नियमसार - गाथा 54: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
< | <div class="PravachanText"><p><strong>सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुख चरणं।</strong></p> | ||
< | <p><strong>ववहारणिच्छयेण हु तम्हा चरणं पवक्खामि।।54।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>व्यवहार एवं निश्चयचारित्र के कथन का मर्म</strong>―सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान मोक्ष के लिए कारणभूत है, इस ही प्रकार चारित्र भी मोक्ष के लिए कारणभूत है, इस कारण व्यवहारनय से और निश्चयनय से चारित्र के स्वरूप को कहेंगे। अध्यात्मयोग में बर्त रहे ज्ञानी संत व्यवहाररूप आचरण का भी वर्णन करें तो उसमें साथ-साथ निश्चयस्वरूप का दर्शन हो ही जाता है। यों व्यवहार से जो वर्णन किया जाएगा, उस वर्णन में भी पहिले यह निरखते जाइयेगा कि इसमें मर्म की बात क्या है? जब तक निश्चय चारित्र के पोषण की दशा नहीं मिलती है, तब तक व्यवहारचारित्र वास्तविक मायने में व्यवहारचारित्र नहीं होता है। जैसे कोई भोजन बनाने में तो बड़ा श्रम करे और बनाकर उसे कूड़ा कचरा में डाल दे तो उसे व्यवहार में विवेक नहीं कहा गया है। अरे ! खाने के लिए ही तो बन रहा था। लक्ष्य बिल्कुल भूल जाए और क्या हुआ? इसका रूप ही बदल जाए तो वह फिर व्यवहारधर्म नहीं रहता।</p> | ||
<p | <p> <strong>लक्ष्यभ्रष्ट प्रवृत्ति की विडंबना पर एक दृष्टांत</strong>―कोई एक सेठ था और उसने बिरादरी को दावत दी। दो तीन मिठाइयां बनवाई और खूब छककर खिलाया; पर साथ ही एक काम और किया कि सेठ ने सोचा कि लोग मेरी ही पातल में तो खा जाते हैं और खा चुकने के बाद मेरी ही पातल में छेद करते हैं, क्योंकि दाँत कुरेदने के लिए लोग पातल से सींक निकालते हैं। तो ऐसा करें कि जहां इतना समान परोसा जा रहा है, वहाँ एक-एक सींक और परोस देंगे, ताकि लोग पातल से सींक निकालकर उसमें छेद न करें। अब एक टोकरा सींक का भरा हुआ परोसने को गया। अब कई वर्ष बाद सेठजी गुजर गए। बाद में उनके लड़कों के किसी बेटा बेटी के विवाह का अवसर आया तो लड़कों ने सोचा कि हम अपने पिता का नाम बढ़ायेंगे। जितनी तैयारी से उन्होंने पंगत थी, उससे दूनी तैयारी से करेंगे, सो वैसा ही किया। उन्होंने तीन मिठाइयां बनवाई थी, लड़कों ने छ: बनवाई। उन्होंने चार अंगुल की सींक परोसी थी, लड़कों ने 12 अंगुल की डंडी परोसी। सो जैसे बच्चों की पाटी पर लिखने वाली वर्तना होती है, वैसी ही वर्तना का टोकरा भी परोसने में चला। अब वे लड़के भी गुजर गए। अब उनके गुजरने के बाद उन लड़कों के लड़कों का नंबर आया तो उन्होंने सोचा कि हम भी अपने बाप का नाम बढ़ावेंगे। पिता ने छ: मिठाइयां बनवाई थी तो उन्होंने अपने लड़कों के विवाह में 10 मिठाइयां बनवाई। पिता ने 12 अंगुल की डंडी परोसी थी तो लड़कों ने एक-एक हाथ का डंडा परोसवा दिया। अरे ! यहाँ इन डंडों की नौबत कहां से आई? लड़कों, पोतों ने परंपरा तो वही रक्खी, जो सेठ ने रक्खी थी, पर लक्ष्य भूल गए। लक्ष्य तो इतना ही था कि दाँत कुरेदने वाली सींक मिल जाए, पर लक्ष्य भूल जाने से यह नौबत आ गई।</p> | ||
