुदे होने पर अब उसकी अपेक्षा विशेष सावधानी बर्तता है, उससे कुछ पतली छेनी और कुछ हल्की हथौड़ी लेकर कुछ सावधानी के साथ उन पाषाण खण्डों को निकालता है। तीसरी बार में अत्यन्त अधिक सावधानी से और बड़े सूक्ष्म यत्न से बहुत महीन छेनी को लेकर और बहुत छोटे हथौड़े को लेकर अब उन सूक्ष्म खण्डों को भी अलग करता है, अलग हो जाते हैं ये सब आवरक पाषाणखण्ड तो वे अवयव प्रकट हो जाते हैं जिन अवयवों में मूर्ति का दर्शन हुआ है। कारीगर ने मूर्ति बनाने के लिए नई चीज नहीं लाई, न वहाँ के किन्ही तत्त्वों को उसने जोड़ा है, केवल जो प्रतिमा निकली है उस अवयवों के आवरक या खण्डों को ही उसने अलग किया है। वह प्रतिमा तो स्वयंभू है, किसी अन्य चीज से बनी हुई नही है।
आवरकों के अभाव में अन्तःस्वरूप का विकास—ऐसे ही जो सम्यग्दृष्टि इस चैतन्यपदार्थ में अतः स्वभाव के दर्शन कर लेते हैं उनके यह साहस होता है कि इस स्वभाव को वे प्रकट कर लें। इस स्वभाव के प्रकट होने का ही नाम परमात्मस्वरूप का प्रकट होना है। स्वभाव प्रकट करने के लिए किन्ही परतत्त्वों को नही जोड़ना है, किन्तु उस स्वभाव को आवरण करने वाले जो विभाव है, रागद्वेष विषयकषाय शल्य आदि जितने विभाव है। उन सबको वह दूर करता है। कैसे वह दूर करता है? स्वभाव में और उन पर भावों में भेदज्ञान का उपयोग करके करता है।
ज्ञानी की सावधानी सहित वर्तना—भेदविज्ञान के यत्न में इस ज्ञाता के पहिले तोएक साधारण सावधानी होती है जिसमें यह इस शरीर से भिन्न आत्मा को परखता है। यद्यपि अन्तर में सावधानी का माद्दा वही पूर्णरूपेण पड़ा हुआ है लेकिन अत्यन्त अधिक सावधानी की आवश्यकता नही रहती है किन्तु उसकी आंतरिक सावधानी का सम्बंध रखकर जो साधारण सावधानी चलती है उससे ही शरीर और आत्मा में भेद की परख हो जाती है, यह पहिली सावधानी है। इसके पश्चात् अंतरंग में एक क्षेत्रावगाह से पड़े हुए जो अन्य सूक्ष्म कार्माण आदि पुद्गल द्रव्य है, जिनका इस आत्मा के साथ निमित्तनैमित्तिक बंधन है उन कार्माण द्रव्यो से भी अपने को जुदा कर लेता है। इसके पश्चात् तीसरी सावधानी में कुछ विशेष ज्ञानबल लगाना है। प्रवर्तते हुए रागद्वेषादिक भावो से यह पृथक है, इनसे भिन्न यह मैं ज्ञानमात्र आत्मा हूं ऐसा भेद डालना निरखना यह सूक्ष्म सावधानी का काम है। जहाँ रागद्वेष विषय कषायों की कल्पनाएँ ये दूर हुई कि अपने आप में बसा हुआ यह ज्ञायकस्वरूप स्वयं विकसित हो जाता है। इसी कारण यह तत्त्व प्रभु परमात्मा स्वयंभू कहलाता है।
परमात्मा की प्रभुता और विभुता—इस परमात्मा का नाम प्रभु भी है। जो प्रकृष्ट रूप से हो उसे प्रभु कहते हैं। संसार अवस्था में किसी विशिष्ट रूप रह रहा था, अब वह विशिष्ट दशा को त्याग कर ज्ञानोपयोग में बसने रूप उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त हो रहा है। यह प्रभु कहलाता है यह परमात्मा विभु भी कहलाता है। जो व्यापकरूप से हो उसे विभु कहते हैं। यह ज्ञानस्वरूप परमात्मा ज्ञान द्वारा समस्त लोक और अलोक में व्यापक है, इसी कारण इस परमात्मा का नाम विभु है और इस ही परमात्मा को स्वयंभू कहते हैं। जो यह विकास स्वयं प्रकट हुआ है। परमात्मा का दर्शन ज्ञानरूप में ही किया जा सकता हे और परमात्मा के दर्शन में ही वास्तविक शान्ति मिलती है। अधिक से अधिक समय इस ज्ञानमय परमात्मतत्त्व के दर्शन के लिए लगाएँ, इस ही को व्यवहार धर्म की उन्नति कहते हैं।
