योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 133: Difference between revisions
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नान्योन्य-गुण-कर्तृत्वं विद्यते जीव-कर्मणो: ।<br> | नान्योन्य-गुण-कर्तृत्वं विद्यते जीव-कर्मणो: ।<br> | ||
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<p><b> अन्वय </b>:- जीव-कर्मणो: अन्योन्य-गुण-कर्तृत्वं न विद्यते । अन्योन्यापेक्षया केवलं परिणामस्य उत्पत्ति: (जायते) । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- जीव-कर्मणो: अन्योन्य-गुण-कर्तृत्वं न विद्यते । अन्योन्यापेक्षया केवलं परिणामस्य उत्पत्ति: (जायते) । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- जीव और आठ प्रकार के कर्म में एक दूसरे के गुणों का कर्तापना विद्यमान नहीं है अर्थात् न जीव में कर्म के गुणों को करने की सामर्थ्य है और न कर्म में जीव के गुणों को उत्पन्न करने की शक्ति है । एक-दूसरे की अपेक्षा से अर्थात् निमित्त से केवल परिणाम की ही उत्पत्ति होती | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- जीव और आठ प्रकार के कर्म में एक दूसरे के गुणों का कर्तापना विद्यमान नहीं है अर्थात् न जीव में कर्म के गुणों को करने की सामर्थ्य है और न कर्म में जीव के गुणों को उत्पन्न करने की शक्ति है । एक-दूसरे की अपेक्षा से अर्थात् निमित्त से केवल परिणाम की ही उत्पत्ति होती है । </p> | ||
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जीव तथा कर्म के कर्तृत्वसंबंधी कथन -
नान्योन्य-गुण-कर्तृत्वं विद्यते जीव-कर्मणो: ।
अन्योन्यापेक्षयोत्पत्ति: परिणामस्य केवलम् ।।१३३।।
अन्वय :- जीव-कर्मणो: अन्योन्य-गुण-कर्तृत्वं न विद्यते । अन्योन्यापेक्षया केवलं परिणामस्य उत्पत्ति: (जायते) ।
सरलार्थ :- जीव और आठ प्रकार के कर्म में एक दूसरे के गुणों का कर्तापना विद्यमान नहीं है अर्थात् न जीव में कर्म के गुणों को करने की सामर्थ्य है और न कर्म में जीव के गुणों को उत्पन्न करने की शक्ति है । एक-दूसरे की अपेक्षा से अर्थात् निमित्त से केवल परिणाम की ही उत्पत्ति होती है ।