अज्ञानी: Difference between revisions
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<ul><li><span class="GRef">(ज्ञानार्णव - श्लोक 1532)</span></li></ul> | |||
<p class="SanskritText">अलौकिकमहो वृत्तं ज्ञानिन: केन वर्ण्यते। | |||
अज्ञानी बध्यते यत्र ज्ञानी तत्रैव मुच्यते।।1532।।</p> | |||
<p class="HindiText">कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष का बहुत अलौकिक चारित्र है। जिसका कौन वर्णन कर सकता है? जिस आचरण में अज्ञानी कर्मों से बंध जाता है उसी आचरण में ज्ञानी बंध से छूट जाता है। यह बड़े आश्चर्य की बात है। जैसे भोग और उपभोग में अज्ञानी को ममता है तो भोग और उपभोग करता हुआ यह अज्ञानी जीव बंध जाता है और ज्ञानी को भोग और उपभोग से अरुचि है, वैराग्य है, चाहता नहीं है सो कदाचित भोगोपभोग आ जायें तो उसमें पूर्वकृत कर्म खिरते है, नवीन कर्म नहीं बंधते हैं। चेष्टा एक सी है पर ज्ञानी पुरुष कर्मों से नहीं बंधता हे और अज्ञानी पुरुष कर्मों से बंध जाता है। ज्ञानी ने अपने आपका अनुभव किया है जिस अनुभव के प्रसाद से ज्ञानी जीव जागरूक रहता है, अपने में सावधान रहता है और कर्मों से नहीं बंधता। यह सब सम्यक्त्व का प्रताप है।</p> | |||
<ul><li><span class="GRef">(योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 270)</span></li></ul> | |||
<p class="SanskritText">अज्ञानी बध्यते यत्र सेव्यमानेsक्षगोचरे । | |||
तत्रैव मुच्यते ज्ञानी पश्यताश्चर्य ीदृशम्।।२७०।।</p> | |||
<p class="SanskritText">अन्वय :- अक्षगोचरे सेव्यमाने यत्र अज्ञानी बध्यते तत्र एव ज्ञानी (बन्धत:) मुच्यते ईदृशं आश्चर्यं पश्यत ।</p> | |||
<p class="HindiText">सरलार्थ :- स्पर्शादि इंद्रिय-विषयों के सेवन करने पर जहाँ अज्ञानी/मिथ्यादृष्टि कर्म-बन्ध को प्राप्त होते हैं, वहाँ ज्ञानी/सम्यग्दृष्टि उसी स्पर्शादि इंद्रिय-विषय के सेवन से कर्म-बन्धन से छूटते हैं अर्थात् कर्मो की निर्जरा करते हैं, इस आश्चर्य को देखो । </p> | |||
<ul><li><span class="GRef">(मोक्षपाहुड गाथा 69)</span></li></ul> | |||
<p class="SanskritText">परमाणुप्रमाणं वा परद्रव्ये रतिर्भवति मोहात् । | |||
स: मूढ़: अज्ञानी आत्मस्वभात् विपरीत: ।।६९।।</p> | |||
<p class="HindiText">अर्थ - जिस पुरुष के परद्रव्य में परमाणु प्रमाण भी लेशमात्र मोह से रति अर्थात् राग-प्रीति हो तो वह पुरुष मूढ़ है, अज्ञानी है, आत्मस्वभाव से विपरीत है ।</P> | |||
<p class="HindiText">भावार्थ - भेदविज्ञान होने के बाद जीव-अजीव को भिन्न जाने, तब परद्रव्य को अपना न जाने तब उससे (कर्तव्यबुद्धि-स्वामित्वबुद्धि की भावना से) राग भी नहीं होता है यदि (ऐसा) हो तो जानो कि इसने स्व-पर का भेद नहीं जाना है, अज्ञानी है, आत्मस्वभाव से प्रतिकूल है और ज्ञानी होने के बाद चारित्रमोह का उदय रहता है जबतक कुछ राग रहता है उसको कर्मजन्य अपराध मानता है, उस राग से राग नहीं है, इसलिए विरक्त ही है, अत: ज्ञानी परद्रव्य से रागी नहीं कहलाता है, इसप्रकार जानना ।।६९।।</p> | |||
