| <p> प्रमाण के द्वारा जाने हुए तत्त्वों का अज्ञान । इसी से मिथ्यात्व का शमन होता है । यह औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का होता है । रुचि के भेद से इससे दस भेद भी होते है― आज्ञा, मार्ग, उपदेशोत्थ, सूत्रसमुद्भव, बीजसमुद्भव, संक्षेपज, विस्तारज, अर्थज, अवगाढ़ और परमावगाढ़ । यह निसर्गज और अधिगमज इन दो प्रकारों का भी होता है । यह दर्शनमोह के क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम से होता है । इसकी प्राप्ति के लिए देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और पाखण्डिमूढ़ता का त्याग कर नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये आठ अंग धारण किये जाते हैं । प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये चार इसके गुण तथा श्रद्धा रुचि, स्पर्श और प्रत्यय इसके पर्याय (अपरनाम) है । तीन मूढ़ता, आठ मद, छ: अनायतन और शंकादि आठ दोषों सहित इसमें पच्चीस दोषों का त्याग किया जाता है । प्रशम, संवेग, स्थिरता, अमूढ़ता, गर्व न करना, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये सात इसकी भावनाएँ है । इन भावनाओं से इसे शुद्ध रखा जाता है । शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि-प्रशंसा और दोषारोपण करना ये पांच इसके अतिचार है । यह देशना, काललब्घि आदि बहिरंग कारण तथा कारणलब्धि रूप अन्तरंग कारणों के होने पर ही भव्य प्राणियों को प्राप्त होता है । ज्ञान और चारित्र का यह बीच है । इसी से ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं । यह मोक्ष का प्रथम सोपान है । जो पाँचों अतिचारों से दूर हैं वे गृहस्थों में प्रधान पद पाते हैं । वे उत्कृष्टत: सात-आठ भवों में और जघन्य रूप से दो-तीन भवों में मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार सच्चे देव, शास्त्र और समीचीन पदार्थों का प्रसन्नतापूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । महापुराण 9.116, 122-124, 131, 21. 97, 24.117, 47. 304-305, 74.339-340 पद्मपुराण 14.217-218, 18.49-50, 47.10, 58.20, पांडवपुराण 23.61, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.11-12, 19, 141-142</p>
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