धूमप्रभा: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> नरक की पाँचवी पृथिवी । इसका रूढ़ नाम अरिष्टा है । इसकी मोटाई बीस हजार योजन है । इसमें तीन लाख बिल तथा नगरों के आकार में तम, भ्रम, इष, अर्त और तामिस्र नाम के पाँच इंद्रक बिल है । <span class="GRef"> महापुराण 10.31, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#44|हरिवंशपुराण - 4.44-46]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#83|हरिवंशपुराण - 4.83]] </span><br> | |||
इन इंद्रक बिलों की चारों महादिशाओं और विदिशाओं से श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या इस प्रकार है― </p> | |||
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<p>इस पृथिवी में 2. 99,735 प्रकीर्णक बिल होते हैं । सारे बिलों की संख्या तीन लाख है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#138|हरिवंशपुराण - 4.138-144]] </span>तम इंद्रक बिल के पूर्व में निरुद्ध, पश्चिम में अतिनिरुद्ध, दक्षिण में विमर्दन और उत्तर में महाविमर्दन महानरक है । इंद्रक बिलों की मुटाई तीन कोस श्रेणिबद्ध बिलों की चार कोस और प्रकीर्णकों की सात कोस होती है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#156|हरिवंशपुराण - 4.156]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#222|हरिवंशपुराण - 4.222]] </span><br> | |||
इंद्रक बिलों की स्थिति इस प्रकार है― </p> | |||
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<p>इस पृथिवी में 2. 99,735 प्रकीर्णक बिल होते हैं । सारे बिलों की संख्या तीन लाख है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.138-144 </span>तम | |- | ||
| भ्रम|| 12 5/4 सागर || 11 5/2 सागर|| 87 धनुष | |||
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<p><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4. 286-290, 333-335 </span> | | तमिस्र || 17 सागर || 15 5/3 सागर|| 125 धनुष | ||
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<p><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#286|हरिवंशपुराण - 4.286-290]], 333-335 </span>इंद्रक बिल तिकोने और तीन द्वार वाले तथा श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिल दो से सात द्वार वाले होते हैं । इसके साठ हजार बिल संख्यात योजन विस्तार वाले तथा दो लाख चालीस हजार बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं । इस पृथिवी के ऊपरी भाग में नील और अधोभाग में कृष्ण लेश्या होती है । यहाँ नारकी उष्ण और शीत दोनों प्रकार के कष्ट सहते हैं । इस पृथ्वी के निगोदों में नारकी अत्यंत दु:खी होकर एक सौ पच्चीस योजन आकाश में उछल कर नीचे गिरते हैं । सिंह इस पृथिवी के आगे नहीं जन्मता । यहाँ से निकले जीव पुन: यहाँ तीन बार तक आ जाते हैं । यहाँ से निकलकर जीव संयम तो धारण कर लेते हैं किंतु वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते । मोक्ष पाने के लिए उन्हें आगे जन्म ग्रहण करने पड़ते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 10.97, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#165|हरिवंशपुराण - 4.165]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#344|हरिवंशपुराण - 4.344]], 346, 352, 359, 374-379 </span></p> | |||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
सर्वार्थसिद्धि/3/1/203/8 धूमप्रभा सहचरिता भूमिर्धूमप्रभा। =जिस पृथिवी की प्रभा धुआँ के समान है वह भूमि धूमप्रभा है। ( तिलोयपण्णत्ति/2/21 ), ( राजवार्तिक/3/1/3/159/19 )
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/121 अवसेसा पुढवीओ बोद्धव्वा होंति पंकबहुलाओ।=रत्नप्रभा को छोड़कर (नरक की) शेष छ: पृथिवियों को पंक बहुल जानना चाहिए।
पुराणकोष से
नरक की पाँचवी पृथिवी । इसका रूढ़ नाम अरिष्टा है । इसकी मोटाई बीस हजार योजन है । इसमें तीन लाख बिल तथा नगरों के आकार में तम, भ्रम, इष, अर्त और तामिस्र नाम के पाँच इंद्रक बिल है । महापुराण 10.31, हरिवंशपुराण - 4.44-46,हरिवंशपुराण - 4.83
इन इंद्रक बिलों की चारों महादिशाओं और विदिशाओं से श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या इस प्रकार है―
क्रमांक |
नाम इंद्रक | महादिशाओं के विदिशाओं के बिलों की संख्या | विदिशाओं के बिलों की संख्या |
---|---|---|---|
1 | तम | 36 | 32 |
2 | भ्रम | 32 | 28 |
3 | झष | 28 | 24 |
4 | अर्त/अंध्र | 24 | 20 |
5 | तमिस्र | 20 | 16 |
इस पृथिवी में 2. 99,735 प्रकीर्णक बिल होते हैं । सारे बिलों की संख्या तीन लाख है । हरिवंशपुराण - 4.138-144 तम इंद्रक बिल के पूर्व में निरुद्ध, पश्चिम में अतिनिरुद्ध, दक्षिण में विमर्दन और उत्तर में महाविमर्दन महानरक है । इंद्रक बिलों की मुटाई तीन कोस श्रेणिबद्ध बिलों की चार कोस और प्रकीर्णकों की सात कोस होती है । हरिवंशपुराण - 4.156,हरिवंशपुराण - 4.222
इंद्रक बिलों की स्थिति इस प्रकार है―
नाम इंद्रक | उत्कृष्ट स्थिति | जघन्य स्थिति | ऊँचाई |
---|---|---|---|
तम | 11 5/2 सागर | 10 सागर | 75 धनुष |
भ्रम | 12 5/4 सागर | 11 5/2 सागर | 87 धनुष |
झष | 14 5/1 सागर | 12 5/4 सागर | 100 धनुष |
अंध्र | 15 5/3 सागर | 14 5/1 सागर | 111 धनुष 2 हाथ |
तमिस्र | 17 सागर | 15 5/3 सागर | 125 धनुष |
हरिवंशपुराण - 4.286-290, 333-335 इंद्रक बिल तिकोने और तीन द्वार वाले तथा श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिल दो से सात द्वार वाले होते हैं । इसके साठ हजार बिल संख्यात योजन विस्तार वाले तथा दो लाख चालीस हजार बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं । इस पृथिवी के ऊपरी भाग में नील और अधोभाग में कृष्ण लेश्या होती है । यहाँ नारकी उष्ण और शीत दोनों प्रकार के कष्ट सहते हैं । इस पृथ्वी के निगोदों में नारकी अत्यंत दु:खी होकर एक सौ पच्चीस योजन आकाश में उछल कर नीचे गिरते हैं । सिंह इस पृथिवी के आगे नहीं जन्मता । यहाँ से निकले जीव पुन: यहाँ तीन बार तक आ जाते हैं । यहाँ से निकलकर जीव संयम तो धारण कर लेते हैं किंतु वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते । मोक्ष पाने के लिए उन्हें आगे जन्म ग्रहण करने पड़ते हैं । महापुराण 10.97, हरिवंशपुराण - 4.165,हरिवंशपुराण - 4.344, 346, 352, 359, 374-379