<ul><li><p class="HindiText"> देखें [[ मिथ्यादृष्टि ]]।</li></ul></p> | |||
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Latest revision as of 12:31, 10 December 2022
- (ज्ञानार्णव - श्लोक 1532)
अलौकिकमहो वृत्तं ज्ञानिन: केन वर्ण्यते। अज्ञानी बध्यते यत्र ज्ञानी तत्रैव मुच्यते।।1532।।
कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष का बहुत अलौकिक चारित्र है। जिसका कौन वर्णन कर सकता है? जिस आचरण में अज्ञानी कर्मों से बंध जाता है उसी आचरण में ज्ञानी बंध से छूट जाता है। यह बड़े आश्चर्य की बात है। जैसे भोग और उपभोग में अज्ञानी को ममता है तो भोग और उपभोग करता हुआ यह अज्ञानी जीव बंध जाता है और ज्ञानी को भोग और उपभोग से अरुचि है, वैराग्य है, चाहता नहीं है सो कदाचित भोगोपभोग आ जायें तो उसमें पूर्वकृत कर्म खिरते है, नवीन कर्म नहीं बंधते हैं। चेष्टा एक सी है पर ज्ञानी पुरुष कर्मों से नहीं बंधता हे और अज्ञानी पुरुष कर्मों से बंध जाता है। ज्ञानी ने अपने आपका अनुभव किया है जिस अनुभव के प्रसाद से ज्ञानी जीव जागरूक रहता है, अपने में सावधान रहता है और कर्मों से नहीं बंधता। यह सब सम्यक्त्व का प्रताप है।
- (योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 270)
अज्ञानी बध्यते यत्र सेव्यमानेsक्षगोचरे । तत्रैव मुच्यते ज्ञानी पश्यताश्चर्य ीदृशम्।।२७०।।
अन्वय :- अक्षगोचरे सेव्यमाने यत्र अज्ञानी बध्यते तत्र एव ज्ञानी (बन्धत:) मुच्यते ईदृशं आश्चर्यं पश्यत ।
सरलार्थ :- स्पर्शादि इंद्रिय-विषयों के सेवन करने पर जहाँ अज्ञानी/मिथ्यादृष्टि कर्म-बन्ध को प्राप्त होते हैं, वहाँ ज्ञानी/सम्यग्दृष्टि उसी स्पर्शादि इंद्रिय-विषय के सेवन से कर्म-बन्धन से छूटते हैं अर्थात् कर्मो की निर्जरा करते हैं, इस आश्चर्य को देखो ।
- (मोक्षपाहुड गाथा 69)
परमाणुप्रमाणं वा परद्रव्ये रतिर्भवति मोहात् । स: मूढ़: अज्ञानी आत्मस्वभात् विपरीत: ।।६९।।
अर्थ - जिस पुरुष के परद्रव्य में परमाणु प्रमाण भी लेशमात्र मोह से रति अर्थात् राग-प्रीति हो तो वह पुरुष मूढ़ है, अज्ञानी है, आत्मस्वभाव से विपरीत है ।
भावार्थ - भेदविज्ञान होने के बाद जीव-अजीव को भिन्न जाने, तब परद्रव्य को अपना न जाने तब उससे (कर्तव्यबुद्धि-स्वामित्वबुद्धि की भावना से) राग भी नहीं होता है यदि (ऐसा) हो तो जानो कि इसने स्व-पर का भेद नहीं जाना है, अज्ञानी है, आत्मस्वभाव से प्रतिकूल है और ज्ञानी होने के बाद चारित्रमोह का उदय रहता है जबतक कुछ राग रहता है उसको कर्मजन्य अपराध मानता है, उस राग से राग नहीं है, इसलिए विरक्त ही है, अत: ज्ञानी परद्रव्य से रागी नहीं कहलाता है, इसप्रकार जानना ।।६९।।
देखें मिथ्यादृष्टि ।