इष्टोपदेश - श्लोक 32: Difference between revisions
From जैनकोष
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव।</strong></p> | ||
< | <p><strong>उपकुर्वन्परस्याज्ञो वर्तमानस्य लोकवत्।।32।।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>स्वोपकार का ध्यान</strong>―हे आत्मन् ! तू परोपकार को छोड़कर स्वोपकार में रत रह। अज्ञ लोक की तरह मूढ़ बनकर दृश्यमान शरीर आदि परपदार्थों में उपयोग को क्यों कर रहा है? इस श्लोक में शब्द तो ये आये हैं कि तू परके उपकार को तज दे और अपने उपकार में लग। यह सुनने में कुछ कटु लग रहा होगा कि पर के उपकार की मनाही की जाती है। पर के मायने है शरीरादिक बाह्यपदार्थ। तू शरीर का, धन वैभव का उपकार करना छोड़ दे और आत्मा जिस तरह शांति संतोष में रह सके वैसा उपकार कर। जैसे कोई मूढ़ अज्ञानी शत्रु को मित्र समझकर रात-दिन उसकी भलाई में लगा रहता है। उसका हित हो, अपने हित अहित का कुछ भी ध्यान नही रखता है। भ्रम हो गया। है तो शत्रु पर मान लिया मित्र। कोई मायाचारी छली कपटी पुरुष है और उसका इतना मीठा बरताव है कि हमने उसको अपना मान लिया। अब अपना मानने के भ्रम से उसके उपकार में बुद्धि रहती है। पर क्या वह हित कर देगा, क्या हानि कर देगा? इस और यह ध्यान नही रखता है। उसके हित की साधना में ही अपना सर्वस्व सौंप देता है।</p> | ||
<p | <p><strong>तत्त्वज्ञान से स्वोपकार की रूचि―</strong>जब इसको यह परिज्ञान हो जाता है कि मेरा मित्र नही है, शत्रु है, तभी से यह मनुष्य उसका उपकार करना छोड़ देता है। यों ही यह शरीर जीव का शत्रु है। जीव का अहित इस शरीर के कारण हो रहा है अतएव यह शरीर शत्रु की तरह है लेकिन मोह में इसने मान लिया मित्र। यह शरीर मेरा बड़ा उपकारी है इतना भी भेद नही करता कि शरीर है सो मैं हूं। मुझे अपना काम करना है, शरीर का काम करना है, यह भी नही किंतु उसे आत्मा स्वीकार कर लिया और उस पर के उपकार में यह मोही जीव लग गया है। सो यहाँ यही कहा गया है कि पर के उपकार को तज, निज के उपकार में लग। जिन प्रसंगो में अन्य जीवो का उपकार किया जा रहा है वहाँ भी यह जीव यदि यह ध्यान रख रहा है कि मैं इस पर का उपकार का काम कर रहा हूं तो भी उसने गलती की। उसने पर माना है इस शरीर को तो वह भी जड़ के काम करता है।</p> | ||
<p | <p><strong>परमार्थतः पर के उपकार की अशक्यता</strong>―जो ज्ञानी पुरुष है वह अन्य जीवों का उपकार करके यह ध्यान मे लेता है कि मैंने किसी पर का उपकार नही किया है, किंतु अपने ही आत्मा को विषय कषायों से रोककर अपना भला किया है। कोई जीव वस्तुतः किसी पर का उपकार कर ही नही सकता है। प्रत्येक जीव अपना ही परिणमन कर पाते हैं। जो जीव वस्तुस्वरूप से अनभिज्ञ है उन्हें शांति संतोष किसी क्षण नही मिलता है क्योंकि शांति का आश्रय जो स्वयं है जिसके आलंबन से शांति प्रकट होती है, उसका पता नही है तो बाहर ही में किसी परपदार्थ में अपनी दृष्टि गड़ायेगा। होगा क्या कि पर तो पर ही है, उनमें दृष्टि अपनी रखने से बहिर्मुख बनने से स्वयं रीता हो गया। अब इसे कुछ शरण नही रहा। जो तत्त्वज्ञानी पुरुष है वे जानते हैं कि मेरा स्वरूप ही मेरा शरण है। उन्हें किसी भी पदार्थ में, वातावरण में, स्थिति में विह्वलता नही होती है। वे सर्वत्र स्वतंत्र वस्तु का स्वरूप निरखते रहते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong>शब्दजाल से आत्मा का असंबंध</strong>―सारा जहान यदि प्रशंसा करे, यश करे तो भी उन प्रशंसा के शब्दों से ज्ञानी के चित्त मे क्षोभ नही होता है। क्योंकि वह देख रहा है कि ये सब भाषावर्गणा के परिणमन है, इन शब्दों का मुझ आत्मा में रंच प्रवेश नही है और न कुछ परिणमन ही