भावपाहुड गाथा 134: Difference between revisions
From जैनकोष
(New page: आगे उस दया ही का उपदेश करते हैं -<br> <p class="PrakritGatha"> जीवाणमभयदाणं देहि मुणी पाणि...) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
आगे | आगे कहते हैं कि जीव का तथा उपदेश करनेवालों का स्वरूप जाने बिना सब जीवों के प्राणों का आहार किया इसप्रकार दिखाते हैं -<br> | ||
<p class="PrakritGatha"> | <p class="PrakritGatha"> | ||
दसविहपाणाहारो अणंतभवसायरे भमंतेण ।<br> | |||
भोयसुहकारणट्ठं कदो य तिविहेण सयलजीवाणं ।।१३४।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p class="SanskritGatha"> | <p class="SanskritGatha"> | ||
दशविधप्राणाहार: अनन्तभवसायरे भ्रता ।<br> | |||
भोगसुखकारणार्थं कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानां ।।१३४।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p class="HindiGatha"> | <p class="HindiGatha"> | ||
भवभ्रमण करते आजतक मन-वचन एवं काय से ।<br> | |||
दश प्राणों का भोजन किया निज पेट भरने के लिये ।।१३४।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p><b> अर्थ - </b> हे मुने ! जीवों | <p><b> अर्थ - </b> हे मुने ! तूने अनंतभवसागर में भ्रमण करते हुए, सकल त्रस, स्थावर जीवों के दश प्रकार के प्राणों का आहार, भोग सुख के कारण के लिए मन, वचन, काय से किया । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> अनादिकाल से जिनमत के उपदेश के बिना अज्ञानी होकर तूने त्रस-स्थावर जीवों के प्राणों का आहार किया, इसलिए अब जीवों का स्वरूप जानकर जीवों की दया पाल, भोगाभिलाष छोड़, यह उपदेश है ।।१३४।।<br> | ||
</p> | </p> | ||
[[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | [[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | ||
[[Category:अष्टपाहुड]] | [[Category:अष्टपाहुड]] | ||
[[Category:भावपाहुड]] | [[Category:भावपाहुड]] |
Latest revision as of 11:38, 14 December 2008
आगे कहते हैं कि जीव का तथा उपदेश करनेवालों का स्वरूप जाने बिना सब जीवों के प्राणों का आहार किया इसप्रकार दिखाते हैं -
दसविहपाणाहारो अणंतभवसायरे भमंतेण ।
भोयसुहकारणट्ठं कदो य तिविहेण सयलजीवाणं ।।१३४।।
दशविधप्राणाहार: अनन्तभवसायरे भ्रता ।
भोगसुखकारणार्थं कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानां ।।१३४।।
भवभ्रमण करते आजतक मन-वचन एवं काय से ।
दश प्राणों का भोजन किया निज पेट भरने के लिये ।।१३४।।
अर्थ - हे मुने ! तूने अनंतभवसागर में भ्रमण करते हुए, सकल त्रस, स्थावर जीवों के दश प्रकार के प्राणों का आहार, भोग सुख के कारण के लिए मन, वचन, काय से किया ।
भावार्थ - अनादिकाल से जिनमत के उपदेश के बिना अज्ञानी होकर तूने त्रस-स्थावर जीवों के प्राणों का आहार किया, इसलिए अब जीवों का स्वरूप जानकर जीवों की दया पाल, भोगाभिलाष छोड़, यह उपदेश है ।।१३४।।