योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 113: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- तेषु (सचित्त-अचित्त-परद्रव्येषु) प्रवर्तमानस्य (जीवस्य) कर्मणाम् पर: आस्रव: (जायते) । तत: कर्मास्रव-निमग्नस्य (जीवस्य) उत्तार: न जायते । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- तेषु (सचित्त-अचित्त-परद्रव्येषु) प्रवर्तमानस्य (जीवस्य) कर्मणाम् पर: आस्रव: (जायते) । तत: कर्मास्रव-निमग्नस्य (जीवस्य) उत्तार: न जायते । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- चेतन-अचेतनरूप पर-पदार्थो में अपनेपन की बुद्धि से प्रवृत्ति को प्राप्त जीव को कर्मो का महा आस्रव होता है । इसलिए जो कर्मो के महा आस्रवों में डूबा रहता है, उस जीव का संसार से उद्धार नहीं हो सकता | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- चेतन-अचेतनरूप पर-पदार्थो में अपनेपन की बुद्धि से प्रवृत्ति को प्राप्त जीव को कर्मो का महा आस्रव होता है । इसलिए जो कर्मो के महा आस्रवों में डूबा रहता है, उस जीव का संसार से उद्धार नहीं हो सकता । </p> | ||
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मिथ्यात्वरूप पाप का फल -
तेषु प्रवर्तमानस्य कर्मणामास्रव: पर: ।
कर्मास्रव-निमग्नस्य नोत्तारो जायते तत: ।।११३।।
अन्वय :- तेषु (सचित्त-अचित्त-परद्रव्येषु) प्रवर्तमानस्य (जीवस्य) कर्मणाम् पर: आस्रव: (जायते) । तत: कर्मास्रव-निमग्नस्य (जीवस्य) उत्तार: न जायते ।
सरलार्थ :- चेतन-अचेतनरूप पर-पदार्थो में अपनेपन की बुद्धि से प्रवृत्ति को प्राप्त जीव को कर्मो का महा आस्रव होता है । इसलिए जो कर्मो के महा आस्रवों में डूबा रहता है, उस जीव का संसार से उद्धार नहीं हो सकता ।