<p | <p> <strong>लक्ष्यभ्रष्ट प्रवृत्ति की विडंबना</strong>―ऐसे ही अध्यात्मरस में जो मुक्ति के लिए लक्ष्य है, वह कारणसमयसार तत्त्व है। वह दृष्टि में न रहे और दूसरे ज्ञानियों की देखादेखी ज्ञान में बढ़े और यों बढ़े कि हम तो उनसे दूना काम करेंगे। वे तो इतनी शुद्धि रखते हैं, हम इतनी शुद्धि रक्खेंगे, जो चौके में किसी की छाया तक न पड़े। वे तो एक बार ही विशेष पानी लेते थे तो हम वह भी न लेंगे। वे एक उपवास करते थे तो हम तीन करेंगे। बढ़ते जा रहे हैं ज्ञानियों की होड़ में, लक्ष्यभ्रष्ट मूढ़ पुरुष तपश्चरणों में, पर उनकी तो स्थिति यह है जैसे पोतों ने डंडा परोसने की स्थिति बनाई। विश्राम लो अपने आपमें, किसी को कुछ दिखाना नहीं है। कोई यहाँ मेरा परमात्मा नहीं बैठा है कि मैं किसी को दिखा दूं तो मेरे पर वह प्रसन्न हो जाए या कुछ रियायत कर दे, सुखी कर दे। यहाँ तो सब कुछ निर्भरता अपने आप ही है। इस कारण निश्चयचारित्र का पोषण जिस विधि से हो, उस विधि से व्यवहारचारित्र का पालना युक्त है।</p> | ||
<p | <p> <strong>प्रयोजक और प्रयोजन</strong>―भैया ! जैसे खेत बो दिया गया, अब खेत की रक्षा के लिए चारों ओर बाड़ लगाई जाती है। उस बाड़ का प्रयोजन है कि खेत की रक्षा बनी रहे, अनाज की उपज अच्छी हो। कोई पुरुष बोये कुछ नहीं और खाली खेत जोत दे या अट्टसट्ट बो दे और बाड़ी फैंसी लगा दे, बहुत सुंदर और बाड़ी-बाड़ी लगाने में ही समय लगा दे तो उसने क्या कुछ फल पाया? यों ही निश्चयचारित्र तो है बीजरूप। निश्चयचारित्र तो बोया नहीं, उसका तो बीज बनाया नहीं और व्यवहारचारित्र की बड़ी-बड़ी फैंसी लगाए, देखने में दर्शकों का मन बहुत आकर्षित हो जाए तो जैसे उस बाड़ी से उदरपूर्ति का काम नहीं बन पाएगा―ऐसे ही इस व्यवहारचारित्र में जो कि उपचारचारित्र है, उसमें शांति संतोष सहजआनंद के अनुभव का कार्य न बन जाएगा। यहाँ व्यवहारचारित्र तो प्रयोजक है व निश्चयचारित्र प्रयोजन है। इस कारण हम धर्म के लिए जो भी व्यवहाररूप कार्य करें, उससे हम इतना तो जान जायें कि इस व्यवहारचारित्र से हमको निश्चयचारित्र में लगने के लिए कितना अवकाश मिलता है?</p> | ||