कर सकते हैं। ऐसी स्वतंत्रता का भान होने से यह तत्त्वज्ञानी जीव प्रशंसा के शब्दों को सुनकर भी क्षोभ नही लाता है। हर्ष भी एक क्षोभ है। जो लोग प्रशंसा सुनकर मौज मानते हैं वे बहिर्मुख बनकर कषाय कर्मकलंक अपने में बरसाते हैं,उसका फल दुर्गतियों में भ्रमण करना ही है। कौन से शब्द इस जीव का क्या कर सकेंगे ? न इस भव में ये सब सहायक है और न पर भव में सहायक है। लोग आज भी ऐसा कहा करते हैं कि पुराने जो महापुरुष हुए है कृष्ण, महावीर आदि, हम उनके शब्दों का रिकार्ड कर ले, लेकिन जो शब्द परिणत हो जाते हैं। वे दूसरी क्षण में उस पर्यायरूप मे नही रहते हैं। वे रिकार्ड कहाँ से हो सकेंगे? ऐसे ही ये शब्द जब कहने के बाद ही समाप्त हो जाते हैं। कुछ काल तक यदि ये गूँजते हैं तो उसके भी गूँजने का कारण यह है कि शब्दवर्गणा के निमित्त से अन्य वर्गणायें शब्दरूप परिणम जाती है और यों बिजली की तरह इसमें भी तरंग उत्पन्न होती है, पर यह तरंग भी बहुत समय तक कहाँ ठहर सकेगी? ये शब्द न मेरे को अभी काम देते हैं,न आगे काम देंगे।</p> | ||
<p | <p><strong>शांति का मूल उपाय तत्त्वज्ञान</strong>―ज्ञानी तो अपने ज्ञान के प्रकाश का रूचिया है और दूसरे जन भी इस ज्ञान का प्रकाश पायें, वस्तु का जो स्वतंत्र स्वरूप हे वह सबकी दृष्टि में आए और सुखी हो जाएँ ऐसी भावना करता है। सुखी होने का मूल उपाय तत्त्वज्ञान है। अनेक उपाय कर डालिए, कितना ही धनसंचय कर लो पर धन से भी शांति नही। कितनी भी लोक में इज्जत बना लो पर इज्जत से भी शांति नही। जो-जो उपाय करना चाहें आप कर डाले, पर एक तत्त्वज्ञान के बिना सारे उपाय शांति के लिए कार्यकारी नही है। जब भी जिसे शांति मिलनी होगी इस ही मार्ग से मिलेगी, खुद को खुद के यथार्थ ज्ञान से शांति मिलेगी। भेदविज्ञान का बड़ा महत्त्व है। कोई भी विपदा हो, विपदा कुछ भी नही, परपदार्थ के परिणमन अपने मन के अनुकूल न जंचे ऐसी कल्पना करते रहना बस यही विपदा है । विपदा भी किसी तत्त्व का नाम नही है। ऐसे चाहे लौकिक विपदा के प्रसंग भी आएँ किंतु यह तत्त्वज्ञानी जीव अपने को सबसे न्यारा अमूर्त ज्ञानानंद स्वभावरूप अनुभव करता है, इसके प्रताप से उसे कभी क्लेश नही होता है। कदाचित् क्लेश माने तो यह उसके किन्ही दर्जों तक अज्ञान का ही प्रसाद हे।</p> | ||
<p | <p><strong>आचार्यदेव का आत्मोपकार का उपदेश</strong>―आचार्य देव यहाँ यह कह रहे हैं कि तू पर का उपकार तजकर अपने उपकार में लग। यहाँ धन वैभव, इज्जत लोकसंपदा को पर कहा गया है। उनके उपकार को तज और एक अपने उपकार में लग। अपना उपकार है निज को निज पर को पर रूप से जान लेना। गुप्त ही गुप्त कल्याण होता है, दिखावट, बनावट, सजावट से कल्याण नही होता है। भेदविज्ञान की तब तक शरण गहो जब तक सर्व विकल्प समाप्त न हो जाएँ। इस जीव को यथार्थ में संकट कुछ भी नही है। आज हम आप कितनी अच्छी स्थिति में है, कीड़े, मकोड़े, पतंगों को देखो उनकी क्या दयनीय स्थिति है, अथवा मनुष्यो मेंही देखो कोई भिखारी जनों की ऐसी दयनीय स्थिति है कि जिनको कई दिनों तक भी खाने का ठिकाना नही है, उनकी अपेक्षा हम आप आज कितनी अच्छी स्थिति में है, और सबसे बडी बात तो यह है कि जैन सिद्धांत का पाना अति दुर्लभ है। जैन सिद्धांत एक ऐसे तत्त्वज्ञान का प्रकाश करता है कि जिस ज्ञान के आने पर सदा के लिए संकट काट लेने का उपाय मिलता है।</p> | ||
