असिद्ध हेत्वाभास: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(8 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<span class="GRef">परीक्षामुख परिच्छेद 6/22 </span> <p class="SanskritText">असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः ॥22॥</p> | |||
<p>= जिसकी | <p class="HindiText">= जिसकी सत्ता का पक्ष में अभाव हो और निश्चय न हो उसे असिद्ध कहते हैं।</p> | ||
< | <span class="GRef">न्यायविनिश्चय/2/197/226/</span> <p class="SanskritText">तथा साध्ये सत्यसति च यस्यासिद्धिरसौ असिद्धो नाम।</p> | ||
<p>= | <p class="HindiText">= साध्य के होने पर अथवा न होने पर जिसकी सिद्धि नहीं होती, वह हेतु असिद्ध कहलाता है।</p> | ||
< | <span class="GRef">न्यायदीपिका अधिकार 3/$40/86</span> <p class="SanskritText">`अनिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्धः, यथा अनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वात् अत्र हि चाक्षुषत्वं हेतु पक्षीकृते शब्दे न वर्त्तते श्रावणत्वाच्छब्दस्य। तथा च पक्षधर्मविरहादसिद्धत्वं चाक्षुषत्वस्य।</p> | ||
<p>= | <p class="HindiText">= पक्ष में जिनका रहना अनिश्चित हो वह असिद्ध हेत्वाभास है। जैसे - `शब्द अनित्य है, क्योंकि इंद्रिय से जाना जाता है'। यहाँ `चक्षु इंद्रिय से जाना जाता है' यह हेतु पक्ष भूत शब्द में नहीं रहता है। कारण, शब्द श्रोतेंद्रिय से जाना जाता है। इसलिए पक्षधर्मत्व के न होने से `चक्षु इंद्रिय से जाना जाना' हेतु असिद्ध हेत्वाभास है।</p> | ||
<p>( न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100/2)</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef">( न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100/2)</span></p> | ||
<p>2. असिद्ध | <p class="HindiText"><b>2. असिद्ध हेत्वाभास के भेद</b></p> | ||
< | <span class="GRef">परीक्षामुख परिच्छेद 6/24,26</span> <p class="SanskritText">स्वरूपेणासत्त्वात् ॥24॥ संदेहात् ॥26॥</p> | ||
<p>= असिद्ध हेतवाभास दो प्रकार होता है - स्वरूपासिद्ध और संदिग्धासिद्ध। </p> | <p class="HindiText">= असिद्ध हेतवाभास दो प्रकार होता है - स्वरूपासिद्ध और संदिग्धासिद्ध। </p> | ||
<p>( न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100)</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef">( न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100)</span></p> | ||
< | <span class="GRef">न्यायविनिश्चय/वृत्ति 2/197/226/5</span> <p class="SanskritText"> स तु अनेकधा चायम्-अज्ञात-संदिग्ध-स्वरुपाश्रयाप्रतिज्ञार्थैकदेशासिद्धविकल्पात्।</p> | ||
<p>= वह असिद्ध हेत्वाभास अनेक | <p class="HindiText">= वह असिद्ध हेत्वाभास अनेक प्रकार का है-अज्ञात, संदिग्ध, स्वरूप, आश्रय, प्रतिज्ञार्थ, एकदेश असिद्ध।</p> | ||
<p>3. स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास</p> | <p class="HindiText"><b>3. स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास</b></p> | ||
< | <span class="GRef">परीक्षामुख परिच्छेद 6/23-24</span> <p class="SanskritText">अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात् ॥23॥ स्वरूपेणासत्त्वात् ॥24॥</p> | ||
<p>= `शब्द परिणामी है, क्योंकि यह | <p class="HindiText">= `शब्द परिणामी है, क्योंकि यह आँख से देखा जाता है।' यह अविद्यमानसत्ताक अर्थात् स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है।</p> | ||
