आकिंचन्य धर्म: Difference between revisions
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<span class="GRef">बारस अणुवेक्खा 79</span> <p class=" PrakritText ">होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहितु सुहदुहदं। णिछंदेण दु वट्टदि अणयारो तस्स किंचण्णह ॥79॥</p> | |||
<p>= जो मुनि सर्व प्रकारके परिग्रहोंसे रहित होकर और सुख-दुःखके देनेवाले कर्म जनित निजभावोंको रोककर | <p class="HindiText">= जो मुनि सर्व प्रकारके परिग्रहोंसे रहित होकर और सुख-दुःखके देनेवाले कर्म जनित निजभावोंको रोककर निर्द्वंद्वतासे अर्थात् निश्चिंतता से आचरण करना है उसके आकिंचन्य धर्म होता है।</p> | ||
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<p>= जो शरीरादि उपात्त हैं उनमें भी संस्कारका त्याग करनेके लिए `यह मेरा है' इस प्रकारके अभिप्रायका त्याग करना | <p class="HindiText">= जो शरीरादि उपात्त हैं उनमें भी संस्कारका त्याग करनेके लिए `यह मेरा है' इस प्रकारके अभिप्रायका त्याग करना आकिंचन्य है। जिसका कुछ नहीं है वह अकिंचन है, और उसका भाव या कर्म आकिंचन्य है।</p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/6/21/598/14) ( तत्त्वार्थसार अधिकार 6/20) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/54/607)</p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/6/21/598/14)</span> <span class="GRef">(तत्त्वार्थसार अधिकार 6/20)</span> <span class="GRef">( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/54/607)</span></p> | ||
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< | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/6/27/599/26</span> <p class="SanskritText">परिग्रहाशा बलवती सर्वदोषप्रसवयोनिः। न तस्या उपाधिभिः तृप्तिरस्ति सलिलैरिव सलिलनिधेरिह बडवायाः। अपि च, कः पूरयति दुःपूमाशागर्तम्। दिने दिने यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते। शरीरादीषु निर्ममत्वः परमनिवृत्तिमवाप्नोति। शरीरादिषु कृताभिष्वंगस्य सर्वकालभिष्वंग एव संसारे।</p> | ||
<p>= परिग्रहकी आशा | <p class="HindiText">= परिग्रहकी आशा बड़ी बलवती है वह समस्त दोषों की उत्पत्ति का स्थान है जैसे-पानी से समुद्र का बड़वानल शांत नहीं होता उसी तरह परिग्रह से आशा समुद्र की तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशा का गड्ढा दुष्पूर है इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समा कर मुँह बाने लगता है। शरीरादि से ममत्व शून्य व्यक्ति परम संतोष को प्राप्त होता है। शरीरादि में राग करने वाले सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है।</p> | ||
<p>( | <p><span class="GRef">(पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 1/82-105)</span></p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 9/6/666 का सारार्थ (जाकै शरीरादि विषै ममत्व नाहीं होय सो परम सुख कूं पावे है।)</p> | <p><span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/6/666 का सारार्थ</span> (जाकै शरीरादि विषै ममत्व नाहीं होय सो परम सुख कूं पावे है।)</p> | ||
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Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
बारस अणुवेक्खा 79
होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहितु सुहदुहदं। णिछंदेण दु वट्टदि अणयारो तस्स किंचण्णह ॥79॥
= जो मुनि सर्व प्रकारके परिग्रहोंसे रहित होकर और सुख-दुःखके देनेवाले कर्म जनित निजभावोंको रोककर निर्द्वंद्वतासे अर्थात् निश्चिंतता से आचरण करना है उसके आकिंचन्य धर्म होता है।
( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 1/101-102)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/6/413
उपात्तेष्वपिशरीरदिषु संस्कारापोहाय ममेंदमित्यभिसंधिनिवृत्तिराकिंचंयम्। नास्य किंचनास्तीत्यकिंचनः। तस्य भावः कर्मवा आकिंचन्यम्
= जो शरीरादि उपात्त हैं उनमें भी संस्कारका त्याग करनेके लिए `यह मेरा है' इस प्रकारके अभिप्रायका त्याग करना आकिंचन्य है। जिसका कुछ नहीं है वह अकिंचन है, और उसका भाव या कर्म आकिंचन्य है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/6/21/598/14) (तत्त्वार्थसार अधिकार 6/20) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/54/607)
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 46/154/16
अकिंचनतासकलग्रंथत्यागः
= संपूर्ण परिग्रहका त्याग करना यह आकिंचन्य धर्म है।
( कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 402)
2. आकिंचन्यधर्म पालानार्थ विशेष भावनाएँ
राजवार्तिक अध्याय 9/6/27/599/26
परिग्रहाशा बलवती सर्वदोषप्रसवयोनिः। न तस्या उपाधिभिः तृप्तिरस्ति सलिलैरिव सलिलनिधेरिह बडवायाः। अपि च, कः पूरयति दुःपूमाशागर्तम्। दिने दिने यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते। शरीरादीषु निर्ममत्वः परमनिवृत्तिमवाप्नोति। शरीरादिषु कृताभिष्वंगस्य सर्वकालभिष्वंग एव संसारे।
= परिग्रहकी आशा बड़ी बलवती है वह समस्त दोषों की उत्पत्ति का स्थान है जैसे-पानी से समुद्र का बड़वानल शांत नहीं होता उसी तरह परिग्रह से आशा समुद्र की तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशा का गड्ढा दुष्पूर है इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समा कर मुँह बाने लगता है। शरीरादि से ममत्व शून्य व्यक्ति परम संतोष को प्राप्त होता है। शरीरादि में राग करने वाले सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है।
(पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 1/82-105)
राजवार्तिक अध्याय 9/6/666 का सारार्थ (जाकै शरीरादि विषै ममत्व नाहीं होय सो परम सुख कूं पावे है।)
• दश धर्मोंकी विशेषताएँ - देखें धर्म - 8
• आकिंचन्य व शौचधर्ममें अंतर - देखें शौच