भावपाहुड गाथा 157: Difference between revisions
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विषयमकरधरपतिता: भव्या: उत्तारिता: यै: ।।१५७।।<br> | |||
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विषय सागर में पड़े भवि ज्ञान-दर्शन करों से ।<br> | |||
जिनने उतारे पार जग में धन्य हैं भगवंत वे ।।१५७ ।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> जिन सत्पुरुषों ने विषयरूप मकरधर (समुद्र) में पड़े हुए भव्यजीवों को दर्शन और ज्ञानरूपी मुख्य दोनों हाथों से पार उतार दिये, वे मुनिप्रधान भगवान् इन्द्रादिक से पूज्य ज्ञानी धन्य हैं । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> इस संसार-समुद्र से आप तिरे और दूसरों को तिरा देवें उन मुनियों को धन्य है । धनादिक सामग्रीसहित को `धन्य' कहते हैं, वह तो `कहने के लिए धन्य' हैं ।।१५७।।<br> | ||
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Latest revision as of 11:57, 14 December 2008
आगे कहते हैं कि आप दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप होते हैं, वे अन्य को भी उन सहित करते हैं, उनको धन्य है -
धण्णा ते भगवंता दंसणणाणग्गपवरहत्थेहिं ।
विसयमयरहरपडिया भविया उत्तारिया जेहिं ।।१५७।।
ते धन्या: भगवंत: दर्शनज्ञानाग्रप्रवरहस्तै: ।
विषयमकरधरपतिता: भव्या: उत्तारिता: यै: ।।१५७।।
विषय सागर में पड़े भवि ज्ञान-दर्शन करों से ।
जिनने उतारे पार जग में धन्य हैं भगवंत वे ।।१५७ ।।
अर्थ - जिन सत्पुरुषों ने विषयरूप मकरधर (समुद्र) में पड़े हुए भव्यजीवों को दर्शन और ज्ञानरूपी मुख्य दोनों हाथों से पार उतार दिये, वे मुनिप्रधान भगवान् इन्द्रादिक से पूज्य ज्ञानी धन्य हैं ।
भावार्थ - इस संसार-समुद्र से आप तिरे और दूसरों को तिरा देवें उन मुनियों को धन्य है । धनादिक सामग्रीसहित को `धन्य' कहते हैं, वह तो `कहने के लिए धन्य' हैं ।।१५७।।