<p>( न्यायदीपिका अधिकार 3/$40/86) ( न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100)</p> | <p><span class="GRef">( न्यायदीपिका अधिकार 3/$40/86)</span> <span class="GRef">( न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100)</span></p> | ||
< | <span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ वृत्ति 2/197/226/11</span> <p class="SanskritText">स्वरूपासिद्धो यथा “सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धियोः” इत्यत्र यदि युगपदुपलम्भनियमो हेत्वर्थः; सोऽसिद्ध एव दर्शनेऽपि सन्तानान्तरगतस्य तज्ज्ञानस्य कुतश्चित्तत्प्रतिपत्तावपि तद्विषयविशेषस्य अनवगतेः।</p> | ||
<p>= स्वरूपासिद्ध इस प्रकार है - `नील और | <p class="HindiText">= स्वरूपासिद्ध इस प्रकार है - `नील और नीलवान् में अभेद है, सहोपलम्भ नियम होने से।' यहाँ यदि युगपत् प्राप्ति को हेतु माना जाये तो वह असिद्ध ही है। विषय दर्शन होने पर भी सन्तानान्तरगत उस ज्ञान की कहीं प्राप्ति होने पर भी उस विषय विशेष की जानकारी नहीं होती।</p> | ||
<p>4. सदिग्धासिद्ध हेत्वाभास</p> | <p class="HindiText"><b>4. सदिग्धासिद्ध हेत्वाभास</b></p> | ||
< | <span class="GRef">परीक्षामुख परिच्छेद 6/25-26</span> <p class="SanskritText">अविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुधिं प्रति अग्निरत्र धूमात् ॥25॥ तस्य वाष्यादिभावेन भूतसंघाते संदेहात् ॥26॥</p> | ||
<p>= | <p class="HindiText">= अनुमान के स्वरूप से सर्वथा अनभिज्ञ किसी मूर्ख मनुष्य के सामने कहना कि `यहाँ अग्नि है क्योंकि धुआँ है' यह अविद्यमान निश्चय अर्थात् संदिग्धासिद्ध है, क्योंकि, मूर्ख मनुष्य किसी समय पृथिवी जल आदि भूत-संघात (बटलोई आदि) में भाप आदि को देखकर, यहाँ अग्नि है या नहीं ऐसा संदेह कर बैठता है। </p> | ||
<p>( न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100)</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100)</span></p> | ||
< | <span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ वृत्ति.2/197/226/7</span> <p class="SanskritText">संदिग्धासिद्धो यथेह निकुञ्जे मयूरः केकायितादिति। तत्र हि यदा स्वरूप एव संदेहः किमयं मयूरस्यैव स्वरः आहोस्वित् मनुष्यस्येति तदाश्रये वा किमस्मान्निञ्जात् केकायितापात आहोस्विदन्यत इति।</p> | ||
<p>= | <p class="HindiText">= संदिग्धासिद्ध ऐसा है जैसे कि - `इस निकंज में मोर कूकता है' ऐसा कहना। क्योंकि वहाँ ऐसा संदेह है कि क्या यह स्वर मोर का है अथवा मनुष्य का है। इसी प्रकार आश्रय में भी क्या इस कुंज से बोलता है अथवा किसी अन्य से ऐसा संदेह है। इसलिए इसके संदिग्धासिद्वपना है ही।</p> | ||
<p>5. आश्रयासिद्ध हेत्वाभास</p> | <p class="HindiText"><b>5. आश्रयासिद्ध हेत्वाभास</b></p> | ||
< | <span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ वृत्ति 2/197/228/3 </span><p class="SanskritText">आश्रयासिद्धो यथा भावमात्रानुषङ्गी विनाशो भावानां निर्हेतुकत्वादिति। निरन्वयो ह्यत्र भावप्रध्वंसो धर्मी निर्दिष्टः स चासिद्ध एव। अन्यथा किमनेन हेतुना तस्यैवातोऽपि साधनात्।</p> | ||
<p>= आश्रयासिद्ध इस प्रकार है - | <p class="HindiText">= आश्रयासिद्ध इस प्रकार है - भावों का विनाश भावमात्रानुषंगी होता है, हेतु रहित होने से। यहाँ निरन्वय भाव प्रध्वंस को धर्मी कहा गया है, वह असिद्ध ही है। अन्यथा इस हेतु की क्या आवश्यकता थी, इसी हेतु से उसकी भी सिद्धि हो जाती है।</p> | ||
<p>6. | <p class="HindiText"><b>6. अज्ञात हेत्वाभास</b></p> | ||
< | <span class="GRef">परीक्षामुख परिच्छेद 6/27-28</span> <p class="SanskritText">सांख्यं प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥27॥ तेनाज्ञातत्वात् ॥28॥</p> | ||