<p | <p><strong>पदार्थों का स्वातंत्र्य स्वभाव</strong>―वस्तु के संबंध में जैन सिद्धांत ने एक गहरी दृष्टि से प्रतिपादन किया है। प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है। ये जो दृश्यमान पदार्थ पुद्गल स्कंध है ये एक चीज नही हैं, ये अनंत परमाणुओं का पुंज है। इनमें जो एक-एक परमाणु हे वह द्रव्य है, यो एक-एक जीव करके अनंत जीवद्रव्य है, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और एक-एक करकेअसंख्यात कालद्रव्य है। प्रत्येक पदार्थ 6 साधारण गुणों करके परिपूर्ण है। प्रत्येक पदार्थ है, अपने स्वरूप से है, पर के स्वरूप से नही है। दूसरी बात यह है। तीसरी बात―अपने में यह द्रव्यत्वगुण रखने के कारण निरंतर परिणमता रहता है। चौथी बात अपने में ही परिणमता है किसी दूसरे में नही। 5 वी बात―अपने प्रदेश से है। छठवीं बात―किसी न किसी के ज्ञान द्वारा प्रमेय है। इन 6 साधारण गुणों के वर्णन से आप यह देखेंगे कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है।</p> | ||
<p | <p><strong>अपनी वेदना मेटने का इलाज―</strong>कोई भिखारी यदि जाड़े के दिनों में सुबह तीन चार बजे तड़के चक्कर लगाकर कपड़े माँगता है और आप लोग उसे कपड़े दे दें तो कही आप उस भिखारी का उपकार नही कर रहे हैं लेकिन व्यवहार में माना तो जा रहा है, परंतु वहाँ क्या किया जा रहा है कि उस भिखारी की स्थिति जानकर अपने कल्पना करके खुद ही दुःखी हो गए, कुछ वेदना हो गयी, ओह यह कैसा दुःखी है? ऐसी कल्पना जगने के साथ आपके हृदय मे वेदना हो गयी। उस वेदना को मिटाने का इलाज आप और क्या कर सकते हैं ? आपने अपना ही उपकार किया, उस भिखारी का कुछ उपकार नही किया। जो जीव अपने में यह निर्णय किए हुए है कि मेरा सुख, दुःख मेरे परिणमन से ही है, कोई अन्य जीव मुझमें कुछ परिणति नही बना देता है। भले ही बाहर में निमित्तनैमित्तिक संबंध है लेकिन परिणमना तो खुद की ही कला से पड़ रहा है। मैं किसी का कुछ करता भी नही हूं। जिसमें जैसी कषाय उत्पन्न होती है उस कषाय की वेदना को शांत करने का वह प्रयत्न करता है।</p> | ||
<p | <p><strong>ऋषि संतों की कृति में आत्मोपकार का लक्ष्य</strong>―जैन सिद्धांत तो यह प्रकट कर रहा है कि ये आचार्यदेवजिन्होंने इन हितकारक ग्रंथों को लिखा है जिनको पढ़कर हम आप अपनी शक्ति के अनुसार अपना उपकार कर लेते हैं,इन आचार्यों ने भी वस्तुतः हमारा उपकार नही किया है किंतु उन्होने जो हम पामरों पर करुणा बुद्धि करके स्वयं में वेदना की थी, उन्होने भी उस वेदना को शांत करने के लिए यत्न किया है। लोग इस बात की हैरानी मानते हैं कि मैने अपने पुत्र को इतना पढ़ाया, इतना योग्य बनाया, पर आज यह मुझसे विपरीत चलता है, ऐसा लोग खेद मानते हैं किंतु तत्त्वज्ञान का उपयोग करें तो खेद नही माना जा सकता है। मैने सर्वत्र अपने मन के अनुकूल अपनी वेदना को शांत करने के लिए श्रम किया है, मैने दूसरे जीव का परमार्थतः कुछ नही किया है। अब जिसकी जो परिणति है वह अपनी परिणति कर रहा है। मेरा जो कुछ कर्तव्य है वह मुझे करना चाहिए ऐसा ज्ञानी जीव के चित्त में विवेक रहता है। इस कारण वह कभी अधीर नही होता।</p> | ||
<p | <p><strong>समय के सदुपयोग का अनुरोध―</strong>भैया ! मनुष्य जीवन और यह श्रावककुल, जैनधर्म के सिद्धांत के श्रवण की योग्यता सब कुछ प्राप्त करके इस समय का सदुपयोग करना चाहिए। समय गुजर रहा है उम्र निकली जा रही है, मरण के निकट पहुंच रहे हैं ऐसी स्थिति में यदि सावधान न हुए तो यह होहल्ला तो सब समाप्त ही हो जायगा। तुम अपने को भविष्य में कहाँ शांत बना सकोगे? कोई यह न जाने कि हम मर गए तो आगे की क्या खबर है कि हम रहेंगे कि नही रहेंगे, कहाँ जायेंगे, दीपक है, बुझ गया फिर क्या है, ऐसी बात नही है। खुब युक्तियों से और अनुभव से सोच लो। जो भी पदार्थ सत् है उस पदार्थ का समूल विनाश कभी नही होता है, कैसे हो सकेगा विनाश ? सत्त्व कहाँ जायगा? भले ही उसका परिणमन कितने ही प्रकारों से चलता रहे किंतु उस पदार्थ का सत्त्व मूल से कभी नष्ट नही हो सकता। यह बात पूर्ण प्रमाण सिद्ध है।</p> | ||
