भावपाहुड गाथा 115: Difference between revisions
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जाव ण भावइ तच्चं जाव ण चिंतेइ चिंतणीयाइं ।<br> | |||
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यावन्न भावयति तत्त्वं यावन्न चिंतयति चिंतनीयानि ।<br> | |||
तावन्न प्राप्नोति जीव: जरामरणविवर्जितं स्थानम् ।।११५।।<br> | |||
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भावों निरन्तर बिना इसके चिन्तवन अर ध्यान के ।<br> | |||
जरा-मरण से रहित सुखमय मुक्ति की प्राप्ति नहीं ।।११५।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> हे मुने ! जबतक यह जीवादि तत्त्वों को नहीं भाता है और चिन्तन करने योग्य का चिन्तन नहीं करता है तबतक जरा और मरण से रहित मोक्ष स्थान को नहीं पाता है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> तत्त्व की भावना तो पहिले कही वह चिन्तन करने योग्य धर्मशुक्लध्यान विषयभूत जो ध्येय वस्तु अपने शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतनाभाव और ऐसा ही अरहंत सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप उसका चिन्तन जबतक इस आत्मा के न हो तबतक संसार से निवृत्त होना नहीं है, इसलिए तत्त्व की भावना और शुद्धस्वरूप के ध्यान का उपाय निरन्तर रखना - यह उपदेश है ।।११५।।<br> | ||
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Latest revision as of 11:23, 14 December 2008
आगे कहते हैं कि ऐसे तत्त्व की भावना जबतक नहीं है तब तक मोक्ष नहीं है -
जाव ण भावइ तच्चं जाव ण चिंतेइ चिंतणीयाइं ।
ताव ण पावइ जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ।।११५।।
यावन्न भावयति तत्त्वं यावन्न चिंतयति चिंतनीयानि ।
तावन्न प्राप्नोति जीव: जरामरणविवर्जितं स्थानम् ।।११५।।
भावों निरन्तर बिना इसके चिन्तवन अर ध्यान के ।
जरा-मरण से रहित सुखमय मुक्ति की प्राप्ति नहीं ।।११५।।
अर्थ - हे मुने ! जबतक यह जीवादि तत्त्वों को नहीं भाता है और चिन्तन करने योग्य का चिन्तन नहीं करता है तबतक जरा और मरण से रहित मोक्ष स्थान को नहीं पाता है ।
भावार्थ - तत्त्व की भावना तो पहिले कही वह चिन्तन करने योग्य धर्मशुक्लध्यान विषयभूत जो ध्येय वस्तु अपने शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतनाभाव और ऐसा ही अरहंत सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप उसका चिन्तन जबतक इस आत्मा के न हो तबतक संसार से निवृत्त होना नहीं है, इसलिए तत्त्व की भावना और शुद्धस्वरूप के ध्यान का उपाय निरन्तर रखना - यह उपदेश है ।।११५।।