<p>= `शब्द परिणामी है, क्योंकि यह किया हुआ है' यहाँ | <p class="HindiText">= `शब्द परिणामी है, क्योंकि यह किया हुआ है' यहाँ सांख्य के प्रति कृतकत्व हेतु अज्ञात है। क्योंकि सांख्य मत में पदार्थों का आविर्भाव तिरोभाव माना गया है, उत्पाद और व्यय नहीं। इसलिए वे कृतकता को नहीं जानते।</p> | ||
<p>7. व्याप्यासिद्ध या एकदेशासिद्ध हेत्वाभास</p> | <p class="HindiText"><b>7. व्याप्यासिद्ध या एकदेशासिद्ध हेत्वाभास</b></p> | ||
< | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/19/2/67/23</span> <p class="SanskritText">केचिदाहुः-प्राप्यकारि चक्षुः आवृतानवगृहात् त्वगिन्द्रियवदिति; अत्रोच्यते-काचाभ्रपटलस्फटिकावृतार्थावग्रहे सति अव्यापकत्वादसिद्धो हेतुः वनस्पतिचैतन्ये स्वापवत्।</p> | ||
<p>= `चक्षु प्राप्यकारी है, क्योंकि, वह ढंके हुए | <p class="HindiText">= `चक्षु प्राप्यकारी है, क्योंकि, वह ढंके हुए पदार्थ को नहीं देखती, जैसे कि स्पर्शनेंद्रिय' यह पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि चक्षु, काँच, अभ्रक, स्फटिक आदि से आवृत पदार्थों को बराबर देखता है, अतः पक्ष में ही अव्यापक होने से उक्त हेतु असिद्ध है, जैसे कि वनस्पति में चैतन्य सिद्ध करने के लिए दिया जाने वाला `स्वाप (सोना)' हेतु। क्योंकि किन्हीं वनस्पतियों में संकोच आदि चिह्नों से चैतन्य स्पष्ट जाना जाता है, किन्हीं में नहीं।</p> | ||
<noinclude> | <noinclude> | ||
[[ असिद्ध पक्षाभास | [[ असिद्ध पक्षाभास | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
[[ | [[ असिद्धत्व | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: अ]] | [[Category: अ]] | ||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
परीक्षामुख परिच्छेद 6/22
असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः ॥22॥
= जिसकी सत्ता का पक्ष में अभाव हो और निश्चय न हो उसे असिद्ध कहते हैं।
न्यायविनिश्चय/2/197/226/
तथा साध्ये सत्यसति च यस्यासिद्धिरसौ असिद्धो नाम।
= साध्य के होने पर अथवा न होने पर जिसकी सिद्धि नहीं होती, वह हेतु असिद्ध कहलाता है।
न्यायदीपिका अधिकार 3/$40/86
`अनिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्धः, यथा अनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वात् अत्र हि चाक्षुषत्वं हेतु पक्षीकृते शब्दे न वर्त्तते श्रावणत्वाच्छब्दस्य। तथा च पक्षधर्मविरहादसिद्धत्वं चाक्षुषत्वस्य।
= पक्ष में जिनका रहना अनिश्चित हो वह असिद्ध हेत्वाभास है। जैसे - `शब्द अनित्य है, क्योंकि इंद्रिय से जाना जाता है'। यहाँ `चक्षु इंद्रिय से जाना जाता है' यह हेतु पक्ष भूत शब्द में नहीं रहता है। कारण, शब्द श्रोतेंद्रिय से जाना जाता है। इसलिए पक्षधर्मत्व के न होने से `चक्षु इंद्रिय से जाना जाना' हेतु असिद्ध हेत्वाभास है।
( न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100/2)
2. असिद्ध हेत्वाभास के भेद
परीक्षामुख परिच्छेद 6/24,26
स्वरूपेणासत्त्वात् ॥24॥ संदेहात् ॥26॥
= असिद्ध हेतवाभास दो प्रकार होता है - स्वरूपासिद्ध और संदिग्धासिद्ध।
( न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100)
न्यायविनिश्चय/वृत्ति 2/197/226/5
स तु अनेकधा चायम्-अज्ञात-संदिग्ध-स्वरुपाश्रयाप्रतिज्ञार्थैकदेशासिद्धविकल्पात्।
= वह असिद्ध हेत्वाभास अनेक प्रकार का है-अज्ञात, संदिग्ध, स्वरूप, आश्रय, प्रतिज्ञार्थ, एकदेश असिद्ध।
3. स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास
परीक्षामुख परिच्छेद 6/23-24
अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात् ॥23॥ स्वरूपेणासत्त्वात् ॥24॥
