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| <p id="1"> (1) जम्बूद्वीप में पश्चिम विदेहक्षेत्र के गन्धमालिनी देश की वीतशोका नगरी के राजा वैजयन्त और उसकी रानी सर्वश्री का पुत्र । यह संजयन्त का अनुज था । इसने पिता और भाई के साथ स्वयंभू तीर्थंकर से दीक्षा ले ली थी । पिता को केवलज्ञान होने पर उसकी वन्दना के लिए आये धरणेन्द्र को देखकर मुनि अवस्था में ही इसने धरणेन्द्र होने का निदान किया जिससे मरकर यह धरणेन्द्र हुआ । यह अपने भाई संजयन्त के उपसर्गकारी विद्युद्दंष्ट्र को समुद्र में गिराना चाहता था किन्तु आदित्याभ देव के समझाने से यह ऐसा नहीं कर सका था । <span class="GRef"> महापुराण 19.109-115,131-143, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 27.5-9 </span></p>
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| <p id="2">(2) दुर्जय नामक वन से मुक्त एक गिरि । प्रद्युम्न को यहाँ ही विद्याधर वायु की पुत्री रति प्राप्त हुई थी । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 47.43 </span></p>
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| <p id="3">(3) एक अनुत्तर विमान । यह नव ग्रैवेयकों के ऊपर वर्तमान है । <span class="GRef"> महापुराण 70.59, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 105.170-171 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 6.65,34.150 </span></p>
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| <p id="4">(4) तीर्थंकर मल्लिनाथ दारा दीक्षा के समय व्यवहृत यान । <span class="GRef"> महापुराण 66.46-47 </span></p>
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| <p id="5">(5) आकाशस्फटिक मणि से बने समवसरण भूमि के तीसरे कोट में पश्चिमी द्वार के आठ नामों मे प्रथम नाम । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 57.59 </span></p>
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| <p id="6">(6) विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का पन्द्रहवाँ नगर । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22.87 </span></p>
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| <p id="7">(7) जम्बूद्वीप की जगती के चार द्वारों में एक द्वार । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5. 390 </span></p>
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| <p id="8">(8) इन्द्र विद्याधर का पुत्र । इसने भयंकर युद्ध में श्रीमाली का वध किया था । <span class="GRef"> पद्मपुराण 12.224-242 </span></p>
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| <p id="9">(9) पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन और उसकी रानी श्रीकान्ता का पुत्र, वज्रनाभि का सहोदर । <span class="GRef"> महापुराण 10.9-10 </span></p>
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| <p id="10">(10) जयकुमार का अनुज । इसने जयकुमार के साथ ही दीक्षा ली थी । <span class="GRef"> महापुराण 47.280-283 </span></p>
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| <p id="11">(11) धातकीखण्ड के ऐरावत क्षेत्र में तिलकनगर के राजा अभयघोष और रानी स्वर्णतिलका का पुत्र । यह विजय का अनुज था । <span class="GRef"> महापुराण 63.168-169 </span></p>
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