योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 141: Difference between revisions
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मिथ्याचारित्र का स्वरूप और स्पष्ट करते हैं - | <p class="Utthanika">मिथ्याचारित्र का स्वरूप और स्पष्ट करते हैं -</p> | ||
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<p><b> अन्वय </b>:- यत: (शुभ-अशुभ) परिणामत: पुण्यं वा पापं संपद्यते । तत: तत्र वर्तमान: स्वचारित्रत: भ्रष्ट: अस्ति । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- यत: (शुभ-अशुभ) परिणामत: पुण्यं वा पापं संपद्यते । तत: तत्र वर्तमान: स्वचारित्रत: भ्रष्ट: अस्ति । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- क्योंकि शुभ और अशुभ परिणाम से पुण्य तथा पाप कर्म की उत्पत्ति होती है, इसलिए इन परिणामों में (उपादेय बुद्धि से) प्रवर्तमान आत्मा अपने चारित्र से भ्रष्ट होता है । </p> | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- क्योंकि शुभ और अशुभ परिणाम से पुण्य तथा पाप कर्म की उत्पत्ति होती है, इसलिए इन परिणामों में (उपादेय बुद्धि से) प्रवर्तमान आत्मा अपने चारित्र से भ्रष्ट होता है । </p> | ||
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Latest revision as of 10:37, 15 May 2009
मिथ्याचारित्र का स्वरूप और स्पष्ट करते हैं -
यत: संपद्यते पुण्यं पापं वा परिणामत: ।
वर्तमानो ततस्तत्र भ्रष्टोsस्ति स्वचरित्रत: ।।१४१।।
अन्वय :- यत: (शुभ-अशुभ) परिणामत: पुण्यं वा पापं संपद्यते । तत: तत्र वर्तमान: स्वचारित्रत: भ्रष्ट: अस्ति ।
सरलार्थ :- क्योंकि शुभ और अशुभ परिणाम से पुण्य तथा पाप कर्म की उत्पत्ति होती है, इसलिए इन परिणामों में (उपादेय बुद्धि से) प्रवर्तमान आत्मा अपने चारित्र से भ्रष्ट होता है ।