<p | <p><strong>अपनी चर्या</strong>―अब अपने आपके सम्ंबध में सोचिए हम वास्तव में कुछ है। अथवा नही? यदि हम कुछ नही है तो यह बड़ी खुशी की बात है। यदि हम नही है तो ये सुख दुःख किसमें होगे? फिर तो कोई क्लेश ही न रहना चाहिए। मैं हूं और जो भी मैं हूं वह कभी मिट भी नही सकता, यदि इस भव से निकल जाऊँ तो भी मैं रहूंगा। उसके लिए अपने और अन्य जीवों का परिणमन देखकर निर्णय कर लीजिए। जो जगत में जीव दीख रहे हैं वैसा मैं भी बना और फिर बन सकता हूं। मतलब यह है कि किसी न किसी देह में रहना होगा और वहां अपने ज्ञान अज्ञान के अनुकूल सुख दुःख पाना होगा। यह संपदा, ये ठाठ ये समागम कितने समय के लिए है? जो इन समागम को अपने विषयवासना मे, विषयो की पूर्ति में ही खर्च करता है, तन, मन, धन, वचन सब विषयों की पूर्ति के लिए ही खर्च किए जा रहे हैं,तो यह अपने आपके उपयोग का बड़ा दुरूपयोग है। अपने लिए तो अपने खाने के लिए, पहिनने के लिए और श्रृंगार के लिए जितनी अधिक से अधिक सात्विक वृत्ति रक्खी जायगी उतना ही भला है, और शेष जो कुछ भी समागम है यह ध्यान में रखना चाहिए कि ये सब पर के उपकार के लिए है। मुझे इन विभूतियों को विषयसाधनों में नही व्यय करना है।</p> | ||
<p | <p><strong>स्व की सुध</strong>―विषय साधना मेरा कुछ भला नही कर सकते हैं। ये विषयो के साधनभूत समस्त परपदार्थ है, इनके लिए कहा जा रहा है कि तू परका उपकार तज दे और निज के उपकार में तत्पर रह। है आत्मन्! अज्ञान अवस्था में तूने अपने चिदानंदस्वभाव की सुध नही ली। जो आनंद का निधान सर्वोत्कृष्ट है, जिस परमपारिणामिक भाव के आलंबन से कल्याण होता है उस मंगलमय चैतन्यस्वरूप की सुध न ली जा सके और आदि परद्रव्य जो भी तुझे मिले हैं उनके संयोग में मौज माने, उनके पोषण में तू अपना ध्यान लगाये बड़े-बड़े कष्ट भी सहे, पर शरीर के आराम की ही बात तू सोचता रहे, यों पर के उपकार में रत रहे, इससे क्या सिद्धि है? अब उन शत्रु मित्र आदि परपदार्थों में आत्मीयता की कल्पना तू छोड़ दे।</p> | ||
<p | <p><strong>सहज स्वतत्त्व का उपयोग शांतिदान में समर्थ</strong>―जो मनुष्य समस्त जीवो में उस सामान्य तत्त्व को निरख सकता है जिस तत्त्व की अपेक्षा से सब समान है, तो उसने ज्ञानप्रकाश पाया समझिये। जो इन अनंत जीवों में से यह मेरा है, यह गैर है, ऐसी बुद्धि बनाता है वह मोह के पक्ष से रंगा हुआ है। उसे शांति का मार्ग कहाँ से मिलेगा, वह तो अपनी राग वेदना को ही शांत करने का श्रम करता रहेगा, ये दृश्यमान पदार्थ तेरे कुछ नही है ओैर न तू कभी उन पदार्थों का हो सकता है। अतः विवेक ज्ञान का आश्रय कर, अपना हित सोच, शांति से कुछ रहने का यत्न तो बना, पर की और दृष्टि देने से अशांति ही होती है क्योंकि उपकार है स्वाश्रित और इस उपकार को तुमने अपनी कल्पना से बना लिया पराश्रित तो ये परपदार्थ भिन्न है, असार है अध्रुव है तब इनकी और लगा हुआ उपयोग हमें कैसे शांति का कारण बन सकता है?</p> | ||
<p | <p><strong>आत्मध्यान का आदेश</strong>―भैया ! आत्मध्यान ही सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। एतदर्थ वस्तु का सम्यग्ज्ञान चाहिए, स्वतंत्र-स्वतंत्र स्वरूप का भान होना चाहिए और इसके लिए कर्तव्य है कि हम ज्ञानार्जन में अधिकाधिक समय दें। गुरुजनों से पढ़े, चर्चाएँ करके, ज्ञानाभ्यास करके अपना उपयोग निर्मल बनाएँ। इस प्रकार यदि ज्ञान की रूचि जगी, धर्म की रूचि बनी तो हमें शांति का कुछ मार्ग मिल सकेगा, अन्यथा बहिर्मुखी दृष्टि में तो शांति नही हो सकती। इसे इन शब्दों में कहा गया है कि है आत्मन्!तू पर के उपकार में अभी तक लगा रहा, अर्थात् तेरा जो यह शरीर है वह पर है, और तू इन देहादिक के उपकार में अभी तक जुटा रहा। इसकी और से अपने उपयोग को हटाकर ज्ञानघन आनंदनिधान अपने उपयोग को हटाकर ज्ञानघन आनंदनिधान अपने शुद्ध चिदानंदस्वरूप को निरख। इसके अनुभव में जो आनंद बसा हुआ है वह आनंद संसार में किसी भी जगह न मिल सकेगा। इस कारण अपने उपकार के लिए तत्त्वज्ञान का उपाय कर।</p> | ||