<p | <p> <strong>निश्चयचारित्र से पराङ्मुख व्यवहारचारित्र की अप्रतिष्ठा</strong>―आचार्यदेव व्यवहारचारित्र का अलग अधिकार बनाकर वर्णन करेंगे, किंतु निश्चयचारित्र की पुट दिखाए बिना व्यवहारचारित्र के वर्णन में भी शोभा और शृंगार नहीं होता। अत: उस वर्णन के मध्य भी निश्चयचारित्र का संकेत मिलता जावेगा। जैसे एक मोटी बात निरख लो―विवाह शादियां होती हैं, उनमें अनेक दस्तूर कार्यक्रम होते हैं, उन सब कार्यक्रमों में एक धर्म का कार्यक्रम बिल्कुल उड़ा दें―न दूल्हा मंदिर जाए, न द्रव्य धरने जाए और किसी प्रकार का कोई धार्मिक आयोजन न हो, भांवर के काल में जो थोड़ा बहुत उपदेश दिया जाता है, सात-सात वचनों पर प्रकाश डाला जाता है, यह किसी भी प्रकार का धर्मकार्य न हो तो आप सोच लो कि वह कृत्य सब फीका हो जाएगा। यह तो एक मोटी लौकिक बात कही गई है, पर धर्म के पथ में कुछ चारित्र की प्रगति की जा रही है। वहाँ केवल मन, वचन, काय की चेष्टाओं की भरमार रहे और शुद्ध निजपरमात्मतत्त्व की दृष्टि की दिशा भी न बने तो समझ लीजिए कि वह सब श्रम मात्र होगा और अंतरंग में शांति संतोष न प्राप्त होगा। इस कारण व्यवहारचारित्र के वर्णन का संकल्प बताते हुए भी आचार्यदेव निश्चयचारित्र का साथ नहीं छोड़ रहे हैं। अत: कह रहे हैं―उसको मैं बताऊंगा अर्थात् व्यवहाररत्नत्रय और निश्चयरत्नत्रय का स्वरूप कहूंगा।</p> | ||
<p | <p> <strong>व्यवहाररत्नत्रय व निश्चयरत्नत्रय का संक्षिप्त निर्देश</strong>―व्यवहार और निश्चयरत्नत्रय का स्वरूप संक्षेप में किस प्रकार है? सो व्याख्यानों और उनके संकेतों द्वारा ज्ञात हो जायेगा। जिसे कविकर दौलतरामजी ने अपनी कविताओं में इस प्रकार लिखा है कि ‘परद्रव्यों से भिन्न निजआत्मतत्त्व में रुचि करना निश्चयसम्यग्दर्शन है और परद्रव्यों से विविक्त निजआत्मतत्त्व का परिज्ञान करना निश्चयसम्यग्ज्ञान है तथा परद्रव्यों से विविक्त इस निजआत्मतत्त्व को ही रमण करना सो निश्चयसम्यक्चारित्र है, इन तीनों निश्चयरत्नत्रयों की पुष्टि के लिए व्यवहाररत्नत्रय होता है जिसमें मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत 7 तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान् करना सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है, और इन ही सात तत्त्वों का भली प्रकार परिज्ञान करना सो व्यवहार सम्यग्ज्ञान है और निज मन, वचन, काय की क्रियावों को करते हुए में निश्चयरत्नत्रय के बाधक विषयकषायों को अवकाश न मिले, ऐसी क्रियावों का करना सो व्यवहारचारित्र है।</p> | ||
<p | <p> <strong>व्यवहाररत्नत्रय की उपयोगिता</strong>―भैया ! अहिंसाव्रत, सत्यव्रत, ब्रह्मचर्यव्रत, परिग्रह त्याग व्रत, इन त्यागवृत्ति में रहने से विषयकषायों को अवकाश नहीं मिलता है। यदि कोई इन व्रतों को धारण न करे तो उसमें वह निर्मलता ही नहीं जग सकती है जिससे कारणसमयसार प्रभु दर्शन दिया करते है। तो इस निश्चयरत्नत्रय के हम पाने के योग्य बने रहें, इतनी पात्रता बनाने के लिए यह व्यवहाररत्नत्रय समर्थ है। व्यवहाररत्नत्रय का भी उपयोग उत्तम है किंतु लक्ष्य भूल जाय तो वे समस्त व्यवहार क्रियाकांड उसके लिए गुणकारक नहीं रहते हैं। इस कारण व्यवहारचारित्र और निश्चयचारित्र दोनों प्रकार से चारित्रों के स्वरूप को समझना और उस पर अमल करना मुक्ति के लिए आवश्यक है।</p> | ||
