घोर तप: Difference between revisions
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<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५५</span> <p class="PrakritText">जलसूलप्पमुहाणं रोगेणच्चंतपीडिअंगा वि। साहंति दुर्द्ध रतवं जोए सा घोरतवरिद्धी ।१०५५। </p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२६/९२/२</span> <p class="PrakritText">उववासेसुछम्मासोववासो, अवमोदरियासु एक्ककवलो उत्तिपरिसंखासु चच्चरे गोयराभिग्गहो, रसपरिच्चाग्गेसु उण्हजलजुदोयणभोयणं, विवित्तसयणासणेसु वय-वग्घ-तरच्छ-छवल्लादिसावयसेवियासुसज्झविज्झुडईसु णिवासो, कायकिलेसेसुतिव्वहिमवासादिणिवदंतविसएसु अब्भोकासरुक्खमूलादावणजोगग्गहणं। एवमब्भंतरतवेसु वि उक्कट्ठतवपरूवणा कायव्वा। एसो बारह विह वि तवो कायरजणाणं सज्झसजणणो त्ति घोरत्तवो। सो जेसिं ते घोरत्तवा। बारसविहतवउक्कट्ठवट्ठाए वट्टमाणा घोरतवा त्ति भणिद होदि। एसा वि तवजणिदरिद्धी चेव, अण्णहा एवं विहाचरणाणुववत्तीदो। </p> <p class="HindiText">= <span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति )</span> जिस ऋद्धि के बल से ज्वर और शूलादिक रोग से शरीर के अत्यन्त पीड़ित होने पर भी साधुजन दुर्द्धर तप को सिद्ध करते हैं, वह '''घोर तपऋद्धि''' है ।१०५५। उपवासों में छह मास का उपवास अवमोदर्य तपों में एक ग्रास; वृत्तिपरिसंख्याओं में चौराहे में भिक्षा की प्रतिज्ञा; रसपरित्यागों में उष्ण जल युक्त ओदन का भोजन; विविक्तशय्यासनों में वृक, व्याघ्र, तरक्ष, छवल्ल आदि श्वापद अर्थात् हिंस्रजीवों से सेवित सह्य, विन्ध्य आदि (पर्वतों की) अटवियों में निवास; कायक्लेशों में तीव्र हिमालय आदि के अन्तर्गत देशों में, खुले आकाश के नीचे, अथवा वृक्षमूल में; आतापन योग अर्थात् ध्यान ग्रहण करना। इसी प्रकार अभ्यन्तर तपों में भी उत्कृष्ट तप की प्ररूपणा करनी चाहिए। ये बारह प्रकार ही तप कायर जनों को भयोत्पादक हैं, इसी कारण घोर तप कहलाते हैं। वह तप जिनके होता है वे '''घोर तप ऋद्धि''' के धारक हैं। बारह प्रकार के तपों की उत्कृष्ट अवस्था में वर्तमान साधु घोर तप कहलाते हैं, यह तात्पर्य है। यह भी तप जनित (तप से उत्पन्न होनेवाली) ऋद्धि ही है, क्योंकि बिना तप के इस प्रकार का आचरण बन नहीं सकता। <span class="GRef">( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/१२)</span>, <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२२/२)</span>। </p> | |||
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Latest revision as of 22:20, 17 November 2023
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५५
जलसूलप्पमुहाणं रोगेणच्चंतपीडिअंगा वि। साहंति दुर्द्ध रतवं जोए सा घोरतवरिद्धी ।१०५५।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२६/९२/२
उववासेसुछम्मासोववासो, अवमोदरियासु एक्ककवलो उत्तिपरिसंखासु चच्चरे गोयराभिग्गहो, रसपरिच्चाग्गेसु उण्हजलजुदोयणभोयणं, विवित्तसयणासणेसु वय-वग्घ-तरच्छ-छवल्लादिसावयसेवियासुसज्झविज्झुडईसु णिवासो, कायकिलेसेसुतिव्वहिमवासादिणिवदंतविसएसु अब्भोकासरुक्खमूलादावणजोगग्गहणं। एवमब्भंतरतवेसु वि उक्कट्ठतवपरूवणा कायव्वा। एसो बारह विह वि तवो कायरजणाणं सज्झसजणणो त्ति घोरत्तवो। सो जेसिं ते घोरत्तवा। बारसविहतवउक्कट्ठवट्ठाए वट्टमाणा घोरतवा त्ति भणिद होदि। एसा वि तवजणिदरिद्धी चेव, अण्णहा एवं विहाचरणाणुववत्तीदो।
= (तिलोयपण्णत्ति ) जिस ऋद्धि के बल से ज्वर और शूलादिक रोग से शरीर के अत्यन्त पीड़ित होने पर भी साधुजन दुर्द्धर तप को सिद्ध करते हैं, वह घोर तपऋद्धि है ।१०५५। उपवासों में छह मास का उपवास अवमोदर्य तपों में एक ग्रास; वृत्तिपरिसंख्याओं में चौराहे में भिक्षा की प्रतिज्ञा; रसपरित्यागों में उष्ण जल युक्त ओदन का भोजन; विविक्तशय्यासनों में वृक, व्याघ्र, तरक्ष, छवल्ल आदि श्वापद अर्थात् हिंस्रजीवों से सेवित सह्य, विन्ध्य आदि (पर्वतों की) अटवियों में निवास; कायक्लेशों में तीव्र हिमालय आदि के अन्तर्गत देशों में, खुले आकाश के नीचे, अथवा वृक्षमूल में; आतापन योग अर्थात् ध्यान ग्रहण करना। इसी प्रकार अभ्यन्तर तपों में भी उत्कृष्ट तप की प्ररूपणा करनी चाहिए। ये बारह प्रकार ही तप कायर जनों को भयोत्पादक हैं, इसी कारण घोर तप कहलाते हैं। वह तप जिनके होता है वे घोर तप ऋद्धि के धारक हैं। बारह प्रकार के तपों की उत्कृष्ट अवस्था में वर्तमान साधु घोर तप कहलाते हैं, यह तात्पर्य है। यह भी तप जनित (तप से उत्पन्न होनेवाली) ऋद्धि ही है, क्योंकि बिना तप के इस प्रकार का आचरण बन नहीं सकता। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/१२), (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२२/२)।
देखें ऋद्धि - 5.2।