गंधकुटी: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/ गाथा का भावार्थ</span><br> <span class="HindiText">- 1. समवसरण के स्वरूप में 31 अधिकार हैं - सामान्य भूमि, सोपान, विन्यास, वीथी, धूलिशाल, (प्रथमकोट) चैत्यप्रासाद भूमियाँ, नृत्यशाला, मानस्तंभ, वेदी, खातिकाभूमि, वेदी, लताभूमि, साल (द्वितीय कोट), उपवनभूमि, नृत्यशाला, वेदी, ध्वजभूमि, साल (तृतीय-कोट), कल्पभूमि, नृत्यशाला, वेदी, भवनभूमि, स्तूप, साल (चतुष्क कोट), श्रीमंडप, ऋषि आदि गण, वेदी, पीठ, द्वितीय-पीठ, तृतीय पीठ, और '''गंधकूटी'''।712-715। 2. .....5. प्रत्येक दिशा में सोपानों से लेकर अष्टम भूमि के भीतर '''गंधकुटी''' की प्रथम पीठ तक, एक-एक बीथी (सड़क) होती है।724। वीथियों के दोनों बाजुओं में वीथियों जितनी ही लंबी दो वेदियाँ होती हैं।728। आठों भूमियों के मूल में बहुत से तोरणद्वार होते हैं।731। 6. सर्वप्रथम धूलिशाल नामक प्रथम कोट है।733। इसकी चारों दिशाओं में चार तोरण द्वार हैं।734। प्रत्येक गोपुर (द्वार) के बाहर मंगल द्रव्य नवनिधि व धूप घट आदि युक्त पुतलियाँ स्थित हैं।737। प्र.....।829-833। </span> </p> | |||
<div class="HindiText">समवशरण के मध्य भगवान् के बैठने का स्थान।–देखें [[ समवशरण ]]।</div> | |||
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<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> समवसरण में तीर्थंकर के बैठने का स्थान । यह छ: सौ धनुष प्रमाण चौड़ी होती है । इसकी तृतीय कटनी पर कुबेर द्वारा निर्मित रत्नजटित सिंहासन होता है । यह अनेक शिखरों से युक्त होती है । इसमें तीन पीठ होते हैं । इसे पुष्पमालाओं, रत्नों की झालरों तथा अनेक ध्वजाओं से सुसज्जित किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 23. 10-26, 33. 112, 150 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_57#7|हरिवंशपुराण - 57.7]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 14.177-983 </span></p> | |||
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Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
तिलोयपण्णत्ति/4/ गाथा का भावार्थ
- 1. समवसरण के स्वरूप में 31 अधिकार हैं - सामान्य भूमि, सोपान, विन्यास, वीथी, धूलिशाल, (प्रथमकोट) चैत्यप्रासाद भूमियाँ, नृत्यशाला, मानस्तंभ, वेदी, खातिकाभूमि, वेदी, लताभूमि, साल (द्वितीय कोट), उपवनभूमि, नृत्यशाला, वेदी, ध्वजभूमि, साल (तृतीय-कोट), कल्पभूमि, नृत्यशाला, वेदी, भवनभूमि, स्तूप, साल (चतुष्क कोट), श्रीमंडप, ऋषि आदि गण, वेदी, पीठ, द्वितीय-पीठ, तृतीय पीठ, और गंधकूटी।712-715। 2. .....5. प्रत्येक दिशा में सोपानों से लेकर अष्टम भूमि के भीतर गंधकुटी की प्रथम पीठ तक, एक-एक बीथी (सड़क) होती है।724। वीथियों के दोनों बाजुओं में वीथियों जितनी ही लंबी दो वेदियाँ होती हैं।728। आठों भूमियों के मूल में बहुत से तोरणद्वार होते हैं।731। 6. सर्वप्रथम धूलिशाल नामक प्रथम कोट है।733। इसकी चारों दिशाओं में चार तोरण द्वार हैं।734। प्रत्येक गोपुर (द्वार) के बाहर मंगल द्रव्य नवनिधि व धूप घट आदि युक्त पुतलियाँ स्थित हैं।737। प्र.....।829-833।
पुराणकोष से
समवसरण में तीर्थंकर के बैठने का स्थान । यह छ: सौ धनुष प्रमाण चौड़ी होती है । इसकी तृतीय कटनी पर कुबेर द्वारा निर्मित रत्नजटित सिंहासन होता है । यह अनेक शिखरों से युक्त होती है । इसमें तीन पीठ होते हैं । इसे पुष्पमालाओं, रत्नों की झालरों तथा अनेक ध्वजाओं से सुसज्जित किया जाता है । महापुराण 23. 10-26, 33. 112, 150 हरिवंशपुराण - 57.7, वीरवर्द्धमान चरित्र 14.177-983