आस्रवानुप्रेक्षा: Difference between revisions
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<span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419)</span> <p class="SanskritText">आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रीतोवेगतीक्ष्णा इंद्रियकषायाव्रतादयः तत्रेंद्रियाणि तावत्स्पर्शादीनि वनगजवायसपन्नागपतंगहरिणादीन् व्यसनार्णवमगाहयंति तथा कषायोदयोऽपीह वधबंधापयशःपरिक्लेशादीं जनयंति। अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदुःखप्रज्वलितासु परिभ्रमयंतीत्येवमास्रवदोषानुचिंतनमास्रवानुप्रेक्षा </p> | |||
<p class="HindiText">= आस्रव इस लोक ओर परलोक में दुःखदायी हैं। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इंद्रिय, कषाय और अव्रत रूप हैं। उनमें से स्पर्शादिक इंद्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतंग और हरिण आदि को दुःखरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदि भी इस लोक में, वध, बंध, अपयश और क्लेशादिक दुःखों को उत्पन्न करती हैं। तथा परलोक में नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों को चिंतवन करना '''आस्रवानुप्रेक्षा''' है। </p><br> | |||
<p><span class="GRef">(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1821-1835)</span> <span class="GRef">(समयसार / मूल या टीका गाथा 164-165)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/22)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 193/2)</span> <span class="GRef">(पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/51)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/70-71)</span> <span class="GRef">(भूधरकृत भावना सं. 7)</span>।</p> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/110</span> <p class="SanskritText"> इंद्रियाणि....कषाया....पंचाव्रतानि....पंचविंशतिक्रिया....रूपास्रवाणां....द्वारैः...... कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्रे पातो भवति। न च....मुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति। एवमास्रवगतदोषानुचिंतनमास्रवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति। </p> | |||
<p class="HindiText">= पाँच इंद्रिय, चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रिया रूप आस्रवों के द्वारों से कर्मजल के प्रवेश हो जाने पर संसार समुद्र में पतन होता है और मुक्तिरूपी वेलापत्तन की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार आस्रव के दोषों का पुनः-पुनः चिंतवन सो '''आस्रवानुप्रेक्षा''' जानना चाहिए।</p> | |||
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<p class="HindiText"> बारह अनुप्रेक्षाओं में सातवीं अनुप्रेक्षा । राग आदि भावों के द्वारा पुद्गल पिंड कर्मरूप होकर आते और दुःख देते हैं । इसी से जीव अनंत संसार-सागर में डूबता है । पाँच प्रकार का मिथ्यात्व, बारह अविरति, पंद्रह प्रमाद और पच्चीस कषाय इस प्रकार कुछ सत्तावन कर्मास्रव के कारण होते हैं । दर्शन, ज्ञान, चारित्र से इस आस्रव को रोका जा सकता है । <span class="GRef"> ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#238|पद्मपुराण - 14.238-239]]), </span><span class="GRef"> (पांडवपुराण 25.99-101) </span><span class="GRef"> (वीरवर्द्धमान चरित्र 11.64-73) </span><br> | |||
- अधिक जानकारी के लिए देखें [[ अनुप्रेक्षा ]]।</p> | |||
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Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419)
आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रीतोवेगतीक्ष्णा इंद्रियकषायाव्रतादयः तत्रेंद्रियाणि तावत्स्पर्शादीनि वनगजवायसपन्नागपतंगहरिणादीन् व्यसनार्णवमगाहयंति तथा कषायोदयोऽपीह वधबंधापयशःपरिक्लेशादीं जनयंति। अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदुःखप्रज्वलितासु परिभ्रमयंतीत्येवमास्रवदोषानुचिंतनमास्रवानुप्रेक्षा
= आस्रव इस लोक ओर परलोक में दुःखदायी हैं। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इंद्रिय, कषाय और अव्रत रूप हैं। उनमें से स्पर्शादिक इंद्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतंग और हरिण आदि को दुःखरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदि भी इस लोक में, वध, बंध, अपयश और क्लेशादिक दुःखों को उत्पन्न करती हैं। तथा परलोक में नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों को चिंतवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है।
(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1821-1835) (समयसार / मूल या टीका गाथा 164-165) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/22) ( चारित्रसार पृष्ठ 193/2) (पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/51) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/70-71) (भूधरकृत भावना सं. 7)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/110
इंद्रियाणि....कषाया....पंचाव्रतानि....पंचविंशतिक्रिया....रूपास्रवाणां....द्वारैः...... कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्रे पातो भवति। न च....मुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति। एवमास्रवगतदोषानुचिंतनमास्रवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति।
= पाँच इंद्रिय, चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रिया रूप आस्रवों के द्वारों से कर्मजल के प्रवेश हो जाने पर संसार समुद्र में पतन होता है और मुक्तिरूपी वेलापत्तन की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार आस्रव के दोषों का पुनः-पुनः चिंतवन सो आस्रवानुप्रेक्षा जानना चाहिए।
देखें अनुप्रेक्षा 1.7
पुराणकोष से
बारह अनुप्रेक्षाओं में सातवीं अनुप्रेक्षा । राग आदि भावों के द्वारा पुद्गल पिंड कर्मरूप होकर आते और दुःख देते हैं । इसी से जीव अनंत संसार-सागर में डूबता है । पाँच प्रकार का मिथ्यात्व, बारह अविरति, पंद्रह प्रमाद और पच्चीस कषाय इस प्रकार कुछ सत्तावन कर्मास्रव के कारण होते हैं । दर्शन, ज्ञान, चारित्र से इस आस्रव को रोका जा सकता है । (पद्मपुराण - 14.238-239), (पांडवपुराण 25.99-101) (वीरवर्द्धमान चरित्र 11.64-73)
- अधिक जानकारी के लिए देखें अनुप्रेक्षा ।