<p> | <p><strong> </strong></p> | ||
</div> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 15: | Line 16: | ||
[[ वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 55 | अगला पृष्ठ ]] | [[ वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 55 | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - नियमसार प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | [[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - नियमसार प्रवचन अनुक्रमणिका | अनुक्रमणिका ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: नियमसार]] | [[Category: नियमसार]] | ||
[[Category: प्रवचन]] | [[Category: प्रवचन]] |
Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुख चरणं।
ववहारणिच्छयेण हु तम्हा चरणं पवक्खामि।।54।।
व्यवहार एवं निश्चयचारित्र के कथन का मर्म―सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान मोक्ष के लिए कारणभूत है, इस ही प्रकार चारित्र भी मोक्ष के लिए कारणभूत है, इस कारण व्यवहारनय से और निश्चयनय से चारित्र के स्वरूप को कहेंगे। अध्यात्मयोग में बर्त रहे ज्ञानी संत व्यवहाररूप आचरण का भी वर्णन करें तो उसमें साथ-साथ निश्चयस्वरूप का दर्शन हो ही जाता है। यों व्यवहार से जो वर्णन किया जाएगा, उस वर्णन में भी पहिले यह निरखते जाइयेगा कि इसमें मर्म की बात क्या है? जब तक निश्चय चारित्र के पोषण की दशा नहीं मिलती है, तब तक व्यवहारचारित्र वास्तविक मायने में व्यवहारचारित्र नहीं होता है। जैसे कोई भोजन बनाने में तो बड़ा श्रम करे और बनाकर उसे कूड़ा कचरा में डाल दे तो उसे व्यवहार में विवेक नहीं कहा गया है। अरे ! खाने के लिए ही तो बन रहा था। लक्ष्य बिल्कुल भूल जाए और क्या हुआ? इसका रूप ही बदल जाए तो वह फिर व्यवहारधर्म नहीं रहता।
लक्ष्यभ्रष्ट प्रवृत्ति की विडंबना पर एक दृष्टांत―कोई एक सेठ था और उसने बिरादरी को दावत दी। दो तीन मिठाइयां बनवाई और खूब छककर खिलाया; पर साथ ही एक काम और किया कि सेठ ने सोचा कि लोग मेरी ही पातल में तो खा जाते हैं और खा चुकने के बाद मेरी ही पातल में छेद करते हैं, क्योंकि दाँत कुरेदने के लिए लोग पातल से सींक निकालते हैं। तो ऐसा करें कि जहां इतना समान परोसा जा रहा है, वहाँ एक-एक सींक और परोस देंगे, ताकि लोग पातल से सींक निकालकर उसमें छेद न करें। अब एक टोकरा सींक का भरा हुआ परोसने को गया। अब कई वर्ष बाद सेठजी गुजर गए। बाद में उनके लड़कों के किसी बेटा बेटी के विवाह का अवसर आया तो लड़कों ने सोचा कि हम अपने पिता का नाम बढ़ायेंगे। जितनी तैयारी से उन्होंने पंगत थी, उससे दूनी तैयारी से करेंगे, सो वैसा ही किया। उन्होंने तीन मिठाइयां बनवाई थी, लड़कों ने छ: बनवाई। उन्होंने चार