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव।
उपकुर्वन्परस्याज्ञो वर्तमानस्य लोकवत्।।32।।
स्वोपकार का ध्यान―हे आत्मन् ! तू परोपकार को छोड़कर स्वोपकार में रत रह। अज्ञ लोक की तरह मूढ़ बनकर दृश्यमान शरीर आदि परपदार्थों में उपयोग को क्यों कर रहा है? इस श्लोक में शब्द तो ये आये हैं कि तू परके उपकार को तज दे और अपने उपकार में लग। यह सुनने में कुछ कटु लग रहा होगा कि पर के उपकार की मनाही की जाती है। पर के मायने है शरीरादिक बाह्यपदार्थ। तू शरीर का, धन वैभव का उपकार करना छोड़ दे और आत्मा जिस तरह शांति संतोष में रह सके वैसा उपकार कर। जैसे कोई मूढ़ अज्ञानी शत्रु को मित्र समझकर रात-दिन उसकी भलाई में लगा रहता है। उसका हित हो, अपने हित अहित का कुछ भी ध्यान नही रखता है। भ्रम हो गया। है तो शत्रु पर मान लिया मित्र। कोई मायाचारी छली कपटी पुरुष है और उसका इतना मीठा बरताव है कि हमने उसको अपना मान लिया। अब अपना मानने के भ्रम से उसके उपकार में बुद्धि रहती है। पर क्या वह हित कर देगा, क्या हानि कर देगा? इस और यह ध्यान नही रखता है। उसके हित की साधना में ही अपना सर्वस्व सौंप देता है।
तत्त्वज्ञान से स्वोपकार की रूचि―जब इसको यह परिज्ञान हो जाता है कि मेरा मित्र नही है, शत्रु है, तभी से यह मनुष्य उसका उपकार करना छोड़ देता है। यों ही यह शरीर जीव का शत्रु है। जीव का अहित इस शरीर के कारण हो रहा है अतएव यह शरीर शत्रु की तरह है लेकिन मोह में इसने मान लिया मित्र। यह शरीर मेरा बड़ा उपकारी है इतना भी भेद नही करता कि शरीर है सो मैं हूं। मुझे अपना काम करना है, शरीर का काम करना है, यह भी नही किंतु उसे आत्मा स्वीकार कर लिया और उस पर के उपकार में यह मोही जीव लग गया है। सो यहाँ यही कहा गया है कि पर के उपकार को तज, निज के उपकार में लग। जिन प्रसंगो में अन्य जीवो का उपकार किया जा रहा है वहाँ भी यह जीव यदि यह ध्यान रख रहा है कि मैं इस पर का उपकार का काम कर रहा हूं तो भी उसने गलती की। उसने पर माना है इस शरीर को तो वह भी जड़ के काम करता है।
परमार्थतः पर के उपकार की अशक्यता―जो ज्ञानी पुरुष है वह अन्य जीवों का उपकार करके यह ध्यान मे लेता है कि मैंने किसी पर का उपकार नही किया है, किंतु अपने ही आत्मा को विषय कषायों से रोककर अपना भला किया है। कोई जीव वस्तुतः किसी पर का उपकार कर ही नही सकता है। प्रत्येक जीव अपना ही परिणमन कर पाते हैं। जो जीव वस्तुस्वरूप से अनभिज्ञ है उन्हें शांति संतोष किसी क्षण नही मिलता है क्योंकि शांति का आश्रय जो स्वयं है जिसके आलंबन से शांति प्रकट होती है, उसका पता नही है तो बाहर ही में किसी परपदार्थ में अपनी दृष्टि गड़ायेगा। होगा क्या कि पर तो पर ही है, उनमें दृष्टि अपनी रखने से बहिर्मुख बनने से स्वयं रीता हो गया। अब इसे कुछ शरण नही रहा। जो तत्त्वज्ञानी पुरुष है वे जानते हैं कि मेरा स्वरूप ही मेरा शरण है। उन्हें किसी भी पदार्थ में, वातावरण में, स्थिति में विह्वलता नही होती है। वे सर्वत्र स्वतंत्र वस्तु का स्वरूप निरखते रहते हैं।
