भावपाहुड गाथा 79: Difference between revisions
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> जिसका चित्त इन्द्रियों के विषयों से विरक्त है ऐसा श्रमण अर्थात् मुनि है वह सोलहकारण भावना को भाकर `तीर्थंकर' नाम प्रकृति को थोड़े ही समय में बाँध लेता है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> यह भाव का माहात्म्य है (सर्वज्ञ वीतराग कथित तत्त्वज्ञान सहित - स्वसन्मुखता सहित) विषयों से विरक्त भाव होकर सोलहकारण भावना भावे तो, अचिंत्य है महिमा जिसकी ऐसी तीनलोक से पूज्य `तीर्थंकर' नाम प्रकृति को बांधता है और उसको भोगकर मोक्ष को प्राप्त होता है । ये सोलहकारण भावना के नाम हैं - १. दर्शनविशुद्धि, २. विनयसंपन्नता, ३. शीलव्रतेष्व- नतिचार, ४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५. संवेग, ६. शक्तितस्त्याग, ७. शक्तितस्तप, ८. साधुसमाधि, ९. वैयावृत्त्यकरण, १०. अर्हद्भक्ति, ११. आचार्यभक्ति, १२. बहुश्रुतभक्ति, १३. प्रवचनभक्ति, १४. आवश्यकापरिहाणि, १५. सन्मार्गप्रभावना, १६. प्रवचनवात्सल्य - इसप्रकार सोलह भावना हैं । इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र की टीका से जानिये । इनमें सम्यग्दर्शन प्रधान है, यह न हो और पन्द्रह भावना का व्यवहार हो तो कार्यकारी नहीं है और यह हो तो पन्द्रह भावना का कार्य यही करले, इसप्रकार जानना चाहिए ।।७९।।<br> | ||
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Latest revision as of 10:54, 14 December 2008
आगे कहते हैं कि जिनशासन में ऐसा मुनि ही तीर्थंकर प्रकृति बाँधता है -
विसयविरत्तो समणो छद्दसवरकारणाइं भाऊण ।
तित्थयरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण ।।७९।।
विसयविरक्त: श्रमण: षोडशवरकारणानि भावयित्वा ।
तीर्थंकरनामकर्म बध्नाति अचिरेण कालेन ।।७९।।
जो श्रमण विषयों से विरत वे सोलहकारणभावना ।
भा तीर्थंकर नामक प्रकृति को बाँधते अतिशीघ्र ही ।।७९।।
अर्थ - जिसका चित्त इन्द्रियों के विषयों से विरक्त है ऐसा श्रमण अर्थात् मुनि है वह सोलहकारण भावना को भाकर `तीर्थंकर' नाम प्रकृति को थोड़े ही समय में बाँध लेता है ।
भावार्थ - यह भाव का माहात्म्य है (सर्वज्ञ वीतराग कथित तत्त्वज्ञान सहित - स्वसन्मुखता सहित) विषयों से विरक्त भाव होकर सोलहकारण भावना भावे तो, अचिंत्य है महिमा जिसकी ऐसी तीनलोक से पूज्य `तीर्थंकर' नाम प्रकृति को बांधता है और उसको भोगकर मोक्ष को प्राप्त होता है । ये सोलहकारण भावना के नाम हैं - १. दर्शनविशुद्धि, २. विनयसंपन्नता, ३. शीलव्रतेष्व- नतिचार, ४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५. संवेग, ६. शक्तितस्त्याग, ७. शक्तितस्तप, ८. साधुसमाधि, ९. वैयावृत्त्यकरण, १०. अर्हद्भक्ति, ११. आचार्यभक्ति, १२. बहुश्रुतभक्ति, १३. प्रवचनभक्ति, १४. आवश्यकापरिहाणि, १५. सन्मार्गप्रभावना, १६. प्रवचनवात्सल्य - इसप्रकार सोलह भावना हैं । इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र की टीका से जानिये । इनमें सम्यग्दर्शन प्रधान है, यह न हो और पन्द्रह भावना का व्यवहार हो तो कार्यकारी नहीं है और यह हो तो पन्द्रह भावना का कार्य यही करले, इसप्रकार जानना चाहिए ।।७९।।