योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 128: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- यदा (अयं जीव:) आत्मीयं, अनात्मीयं, विनश्वरं, अनश्वरं, सुखदं, दु:खदं , चेतनं, अचेतनं (वा) न वेत्ति । तदा कर्म-आस्रवं अजानान: मूढानस: पुत्र-दारादिके द्रव्ये आत्मीयत्व-शेुषीं विधत्ते । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- यदा (अयं जीव:) आत्मीयं, अनात्मीयं, विनश्वरं, अनश्वरं, सुखदं, दु:खदं , चेतनं, अचेतनं (वा) न वेत्ति । तदा कर्म-आस्रवं अजानान: मूढानस: पुत्र-दारादिके द्रव्ये आत्मीयत्व-शेुषीं विधत्ते । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- जबतक यह जीव आत्मीय-अनात्मीय, विनाशीक-अविनाशीक, सुखदायी- दु:खदायी और चेतन-अचेतनको नहीं जानता है तबतक कर्मके आस्रवको न जानता हुआ यह मूढ प्राणी, पुत्र-स्त्री आदि पदार्थो में आत्मीयत्व की बुद्धि रखता है - उन्हें अपना समझता है | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- जबतक यह जीव आत्मीय-अनात्मीय, विनाशीक-अविनाशीक, सुखदायी- दु:खदायी और चेतन-अचेतनको नहीं जानता है तबतक कर्मके आस्रवको न जानता हुआ यह मूढ प्राणी, पुत्र-स्त्री आदि पदार्थो में आत्मीयत्व की बुद्धि रखता है - उन्हें अपना समझता है । </p> | ||
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मिथ्यात्व से पुत्रादिक में आत्मीय बुद्धि -
यदात्मीयमनात्मीयं विनश्वरमनश्वरम् ।
सुखदं दुखदं वेत्ति न चेतनमचेतनम् ।।१२८।।
पुत्र-दारादिके द्रव्ये तदात्मीयत्व-शेुषीम् ।
कर्मास्रवमजानानो विधत्ते मूढ़ानस: ।।१२९।।
अन्वय :- यदा (अयं जीव:) आत्मीयं, अनात्मीयं, विनश्वरं, अनश्वरं, सुखदं, दु:खदं , चेतनं, अचेतनं (वा) न वेत्ति । तदा कर्म-आस्रवं अजानान: मूढानस: पुत्र-दारादिके द्रव्ये आत्मीयत्व-शेुषीं विधत्ते ।
सरलार्थ :- जबतक यह जीव आत्मीय-अनात्मीय, विनाशीक-अविनाशीक, सुखदायी- दु:खदायी और चेतन-अचेतनको नहीं जानता है तबतक कर्मके आस्रवको न जानता हुआ यह मूढ प्राणी, पुत्र-स्त्री आदि पदार्थो में आत्मीयत्व की बुद्धि रखता है - उन्हें अपना समझता है ।