योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 92: Difference between revisions
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<p class="Utthanika">द्रव्यकर्म और भावकर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिकपना -</p> | |||
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कर्मतो जायते भावो भावत: कर्म सर्वदा ।<br> | |||
इत्थं कर्तृत्वमन्योन्यं द्रष्टव्यं भाव-कर्मणो: ।।९२।।<br> | |||
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<p><b> अन्वय </b>:- | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- कर्मत: भाव: जायते भावत: सर्वदा कर्म (जायते)। इत्थं भाव-कर्मणो: अन्योन्यं कर्तृत्वं द्रष्टव्यम् । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- मोहनीय नामक द्रव्यकर्म के उदय के निमित्त से मोह-राग-द्वेष आदि जीव के विकारी परिणाम सदा उत्पन्न होते हैं और मोह-राग-द्वेष आदि जीव के विकारी परिणामों के निमित्त से सदा ज्ञानावरणादि आठ अथवा एक सौ अडतालीस प्रकृतिरूप द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं । इसतरह द्रव्यकर्म और भावकर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिकपना जानना चाहिए । </p> | ||
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Latest revision as of 10:21, 15 May 2009
द्रव्यकर्म और भावकर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिकपना -
कर्मतो जायते भावो भावत: कर्म सर्वदा ।
इत्थं कर्तृत्वमन्योन्यं द्रष्टव्यं भाव-कर्मणो: ।।९२।।
अन्वय :- कर्मत: भाव: जायते भावत: सर्वदा कर्म (जायते)। इत्थं भाव-कर्मणो: अन्योन्यं कर्तृत्वं द्रष्टव्यम् ।
सरलार्थ :- मोहनीय नामक द्रव्यकर्म के उदय के निमित्त से मोह-राग-द्वेष आदि जीव के विकारी परिणाम सदा उत्पन्न होते हैं और मोह-राग-द्वेष आदि जीव के विकारी परिणामों के निमित्त से सदा ज्ञानावरणादि आठ अथवा एक सौ अडतालीस प्रकृतिरूप द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं । इसतरह द्रव्यकर्म और भावकर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिकपना जानना चाहिए ।