भावपाहुड गाथा 130: Difference between revisions
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आगे | आगे कहते हैं कि जो भावश्रमण हैं, वे देवादिक की ऋद्धि देखकर मोह को प्राप्त नहीं होते हैं- <p class="PrakritGatha"> | ||
<p class="PrakritGatha"> | इडि्ढतुलं विउव्विय किण्णरकिंपुरिसअमरखयरेहिं ।<br> | ||
तेहिं वि ण जाइ मोहं जिणभावणभाविओ धीरो ।।१३०।।<br> | |||
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ऋद्धिमतुलां विकुर्वद्भि: किंनरकिंपुरुषामरखचरै: ।<br> | |||
तैरपि न याति मोहं जिनभावनाभावित: धीर: ।।१३०।।<br> | |||
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जो धीर हैं गम्भीर हैं जिन भावना से सहित हैं ।<br> | |||
वे ऋद्धियों में मुग्ध न हों अमर विद्याधरों की ।।१३०।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> जिनभावना (सम्यक्त्व भावना) से वासित जीव किंनर, किंपुरुष, देव, कल्पवासी देव और विद्याधर इनसे विक्रियारूप विस्तार की गई अतुल ऋद्धियों से मोह को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव कैसा है ? धीर है, दृढ़बुद्धि है अर्थात् नि:शंकित अंग का धारक है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> जिसके जिनसम्यक्त्व दृढ़ है उसके संसार की ऋद्धि तृणवत् है, उनके तो परमार्थसुख की भावना है, विनाशीक ऋद्धि की वांछा क्यों हो ? ।।१३०।।<br> | ||
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Latest revision as of 11:35, 14 December 2008
आगे कहते हैं कि जो भावश्रमण हैं, वे देवादिक की ऋद्धि देखकर मोह को प्राप्त नहीं होते हैं-
इडि्ढतुलं विउव्विय किण्णरकिंपुरिसअमरखयरेहिं ।
तेहिं वि ण जाइ मोहं जिणभावणभाविओ धीरो ।।१३०।।
ऋद्धिमतुलां विकुर्वद्भि: किंनरकिंपुरुषामरखचरै: ।
तैरपि न याति मोहं जिनभावनाभावित: धीर: ।।१३०।।
जो धीर हैं गम्भीर हैं जिन भावना से सहित हैं ।
वे ऋद्धियों में मुग्ध न हों अमर विद्याधरों की ।।१३०।।
अर्थ - जिनभावना (सम्यक्त्व भावना) से वासित जीव किंनर, किंपुरुष, देव, कल्पवासी देव और विद्याधर इनसे विक्रियारूप विस्तार की गई अतुल ऋद्धियों से मोह को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव कैसा है ? धीर है, दृढ़बुद्धि है अर्थात् नि:शंकित अंग का धारक है ।
भावार्थ - जिसके जिनसम्यक्त्व दृढ़ है उसके संसार की ऋद्धि तृणवत् है, उनके तो परमार्थसुख की भावना है, विनाशीक ऋद्धि की वांछा क्यों हो ? ।।१३०।।