योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 109: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- ये अजीवतत्त्वं जीवतत्त्वात् विधिना विभक्तं सम्यक् न विदन्ति ते चारित्रवन्त: अपि अपास्त-दोषं विविक्तं आत्मानं न लभन्ते । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- ये अजीवतत्त्वं जीवतत्त्वात् विधिना विभक्तं सम्यक् न विदन्ति ते चारित्रवन्त: अपि अपास्त-दोषं विविक्तं आत्मानं न लभन्ते । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- जो लोग जीवतत्त्व से भिन्नरूप अजीवतत्त्व को शास्त्रोक्त रीति से/यथार्थरूप से नहीं जानते, वे जिनेंद्र-कथित व्यवहारचारित्र के पालन से चारित्रवन्त होते हुए भी विविक्त अर्थात् अनादि से पवित्र और सर्वथा निर्दोष निज जीवतत्त्व को प्राप्त नहीं होते । </p> | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- जो लोग जीवतत्त्व से भिन्नरूप अजीवतत्त्व को शास्त्रोक्त रीति से/यथार्थरूप से नहीं जानते, वे जिनेंद्र-कथित व्यवहारचारित्र के पालन से चारित्रवन्त होते हुए भी विविक्त अर्थात् अनादि से पवित्र और सर्वथा निर्दोष निज जीवतत्त्व को प्राप्त नहीं होते । </p> | ||
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Latest revision as of 10:26, 15 May 2009
अजीव तत्त्व जानने की अनिवार्यता -
(उपजाति)
अजीवतत्त्वं न विदन्ति सम्यक् ये जीवतत्त्वाद्विधिना विभक्तम् ।
चारित्रवन्तोsपि न ते लभन्ते विविक्तमात्मानमपास्तदोषम् ।।१०९।।
अन्वय :- ये अजीवतत्त्वं जीवतत्त्वात् विधिना विभक्तं सम्यक् न विदन्ति ते चारित्रवन्त: अपि अपास्त-दोषं विविक्तं आत्मानं न लभन्ते ।
सरलार्थ :- जो लोग जीवतत्त्व से भिन्नरूप अजीवतत्त्व को शास्त्रोक्त रीति से/यथार्थरूप से नहीं जानते, वे जिनेंद्र-कथित व्यवहारचारित्र के पालन से चारित्रवन्त होते हुए भी विविक्त अर्थात् अनादि से पवित्र और सर्वथा निर्दोष निज जीवतत्त्व को प्राप्त नहीं होते ।