ज्ञानस्वरूप के दर्शन से जीवन की सफलता—भैया ! साधुजन तो चौबीस घंटा इस ही परमात्मतत्त्व के दर्शन के लिए लगाते हैं। और फिर श्रावकों में भी उत्कृष्ट श्रावकजन अपना बहुत समय इस परमात्मतत्त्व के दर्शन में लगाते हैं। और उससे भी कुछ नीचे श्रावकजन भी और विशेष नही तो ५-५ घंटे बाद समझिये सामायिक के रूप में अपने परमात्मादर्शन के लिये सावधान बनाते हैं। इस मनुष्य भव को पाकर करने योग्य काम एक यही है। अन्य-अन्य कार्यों में व्यस्त होने से तत्त्व की बात क्या मिल जायगी? इसकी प्रगति तो रत्नत्रय की प्रगति में है जितना अधिक काल ज्ञानस्वरूप अपने आपको निरखने मे जाय उतना काल इसका सफल है। ज्ञान के रूप में परमात्मा का दर्शन होता है, ज्ञान के रूप में अपने आत्मा का अनुभव होता है और विशुद्ध ज्ञान की परिणति के साथ आनन्द का विकास चलता है, इसी कारण परमात्मा को सम्यग्ज्ञान स्वरूप की मुद्रा में निरखा जा रहा है।
आदर्श—जो जिसका रूचिया होता है वह उसका संग करता है, वह उसकी धुन बनाता है, उसको उस ही मार्ग का आप्त अर्थात् पहुँचा हुआ पुरुष आदर्श है, खोटे कार्यों में लगने वाले पुरुष को खोटे कार्यों में निपुण लोग आदर्श हैं और आत्महित की अभिलाषा करने वाले मनुष्य के आत्महित में पूर्ण सफल हुए शुद्ध आत्मा आदर्श है। जो जिस तत्त्व का अभिलाषी होता है वह उस तत्त्व का ही यत्न करता है। अपने आपके ज्ञानस्वरूप निरखे बिना न तो परमात्मदर्शन में सफलता हो सकती है और न आत्मानुभव में सफलता हो सकती है। ये कषाय भी इस ही शुद्ध ज्ञानस्वरूप की दृष्टि के बल से मंद होती है। कषायों का विनाश भी इस ही स्वभाव के अवलम्बन से होता है क्योंकि यह स्वभाव स्वयं निष्कषाय है, निर्दोष है। इस स्वभाव की उपासना करने वाले संतजन सदा प्रसन्न रहते हैं। वे परपदार्थों के किसी भी परिणमन से अपना सुधार और बिगाड़ नही समझते हैं। वे सदा अनाकुल रहते हैं,परम विश्राम का साधन जो स्वतंत्र अकर्ता अभोक्ता प्रतिभात्मक तत्त्व है उसकी दृष्टि हो, न हो तो अनाकुलता वहाँ कैसे प्रकट हो ? जो अपने को अन्य किसी रूप मान लेते हैं वे जिस रूप मानते हैं उसकी और उनकी प्रगति हो जाती है।
स्वभावावाप्ति के अन्तर्बाह्य साधन—द्रव्यकर्मों का अभाव होने पर स्वभाव की प्राप्ति कहना एक निमित नैमित्तिक सम्बन्ध की बात बताना है और रागद्वेष आदि भावकर्मों का अभाव होने पर स्वभाव के प्रकट होने की बात कहना यह प्रागभाव प्रध्वंसभावरूप में कथन है अर्थात हमारे विकास का साक्षात् बाधक भावकर्म है, द्रव्यकर्मों तो हमारे बाधकों का निमित्त कारण है। स्वभाव की प्राप्ति इन समस्त कर्मों का अभाव होने पर होती है। जब स्वभाव की प्राप्ति हो लेती है तब उनका स्वरूप विशुद्ध सम्यग्ज्ञानमय होता है, ऐसे ज्ञानात्मक परमात्मा को हमारा नमस्कार हो, वे सदा जयवंत रहें और उनके ध्यान के प्रसाद से मुझमें अतः विराजमान परमात्मतत्त्व जयवंत होओ। अन्तः प्रकाशमान यह परमात्मतत्त्व व्यक्तरूप से प्रकाशमान हो जावे—यही स्वभाव की परिपूर्ण प्राप्ति है। इस स्वसमयसार को मेरा उपासनात्मक नमस्कार होओ।