शब्दजाल से आत्मा का असंबंध―सारा जहान यदि प्रशंसा करे, यश करे तो भी उन प्रशंसा के शब्दों से ज्ञानी के चित्त मे क्षोभ नही होता है। क्योंकि वह देख रहा है कि ये सब भाषावर्गणा के परिणमन है, इन शब्दों का मुझ आत्मा में रंच प्रवेश नही है और न कुछ परिणमन ही कर सकते हैं। ऐसी स्वतंत्रता का भान होने से यह तत्त्वज्ञानी जीव प्रशंसा के शब्दों को सुनकर भी क्षोभ नही लाता है। हर्ष भी एक क्षोभ है। जो लोग प्रशंसा सुनकर मौज मानते हैं वे बहिर्मुख बनकर कषाय कर्मकलंक अपने में बरसाते हैं,उसका फल दुर्गतियों में भ्रमण करना ही है। कौन से शब्द इस जीव का क्या कर सकेंगे ? न इस भव में ये सब सहायक है और न पर भव में सहायक है। लोग आज भी ऐसा कहा करते हैं कि पुराने जो महापुरुष हुए है कृष्ण, महावीर आदि, हम उनके शब्दों का रिकार्ड कर ले, लेकिन जो शब्द परिणत हो जाते हैं। वे दूसरी क्षण में उस पर्यायरूप मे नही रहते हैं। वे रिकार्ड कहाँ से हो सकेंगे? ऐसे ही ये शब्द जब कहने के बाद ही समाप्त हो जाते हैं। कुछ काल तक यदि ये गूँजते हैं तो उसके भी गूँजने का कारण यह है कि शब्दवर्गणा के निमित्त से अन्य वर्गणायें शब्दरूप परिणम जाती है और यों बिजली की तरह इसमें भी तरंग उत्पन्न होती है, पर यह तरंग भी बहुत समय तक कहाँ ठहर सकेगी? ये शब्द न मेरे को अभी काम देते हैं,न आगे काम देंगे।
शांति का मूल उपाय तत्त्वज्ञान―ज्ञानी तो अपने ज्ञान के प्रकाश का रूचिया है और दूसरे जन भी इस ज्ञान का प्रकाश पायें, वस्तु का जो स्वतंत्र स्वरूप हे वह सबकी दृष्टि में आए और सुखी हो जाएँ ऐसी भावना करता है। सुखी होने का मूल उपाय तत्त्वज्ञान है। अनेक उपाय कर डालिए, कितना ही धनसंचय कर लो पर धन से भी शांति नही। कितनी भी लोक में इज्जत बना लो पर इज्जत से भी शांति नही। जो-जो उपाय करना चाहें आप कर डाले, पर एक तत्त्वज्ञान के बिना सारे उपाय शांति के लिए कार्यकारी नही है। जब भी जिसे शांति मिलनी होगी इस ही मार्ग से मिलेगी, खुद को खुद के यथार्थ ज्ञान से शांति मिलेगी। भेदविज्ञान का बड़ा महत्त्व है। कोई भी विपदा हो, विपदा कुछ भी नही, परपदार्थ के परिणमन अपने मन के अनुकूल न जंचे ऐसी कल्पना करते रहना बस यही विपदा है । विपदा भी किसी तत्त्व का नाम नही है। ऐसे चाहे लौकिक विपदा के प्रसंग भी आएँ किंतु यह तत्त्वज्ञानी जीव अपने को सबसे न्यारा अमूर्त ज्ञानानंद स्वभावरूप अनुभव करता है, इसके प्रताप से उसे कभी क्लेश नही होता है। कदाचित् क्लेश माने तो यह उसके किन्ही दर्जों तक अज्ञान का ही प्रसाद हे।
आचार्यदेव का आत्मोपकार का उपदेश―आचार्य देव यहाँ यह कह रहे हैं कि तू पर का उपकार तजकर अपने उपकार में लग। यहाँ धन वैभव, इज्जत लोकसंपदा को पर कहा गया है। उनके उपकार को तज और एक अपने उपकार में लग। अपना उपकार है निज को निज पर को पर रूप से जान लेना। गुप्त ही गुप्त कल्याण होता है, दिखावट, बनावट, सजावट से कल्याण नही होता है। भेदविज्ञान की तब तक शरण गहो जब तक सर्व विकल्प समाप्त न हो जाएँ। इस जीव को यथार्थ में संकट कुछ भी नही है। आज हम आप कितनी अच्छी स्थिति में है, कीड़े, मकोड़े, पतंगों को देखो उनकी क्या दयनीय स्थिति है, अथवा मनुष्यो मेंही देखो कोई भिखारी जनों की ऐसी दयनीय स्थिति है कि जिनको कई दिनों तक भी खाने का ठिकाना नही है, उनकी अपेक्षा हम आप आज कितनी अच्छी स्थिति में है, और सबसे बडी बात तो यह है कि जैन सिद्धांत का पाना अति दुर्लभ है। जैन सिद्धांत एक ऐसे तत्त्वज्ञान का प्रकाश करता है कि जिस ज्ञान के आने पर सदा के लिए संकट काट लेने का उपाय मिलता है।
