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| <p id="1"> (1) मृत्यु के कारण (रोगादि) उपस्थित होने पर बहिरंग में शरीर को और अन्तरंग में कषायों को कृश करना । गृहस्थधर्म का पालन करते हुए जो ऐसा मरण करता है वह देव होता है तथा स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्य पर्याय पाता है । ऐसा जीव अधिक से अधिक आठ भवो में निर्ग्रन्थ होकर सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है । इसके तीन भेद है― भक्तप्रत्याख्यान (भोजन-पान को घटाना), इगिनीमरण (अपने शरीर की स्वयं सेवा करना) और प्रायोपगमनस्वकृत और परकृत दोनों प्रकार के उपचारों की इच्छा नहीं करना । महापुराण 5.233-234 पद्मपुराण 14.203-204, हरिवंशपुराण 58.160</p>
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| <p id="2">(2) चार शिक्षाव्रतों में चौथा शिक्षाव्रत-आयु का क्षय उपस्थित होने पर सल्लेखना धारण करना । पद्मपुराण 14.199</p>
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