अंगुल की सींक परोसी थी, लड़कों ने 12 अंगुल की डंडी परोसी। सो जैसे बच्चों की पाटी पर लिखने वाली वर्तना होती है, वैसी ही वर्तना का टोकरा भी परोसने में चला। अब वे लड़के भी गुजर गए। अब उनके गुजरने के बाद उन लड़कों के लड़कों का नंबर आया तो उन्होंने सोचा कि हम भी अपने बाप का नाम बढ़ावेंगे। पिता ने छ: मिठाइयां बनवाई थी तो उन्होंने अपने लड़कों के विवाह में 10 मिठाइयां बनवाई। पिता ने 12 अंगुल की डंडी परोसी थी तो लड़कों ने एक-एक हाथ का डंडा परोसवा दिया। अरे ! यहाँ इन डंडों की नौबत कहां से आई? लड़कों, पोतों ने परंपरा तो वही रक्खी, जो सेठ ने रक्खी थी, पर लक्ष्य भूल गए। लक्ष्य तो इतना ही था कि दाँत कुरेदने वाली सींक मिल जाए, पर लक्ष्य भूल जाने से यह नौबत आ गई।
लक्ष्यभ्रष्ट प्रवृत्ति की विडंबना―ऐसे ही अध्यात्मरस में जो मुक्ति के लिए लक्ष्य है, वह कारणसमयसार तत्त्व है। वह दृष्टि में न रहे और दूसरे ज्ञानियों की देखादेखी ज्ञान में बढ़े और यों बढ़े कि हम तो उनसे दूना काम करेंगे। वे तो इतनी शुद्धि रखते हैं, हम इतनी शुद्धि रक्खेंगे, जो चौके में किसी की छाया तक न पड़े। वे तो एक बार ही विशेष पानी लेते थे तो हम वह भी न लेंगे। वे एक उपवास करते थे तो हम तीन करेंगे। बढ़ते जा रहे हैं ज्ञानियों की होड़ में, लक्ष्यभ्रष्ट मूढ़ पुरुष तपश्चरणों में, पर उनकी तो स्थिति यह है जैसे पोतों ने डंडा परोसने की स्थिति बनाई। विश्राम लो अपने आपमें, किसी को कुछ दिखाना नहीं है। कोई यहाँ मेरा परमात्मा नहीं बैठा है कि मैं किसी को दिखा दूं तो मेरे पर वह प्रसन्न हो जाए या कुछ रियायत कर दे, सुखी कर दे। यहाँ तो सब कुछ निर्भरता अपने आप ही है। इस कारण निश्चयचारित्र का पोषण जिस विधि से हो, उस विधि से व्यवहारचारित्र का पालना युक्त है।
प्रयोजक और प्रयोजन―भैया ! जैसे खेत बो दिया गया, अब खेत की रक्षा के लिए चारों ओर बाड़ लगाई जाती है। उस बाड़ का प्रयोजन है कि खेत की रक्षा बनी रहे, अनाज की उपज अच्छी हो। कोई पुरुष बोये कुछ नहीं और खाली खेत जोत दे या अट्टसट्ट बो दे और बाड़ी फैंसी लगा दे, बहुत सुंदर और बाड़ी-बाड़ी लगाने में ही समय लगा दे तो उसने क्या कुछ फल पाया? यों ही निश्चयचारित्र तो है बीजरूप। निश्चयचारित्र तो बोया नहीं, उसका तो बीज बनाया नहीं और व्यवहारचारित्र की बड़ी-बड़ी फैंसी लगाए, देखने में दर्शकों का मन बहुत आकर्षित हो जाए तो जैसे उस बाड़ी से उदरपूर्ति का काम नहीं बन पाएगा―ऐसे ही इस व्यवहारचारित्र में जो कि उपचारचारित्र है, उसमें शांति संतोष सहजआनंद के अनुभव का कार्य न बन जाएगा। यहाँ व्यवहारचारित्र तो प्रयोजक है व निश्चयचारित्र प्रयोजन है। इस कारण हम धर्म के लिए जो भी व्यवहाररूप कार्य करें, उससे हम इतना तो जान जायें कि इस व्यवहारचारित्र से हमको निश्चयचारित्र में लगने के लिए कितना अवकाश मिलता है?
