भावपाहुड गाथा 109: Difference between revisions
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इति ज्ञात्वा क्षमागुण! क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान् ।<br> | |||
चिरसंचितक्रोधशिखिनं वरक्षमासलिलेन सिंच ।।१०९।।<br> | |||
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यह जानकर हे क्षमागुणमुनि ! मन-वचन अर काय से ।<br> | |||
सबको क्षमा कर बुझा दो क्रोधादि क्षमास्वभाव से ।।१०९।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> हे | <p><b> अर्थ - </b> हे क्षमागुण मुने ! (जिसके क्षमागुण है ऐसे मुनि का संबोधन है) इति अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार क्षमागुण को जान और सब जीवों को पर मन वचन काय से क्षमा कर तथा बहुत काल से संचित क्रोधरूपी अग्नि को क्षमारूप जल से सींच अर्थात् शमन कर । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> क्रोधरूपी अग्नि पुरुष के भले, गुणों को दग्ध करनेवाली है और परजीवों का घात करनेवाली है इसलिए इसको क्षमारूप जल से बुझाना, अन्य प्रकार यह बुझती नहीं है और क्षमा गुण सब गुणों में प्रधान है । इसलिए यह उपदेश है कि क्रोध को छोड़कर क्षमा ग्रहण करना ।।१०९।।<br> | ||
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Latest revision as of 11:18, 14 December 2008
आगे ऐसे क्षमागुण को जानकर क्षमा करना और क्रोध छोड़ना ऐसा कहते हैं -
इय णाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयल जीवाणं ।
चिरसंचियकोहसिहिं वरखमसलिलेण सिंचेह ।।१०९।।
इति ज्ञात्वा क्षमागुण! क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान् ।
चिरसंचितक्रोधशिखिनं वरक्षमासलिलेन सिंच ।।१०९।।
यह जानकर हे क्षमागुणमुनि ! मन-वचन अर काय से ।
सबको क्षमा कर बुझा दो क्रोधादि क्षमास्वभाव से ।।१०९।।
अर्थ - हे क्षमागुण मुने ! (जिसके क्षमागुण है ऐसे मुनि का संबोधन है) इति अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार क्षमागुण को जान और सब जीवों को पर मन वचन काय से क्षमा कर तथा बहुत काल से संचित क्रोधरूपी अग्नि को क्षमारूप जल से सींच अर्थात् शमन कर ।
भावार्थ - क्रोधरूपी अग्नि पुरुष के भले, गुणों को दग्ध करनेवाली है और परजीवों का घात करनेवाली है इसलिए इसको क्षमारूप जल से बुझाना, अन्य प्रकार यह बुझती नहीं है और क्षमा गुण सब गुणों में प्रधान है । इसलिए यह उपदेश है कि क्रोध को छोड़कर क्षमा ग्रहण करना ।।१०९।।