पदार्थों का स्वातंत्र्य स्वभाव―वस्तु के संबंध में जैन सिद्धांत ने एक गहरी दृष्टि से प्रतिपादन किया है। प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है। ये जो दृश्यमान पदार्थ पुद्गल स्कंध है ये एक चीज नही हैं, ये अनंत परमाणुओं का पुंज है। इनमें जो एक-एक परमाणु हे वह द्रव्य है, यो एक-एक जीव करके अनंत जीवद्रव्य है, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और एक-एक करकेअसंख्यात कालद्रव्य है। प्रत्येक पदार्थ 6 साधारण गुणों करके परिपूर्ण है। प्रत्येक पदार्थ है, अपने स्वरूप से है, पर के स्वरूप से नही है। दूसरी बात यह है। तीसरी बात―अपने में यह द्रव्यत्वगुण रखने के कारण निरंतर परिणमता रहता है। चौथी बात अपने में ही परिणमता है किसी दूसरे में नही। 5 वी बात―अपने प्रदेश से है। छठवीं बात―किसी न किसी के ज्ञान द्वारा प्रमेय है। इन 6 साधारण गुणों के वर्णन से आप यह देखेंगे कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है।
अपनी वेदना मेटने का इलाज―कोई भिखारी यदि जाड़े के दिनों में सुबह तीन चार बजे तड़के चक्कर लगाकर कपड़े माँगता है और आप लोग उसे कपड़े दे दें तो कही आप उस भिखारी का उपकार नही कर रहे हैं लेकिन व्यवहार में माना तो जा रहा है, परंतु वहाँ क्या किया जा रहा है कि उस भिखारी की स्थिति जानकर अपने कल्पना करके खुद ही दुःखी हो गए, कुछ वेदना हो गयी, ओह यह कैसा दुःखी है? ऐसी कल्पना जगने के साथ आपके हृदय मे वेदना हो गयी। उस वेदना को मिटाने का इलाज आप और क्या कर सकते हैं ? आपने अपना ही उपकार किया, उस भिखारी का कुछ उपकार नही किया। जो जीव अपने में यह निर्णय किए हुए है कि मेरा सुख, दुःख मेरे परिणमन से ही है, कोई अन्य जीव मुझमें कुछ परिणति नही बना देता है। भले ही बाहर में निमित्तनैमित्तिक संबंध है लेकिन परिणमना तो खुद की ही कला से पड़ रहा है। मैं किसी का कुछ करता भी नही हूं। जिसमें जैसी कषाय उत्पन्न होती है उस कषाय की वेदना को शांत करने का वह प्रयत्न करता है।
ऋषि संतों की कृति में आत्मोपकार का लक्ष्य―जैन सिद्धांत तो यह प्रकट कर रहा है कि ये आचार्यदेवजिन्होंने इन हितकारक ग्रंथों को लिखा है जिनको पढ़कर हम आप अपनी शक्ति के अनुसार अपना उपकार कर लेते हैं,इन आचार्यों ने भी वस्तुतः हमारा उपकार नही किया है किंतु उन्होने जो हम पामरों पर करुणा बुद्धि करके स्वयं में वेदना की थी, उन्होने भी उस वेदना को शांत करने के लिए यत्न किया है। लोग इस बात की हैरानी मानते हैं कि मैने अपने पुत्र को इतना पढ़ाया, इतना योग्य बनाया, पर आज यह मुझसे विपरीत चलता है, ऐसा लोग खेद मानते हैं किंतु तत्त्वज्ञान का उपयोग करें तो खेद नही माना जा सकता है। मैने सर्वत्र अपने मन के अनुकूल अपनी वेदना को शांत करने के लिए श्रम किया है, मैने दूसरे जीव का परमार्थतः कुछ नही किया है। अब जिसकी जो परिणति है वह अपनी परिणति कर रहा है। मेरा जो कुछ कर्तव्य है वह मुझे करना चाहिए ऐसा ज्ञानी जीव के चित्त में विवेक रहता है। इस कारण वह कभी अधीर नही होता।
समय के सदुपयोग का अनुरोध―भैया ! मनुष्य जीवन और यह श्रावककुल, जैनधर्म के सिद्धांत के श्रवण की योग्यता सब कुछ प्राप्त करके इस समय का सदुपयोग करना चाहिए। समय गुजर रहा है उम्र निकली जा रही है, मरण के निकट पहुंच रहे हैं ऐसी स्थिति में यदि सावधान न हुए तो यह होहल्ला तो सब समाप्त ही हो जायगा। तुम अपने को भविष्य में कहाँ शांत बना सकोगे? कोई यह न जाने कि हम मर गए तो आगे की क्या खबर है कि हम रहेंगे कि नही रहेंगे, कहाँ जायेंगे, दीपक है, बुझ गया फिर क्या है, ऐसी बात नही है। खुब युक्तियों से और अनुभव से सोच लो। जो भी पदार्थ सत् है उस पदार्थ का समूल विनाश कभी नही होता है, कैसे हो सकेगा विनाश ? सत्त्व कहाँ जायगा? भले ही उसका परिणमन कितने ही प्रकारों से चलता रहे किंतु उस पदार्थ का सत्त्व मूल से कभी नष्ट नही हो सकता। यह बात पूर्ण प्रमाण सिद्ध है।