निश्चयचारित्र से पराङ्मुख व्यवहारचारित्र की अप्रतिष्ठा―आचार्यदेव व्यवहारचारित्र का अलग अधिकार बनाकर वर्णन करेंगे, किंतु निश्चयचारित्र की पुट दिखाए बिना व्यवहारचारित्र के वर्णन में भी शोभा और शृंगार नहीं होता। अत: उस वर्णन के मध्य भी निश्चयचारित्र का संकेत मिलता जावेगा। जैसे एक मोटी बात निरख लो―विवाह शादियां होती हैं, उनमें अनेक दस्तूर कार्यक्रम होते हैं, उन सब कार्यक्रमों में एक धर्म का कार्यक्रम बिल्कुल उड़ा दें―न दूल्हा मंदिर जाए, न द्रव्य धरने जाए और किसी प्रकार का कोई धार्मिक आयोजन न हो, भांवर के काल में जो थोड़ा बहुत उपदेश दिया जाता है, सात-सात वचनों पर प्रकाश डाला जाता है, यह किसी भी प्रकार का धर्मकार्य न हो तो आप सोच लो कि वह कृत्य सब फीका हो जाएगा। यह तो एक मोटी लौकिक बात कही गई है, पर धर्म के पथ में कुछ चारित्र की प्रगति की जा रही है। वहाँ केवल मन, वचन, काय की चेष्टाओं की भरमार रहे और शुद्ध निजपरमात्मतत्त्व की दृष्टि की दिशा भी न बने तो समझ लीजिए कि वह सब श्रम मात्र होगा और अंतरंग में शांति संतोष न प्राप्त होगा। इस कारण व्यवहारचारित्र के वर्णन का संकल्प बताते हुए भी आचार्यदेव निश्चयचारित्र का साथ नहीं छोड़ रहे हैं। अत: कह रहे हैं―उसको मैं बताऊंगा अर्थात् व्यवहाररत्नत्रय और निश्चयरत्नत्रय का स्वरूप कहूंगा।
व्यवहाररत्नत्रय व निश्चयरत्नत्रय का संक्षिप्त निर्देश―व्यवहार और निश्चयरत्नत्रय का स्वरूप संक्षेप में किस प्रकार है? सो व्याख्यानों और उनके संकेतों द्वारा ज्ञात हो जायेगा। जिसे कविकर दौलतरामजी ने अपनी कविताओं में इस प्रकार लिखा है कि ‘परद्रव्यों से भिन्न निजआत्मतत्त्व में रुचि करना निश्चयसम्यग्दर्शन है और परद्रव्यों से विविक्त निजआत्मतत्त्व का परिज्ञान करना निश्चयसम्यग्ज्ञान है तथा परद्रव्यों से विविक्त इस निजआत्मतत्त्व को ही रमण करना सो निश्चयसम्यक्चारित्र है, इन तीनों निश्चयरत्नत्रयों की पुष्टि के लिए व्यवहाररत्नत्रय होता है जिसमें मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत 7 तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान् करना सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है, और इन ही सात तत्त्वों का भली प्रकार परिज्ञान करना सो व्यवहार सम्यग्ज्ञान है और निज मन, वचन, काय की क्रियावों को करते हुए में निश्चयरत्नत्रय के बाधक विषयकषायों को अवकाश न मिले, ऐसी क्रियावों का करना सो व्यवहारचारित्र है।
व्यवहाररत्नत्रय की उपयोगिता―भैया ! अहिंसाव्रत, सत्यव्रत, ब्रह्मचर्यव्रत, परिग्रह त्याग व्रत, इन त्यागवृत्ति में रहने से विषयकषायों को अवकाश नहीं मिलता है। यदि कोई इन व्रतों को धारण न करे तो उसमें वह निर्मलता ही नहीं जग सकती है जिससे कारणसमयसार प्रभु दर्शन दिया करते है। तो इस निश्चयरत्नत्रय के हम पाने के योग्य बने रहें, इतनी पात्रता बनाने के लिए यह व्यवहाररत्नत्रय समर्थ है। व्यवहाररत्नत्रय का भी उपयोग उत्तम है किंतु लक्ष्य भूल जाय तो वे समस्त व्यवहार क्रियाकांड उसके लिए गुणकारक नहीं रहते हैं। इस कारण व्यवहारचारित्र और निश्चयचारित्र दोनों प्रकार से चारित्रों के स्वरूप को समझना और उस पर अमल करना मुक्ति के लिए आवश्यक है।