आलुंच्छन: Difference between revisions
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<p>देखें [[ आलोचना#1 | आलोचना - 1]]।</p> | <span class="GRef">नियमसार / मूल या टीका गाथा 208</span> <p class="PrakritText">आलोयणमालंच्छणवियडीकरणं च भावसुद्धी य। चउविहमिह परिकहियं आलोयण लक्खणं समए ॥208॥</p> | ||
<p class="HindiText">= आलोचना का स्वरूप आलोचन, '''आलुंच्छन''', अविकृतिकरण और भावशुद्धि ऐसे चार प्रकार शास्त्र में कहा है।</p> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 534-535</span> <p class="PrakritText">ओघेणालोचेदि हु अपरिमिदवराधसव्वघादी वा। अज्जोपाए इत्थं सामण्णमहं खु तुच्छेति ॥534॥ पव्वज्जादी सव्व कमेण ज जत्थ जेण भावेण। पडिसेविदं तहा तं आलोचिंतो पदविभागी ॥535॥</p> | |||
<p class="HindiText">= जिसने अपरिमित अपराध किये हैं अथवा जिसके रत्नत्रय और सर्व व्रतों का नाश हुआ है, वह मुनि सामान्य रीति से अपराध का निवेदन करता है। आज से में पुनः मुनि होने की इच्छा करता हूँ मैं तुच्छ हूँ अर्थात् मैं रत्नत्रय से आप लोगों से छोटा हूँ ऐसा कहना सामान्य आलोचना है ॥535॥ तीन काल में, जिस देश में, जिस परिणाम से जो दोष हो गया है उस दोष की मैं आलोचना करता हूँ। ऐसा कहकर जो दोष क्रम से आचार्य के आगे क्षपक कहता है उसकी वह पदविभागी आलोचना है ॥536॥</p> | |||
<span class="GRef">नियमसार / मूल या टीका गाथा 110-112</span> <p class="PrakritText">कम्ममहोरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो साहीणो समभावो आलुंच्छणमिदि समुद्दिट्ठं ॥110॥ कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं मज्झत्थ भावणाए वियडीकरणं त्ति। विण्णेयं ॥111॥ मदमाणमायालोहविवज्जिय भावो दु भावसुद्धि त्ति। परिकहिदं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं ॥112॥</p> | |||
<p class="HindiText">= कर्म रूपी वृक्ष का मूल छेदन में समर्थ ऐसा जो समभाव रूप स्वाधीन निज परिणाम उसे '''आलंच्छन''' कहा है ॥110॥ जो मध्यस्थ भावना में कर्म से भिन्न आत्मा को, जो कि विमल गुणों का निवास है, उसे भाता है उस जीव को अविकृति करण जानना ॥111॥ मद, मान, माया और लोभ रहित भाव वह भावशुद्धि है। ऐसा भव्यों का लोक के द्रष्टाओं ने कहा है ॥112॥</p><br> | |||
<p class="HindiText">देखें [[ आलोचना#1.2 | आलोचना - 1.2]]।</p> | |||
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नियमसार / मूल या टीका गाथा 208
आलोयणमालंच्छणवियडीकरणं च भावसुद्धी य। चउविहमिह परिकहियं आलोयण लक्खणं समए ॥208॥
= आलोचना का स्वरूप आलोचन, आलुंच्छन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि ऐसे चार प्रकार शास्त्र में कहा है।
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 534-535
ओघेणालोचेदि हु अपरिमिदवराधसव्वघादी वा। अज्जोपाए इत्थं सामण्णमहं खु तुच्छेति ॥534॥ पव्वज्जादी सव्व कमेण ज जत्थ जेण भावेण। पडिसेविदं तहा तं आलोचिंतो पदविभागी ॥535॥
= जिसने अपरिमित अपराध किये हैं अथवा जिसके रत्नत्रय और सर्व व्रतों का नाश हुआ है, वह मुनि सामान्य रीति से अपराध का निवेदन करता है। आज से में पुनः मुनि होने की इच्छा करता हूँ मैं तुच्छ हूँ अर्थात् मैं रत्नत्रय से आप लोगों से छोटा हूँ ऐसा कहना सामान्य आलोचना है ॥535॥ तीन काल में, जिस देश में, जिस परिणाम से जो दोष हो गया है उस दोष की मैं आलोचना करता हूँ। ऐसा कहकर जो दोष क्रम से आचार्य के आगे क्षपक कहता है उसकी वह पदविभागी आलोचना है ॥536॥
नियमसार / मूल या टीका गाथा 110-112
कम्ममहोरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो साहीणो समभावो आलुंच्छणमिदि समुद्दिट्ठं ॥110॥ कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं मज्झत्थ भावणाए वियडीकरणं त्ति। विण्णेयं ॥111॥ मदमाणमायालोहविवज्जिय भावो दु भावसुद्धि त्ति। परिकहिदं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं ॥112॥
= कर्म रूपी वृक्ष का मूल छेदन में समर्थ ऐसा जो समभाव रूप स्वाधीन निज परिणाम उसे आलंच्छन कहा है ॥110॥ जो मध्यस्थ भावना में कर्म से भिन्न आत्मा को, जो कि विमल गुणों का निवास है, उसे भाता है उस जीव को अविकृति करण जानना ॥111॥ मद, मान, माया और लोभ रहित भाव वह भावशुद्धि है। ऐसा भव्यों का लोक के द्रष्टाओं ने कहा है ॥112॥
देखें आलोचना - 1.2।