अपनी चर्या―अब अपने आपके सम्ंबध में सोचिए हम वास्तव में कुछ है। अथवा नही? यदि हम कुछ नही है तो यह बड़ी खुशी की बात है। यदि हम नही है तो ये सुख दुःख किसमें होगे? फिर तो कोई क्लेश ही न रहना चाहिए। मैं हूं और जो भी मैं हूं वह कभी मिट भी नही सकता, यदि इस भव से निकल जाऊँ तो भी मैं रहूंगा। उसके लिए अपने और अन्य जीवों का परिणमन देखकर निर्णय कर लीजिए। जो जगत में जीव दीख रहे हैं वैसा मैं भी बना और फिर बन सकता हूं। मतलब यह है कि किसी न किसी देह में रहना होगा और वहां अपने ज्ञान अज्ञान के अनुकूल सुख दुःख पाना होगा। यह संपदा, ये ठाठ ये समागम कितने समय के लिए है? जो इन समागम को अपने विषयवासना मे, विषयो की पूर्ति में ही खर्च करता है, तन, मन, धन, वचन सब विषयों की पूर्ति के लिए ही खर्च किए जा रहे हैं,तो यह अपने आपके उपयोग का बड़ा दुरूपयोग है। अपने लिए तो अपने खाने के लिए, पहिनने के लिए और श्रृंगार के लिए जितनी अधिक से अधिक सात्विक वृत्ति रक्खी जायगी उतना ही भला है, और शेष जो कुछ भी समागम है यह ध्यान में रखना चाहिए कि ये सब पर के उपकार के लिए है। मुझे इन विभूतियों को विषयसाधनों में नही व्यय करना है।
स्व की सुध―विषय साधना मेरा कुछ भला नही कर सकते हैं। ये विषयो के साधनभूत समस्त परपदार्थ है, इनके लिए कहा जा रहा है कि तू परका उपकार तज दे और निज के उपकार में तत्पर रह। है आत्मन्! अज्ञान अवस्था में तूने अपने चिदानंदस्वभाव की सुध नही ली। जो आनंद का निधान सर्वोत्कृष्ट है, जिस परमपारिणामिक भाव के आलंबन से कल्याण होता है उस मंगलमय चैतन्यस्वरूप की सुध न ली जा सके और आदि परद्रव्य जो भी तुझे मिले हैं उनके संयोग में मौज माने, उनके पोषण में तू अपना ध्यान लगाये बड़े-बड़े कष्ट भी सहे, पर शरीर के आराम की ही बात तू सोचता रहे, यों पर के उपकार में रत रहे, इससे क्या सिद्धि है? अब उन शत्रु मित्र आदि परपदार्थों में आत्मीयता की कल्पना तू छोड़ दे।
सहज स्वतत्त्व का उपयोग शांतिदान में समर्थ―जो मनुष्य समस्त जीवो में उस सामान्य तत्त्व को निरख सकता है जिस तत्त्व की अपेक्षा से सब समान है, तो उसने ज्ञानप्रकाश पाया समझिये। जो इन अनंत जीवों में से यह मेरा है, यह गैर है, ऐसी बुद्धि बनाता है वह मोह के पक्ष से रंगा हुआ है। उसे शांति का मार्ग कहाँ से मिलेगा, वह तो अपनी राग वेदना को ही शांत करने का श्रम करता रहेगा, ये दृश्यमान पदार्थ तेरे कुछ नही है ओैर न तू कभी उन पदार्थों का हो सकता है। अतः विवेक ज्ञान का आश्रय कर, अपना हित सोच, शांति से कुछ रहने का यत्न तो बना, पर की और दृष्टि देने से अशांति ही होती है क्योंकि उपकार है स्वाश्रित और इस उपकार को तुमने अपनी कल्पना से बना लिया पराश्रित तो ये परपदार्थ भिन्न है, असार है अध्रुव है तब इनकी और लगा हुआ उपयोग हमें कैसे शांति का कारण बन सकता है?
आत्मध्यान का आदेश―भैया ! आत्मध्यान ही सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। एतदर्थ वस्तु का सम्यग्ज्ञान चाहिए, स्वतंत्र-स्वतंत्र स्वरूप का भान होना चाहिए और इसके लिए कर्तव्य है कि हम ज्ञानार्जन में अधिकाधिक समय दें। गुरुजनों से पढ़े, चर्चाएँ करके, ज्ञानाभ्यास करके अपना उपयोग निर्मल बनाएँ। इस प्रकार यदि ज्ञान की रूचि जगी, धर्म की रूचि बनी तो हमें शांति का कुछ मार्ग मिल सकेगा, अन्यथा बहिर्मुखी दृष्टि में तो शांति नही हो सकती। इसे इन शब्दों में कहा गया है कि है आत्मन्!तू पर के उपकार में अभी तक लगा रहा, अर्थात् तेरा जो यह शरीर है वह पर है, और तू इन देहादिक के उपकार में अभी तक जुटा रहा। इसकी और से अपने उपयोग को हटाकर ज्ञानघन आनंदनिधान अपने उपयोग को हटाकर ज्ञानघन आनंदनिधान अपने शुद्ध चिदानंदस्वरूप को निरख। इसके अनुभव में जो आनंद बसा हुआ है वह आनंद संसार में किसी भी जगह न मिल सकेगा। इस कारण अपने उपकार के लिए तत्त्वज्ञान का उपाय कर।