भावपाहुड गाथा 63: Difference between revisions
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ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ।।६३।।<br> | |||
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येषां जीवस्वभाव: नास्ति अभाव: च सर्वथा तत्र ।<br> | |||
ते भवन्ति भिन्नदेहा: सिद्धा: वचोगोचरातीता: ।।६३।।<br> | |||
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जो जीव के सद्भाव को स्वीकारते वे जीव ही ।<br> | |||
निर्देह निर्वच और निर्मल सिद्धपद को पावते ।।६३।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> जिन भव्यजीवों के जीवनामक पदार्थ सद्भावरूप है और सर्वथा अभावरूप नहीं है, वे भव्यजीव देह से भिन्न तथा वचनगोचरातीत सिद्ध होते हैं । भावार्थ- जीव द्रव्य पर्यायस्वरूप है, कथंचित् अस्तिस्वरूप है, कथंचित् नास्तिस्वरूप है । पर्याय अनित्य है, इस जीव के कर्म के निमित्त से मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक पर्याय होती है, इसका कदाचित् अभाव देखकर जीव का सर्वथा अभाव मानते हैं । उनको सम्बोधन करने के लिए ऐसा कहा है कि जीव का द्रव्यदृष्टि से नित्य स्वभाव है । पर्याय का अभाव होने पर सर्वथा अभाव नहीं मानता है, वह देह से भिन्न होकर सिद्ध परमात्मा होता है, वे सिद्ध वचनगोचर नहीं हैं । जो देह को नष्ट होते देखकर जीव का सर्वथा नाश मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं, वे सिद्धपरमात्मा कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं होते हैं ।।६३।।<br> | ||
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Latest revision as of 10:42, 14 December 2008
आगे कहते हैं कि जो पुरुष जीव का अस्तित्व मानते हैं, वे सिद्ध होते हैं -
जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ ।
ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ।।६३।।
येषां जीवस्वभाव: नास्ति अभाव: च सर्वथा तत्र ।
ते भवन्ति भिन्नदेहा: सिद्धा: वचोगोचरातीता: ।।६३।।
जो जीव के सद्भाव को स्वीकारते वे जीव ही ।
निर्देह निर्वच और निर्मल सिद्धपद को पावते ।।६३।।
अर्थ - जिन भव्यजीवों के जीवनामक पदार्थ सद्भावरूप है और सर्वथा अभावरूप नहीं है, वे भव्यजीव देह से भिन्न तथा वचनगोचरातीत सिद्ध होते हैं । भावार्थ- जीव द्रव्य पर्यायस्वरूप है, कथंचित् अस्तिस्वरूप है, कथंचित् नास्तिस्वरूप है । पर्याय अनित्य है, इस जीव के कर्म के निमित्त से मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक पर्याय होती है, इसका कदाचित् अभाव देखकर जीव का सर्वथा अभाव मानते हैं । उनको सम्बोधन करने के लिए ऐसा कहा है कि जीव का द्रव्यदृष्टि से नित्य स्वभाव है । पर्याय का अभाव होने पर सर्वथा अभाव नहीं मानता है, वह देह से भिन्न होकर सिद्ध परमात्मा होता है, वे सिद्ध वचनगोचर नहीं हैं । जो देह को नष्ट होते देखकर जीव का सर्वथा नाश मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं, वे सिद्धपरमात्मा कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं होते हैं ।।६३।।