= `शब्द परिणामी है, क्योंकि यह आँख से देखा जाता है।' यह अविद्यमानसत्ताक अर्थात् स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है।
( न्यायदीपिका अधिकार 3/$40/86) ( न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100)
न्यायविनिश्चय/ वृत्ति 2/197/226/11
स्वरूपासिद्धो यथा “सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धियोः” इत्यत्र यदि युगपदुपलम्भनियमो हेत्वर्थः; सोऽसिद्ध एव दर्शनेऽपि सन्तानान्तरगतस्य तज्ज्ञानस्य कुतश्चित्तत्प्रतिपत्तावपि तद्विषयविशेषस्य अनवगतेः।
= स्वरूपासिद्ध इस प्रकार है - `नील और नीलवान् में अभेद है, सहोपलम्भ नियम होने से।' यहाँ यदि युगपत् प्राप्ति को हेतु माना जाये तो वह असिद्ध ही है। विषय दर्शन होने पर भी सन्तानान्तरगत उस ज्ञान की कहीं प्राप्ति होने पर भी उस विषय विशेष की जानकारी नहीं होती।
4. सदिग्धासिद्ध हेत्वाभास
परीक्षामुख परिच्छेद 6/25-26
अविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुधिं प्रति अग्निरत्र धूमात् ॥25॥ तस्य वाष्यादिभावेन भूतसंघाते संदेहात् ॥26॥
= अनुमान के स्वरूप से सर्वथा अनभिज्ञ किसी मूर्ख मनुष्य के सामने कहना कि `यहाँ अग्नि है क्योंकि धुआँ है' यह अविद्यमान निश्चय अर्थात् संदिग्धासिद्ध है, क्योंकि, मूर्ख मनुष्य किसी समय पृथिवी जल आदि भूत-संघात (बटलोई आदि) में भाप आदि को देखकर, यहाँ अग्नि है या नहीं ऐसा संदेह कर बैठता है।
(न्यायदीपिका अधिकार 3/$60/100)
न्यायविनिश्चय/ वृत्ति.2/197/226/7
संदिग्धासिद्धो यथेह निकुञ्जे मयूरः केकायितादिति। तत्र हि यदा स्वरूप एव संदेहः किमयं मयूरस्यैव स्वरः आहोस्वित् मनुष्यस्येति तदाश्रये वा किमस्मान्निञ्जात् केकायितापात आहोस्विदन्यत इति।
= संदिग्धासिद्ध ऐसा है जैसे कि - `इस निकंज में मोर कूकता है' ऐसा कहना। क्योंकि वहाँ ऐसा संदेह है कि क्या यह स्वर मोर का है अथवा मनुष्य का है। इसी प्रकार आश्रय में भी क्या इस कुंज से बोलता है अथवा किसी अन्य से ऐसा संदेह है। इसलिए इसके संदिग्धासिद्वपना है ही।
5. आश्रयासिद्ध हेत्वाभास
न्यायविनिश्चय/ वृत्ति 2/197/228/3
आश्रयासिद्धो यथा भावमात्रानुषङ्गी विनाशो भावानां निर्हेतुकत्वादिति। निरन्वयो ह्यत्र भावप्रध्वंसो धर्मी निर्दिष्टः स चासिद्ध एव। अन्यथा किमनेन हेतुना तस्यैवातोऽपि साधनात्।
= आश्रयासिद्ध इस प्रकार है - भावों का विनाश भावमात्रानुषंगी होता है, हेतु रहित होने से। यहाँ निरन्वय भाव प्रध्वंस को धर्मी कहा गया है, वह असिद्ध ही है। अन्यथा इस हेतु की क्या आवश्यकता थी, इसी हेतु से उसकी भी सिद्धि हो जाती है।
6. अज्ञात हेत्वाभास
परीक्षामुख परिच्छेद 6/27-28
सांख्यं प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥27॥ तेनाज्ञातत्वात् ॥28॥
= `शब्द परिणामी है, क्योंकि यह किया हुआ है' यहाँ सांख्य के प्रति कृतकत्व हेतु अज्ञात है। क्योंकि सांख्य मत में पदार्थों का आविर्भाव तिरोभाव माना गया है, उत्पाद और व्यय नहीं। इसलिए वे कृतकता को नहीं जानते।
7. व्याप्यासिद्ध या एकदेशासिद्ध हेत्वाभास
राजवार्तिक अध्याय 1/19/2/67/23
केचिदाहुः-प्राप्यकारि चक्षुः आवृतानवगृहात् त्वगिन्द्रियवदिति; अत्रोच्यते-काचाभ्रपटलस्फटिकावृतार्थावग्रहे सति अव्यापकत्वादसिद्धो हेतुः वनस्पतिचैतन्ये स्वापवत्।
= `चक्षु प्राप्यकारी है, क्योंकि, वह ढंके हुए पदार्थ को नहीं देखती, जैसे कि स्पर्शनेंद्रिय' यह पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि चक्षु, काँच, अभ्रक, स्फटिक आदि से आवृत पदार्थों को बराबर देखता है, अतः पक्ष में ही अव्यापक होने से उक्त हेतु असिद्ध है, जैसे कि वनस्पति में चैतन्य सिद्ध करने के लिए दिया जाने वाला `स्वाप (सोना)' हेतु। क्योंकि किन्हीं वनस्पतियों में संकोच आदि चिह्नों से चैतन्य स्पष्ट जाना जाता है, किन्हीं में नहीं।